बुधवार, 19 दिसंबर 2012

hydrabad..हैदराबाद शहर

मुझे दिसम्बर 2012 में हैदराबाद,आंध्र प्रदेश जाने का अवसर मिला यह पहला अवसर था जब मैं पहली बार दक्षिण भारत के किसी शहर में गया। सुना था कि यह नवाबों का शहर है लेकिन मैं इस शहर की नवीन शैली,हाईटेक सिटी व इसकी पुरानी सभ्यता का महान सिलसिला तथा आज के दौर का शहर सब कुछ बहुत ही सुन्दरता के साथ मन को सुशोभित कर रहा था  वर्तमान समय शहर बहुत ही सुन्दर व सडकें एकदम से स्वस्थ,कंही भी किसी प्रकार का कोई कट नहीं। मौसम ने तो शहर में चार चाँद लगा रखे हैं।धूल नाम की चीज नहीं।

अगर हम हरियाणा से हैदराबाद का मुकाबला करें तो पायेंगे कि हरियाणा तो बहुत ही पिछडा नजर आयेगा। जबकि हरियाणा के गाँव आंध्र प्रदेश के गाँवों से बेहतर है। लेकिन केवल हैदराबाद का मुकाबला गुडगाँव भी नहीं आता।।

दूसरा – मैं रात के बारह बजे भी जब शहर में  घूम रहा था तो पाया कि यहाँ लडकियाँ आधी रात तक भी सुरक्षित हैं। जबकि हरियाणा में घर में भी असुरक्षित हैं।भारत में यह अन्तर देखकर हैरानी होती है। कुल मिला कर मैं कह सकता हूं कि हैदराबाद संस्कृतियों का संगम है।

रविवार, 2 दिसंबर 2012

फिर रात मेरे पास में बैठी चली गई।

ऐ- दोस्तो बहुत ही नुकीली है जिन्दगी
हिम्मत तो देखिये फिर भी जी ली है जिन्दगी
सब दाल भात इसमें पकाया जा सकता है,
चूल्हे पे रक्खी एक पतीली है जिन्दगी

 

 

एक शेर खास…….

 

फिर रात मेरे पास में बैठी चली गई।
कैसा हूँ,दिल की बात भी पूछी चली गई।

फोटो……….खुशबू

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शुभ तारिका में प्रकाशित ग़ज़ल

खिली रहती है इक मुस्कान मेरे दिल के कोने में।P1212021326044

 

सूबे सिंह सुजान

सोमवार, 29 अक्तूबर 2012

ईशाकपुर का जंगल

एक ईशाकपुर नामक गाँव   की ज़मीन में अभी एक साल पहले तक एक पुराने समय जैसा जंगल था। यह लगभग सौ एकड का जंगल था।उस जंगल की खासियत यह थी कि वहां वही पुराने पेड,झाडियाँ,करोंदे के पेड,बेर की झाडियाँ व अन्य सब तरह के पेड मौजूद थे। अभी एक साल पहले की ही तो बात है वहाँ हर तरह के पक्षी मज़े से रहते थे। अनेकों रंगों  की चिडियाँ भी थी। काफी सालों से गाँव की पंचायत चाह रही थी कि जंगल की ज़मीन को खेतों में तबदील कर लिया जाये तो इस ज़मीन को ठेके पर देकर पंचायत को अच्छा लाभ प्राप्त हो सकता है।किसान लोग खेती करेंगे और पंचायत को प्रतिवर्ष ठेके के रूपये प्राप्त होते रहेंगे जिससे गाँव की गलियों व अन्य काम आसानी से हो सकेंगे। लेकिन दूसरी तरफ कुछ गाँव के ही लोग थे जो चाह रहे थे कि यह काम न होने पाये। इन लोगों में कोई भी ऐसा आदमी नहीं था जो यह चाहता हो कि जंगल की निशानी को बचाया रखा जा सके और इसलिये जंगल के काटे जाने का विरोध करता हो, बल्कि इसलिये विरोध करते थे कि कंही सरपंच और उसका खेमा यह काम करके वाहवाही न लूट ले। और फिर से अगले चुनाव में कंहीं उनको जनता दुबारा न चुन दे।

    इस तरह दोनों खेमों में कईं बार तनातनी भी हुई  लेकिन सरपंच की पक्ष का खेमा बहुत ठंडे स्वभाव का था जिस कारण हर बार टकराव  टलता रहा। यह गाँव के लिये व गाँव के लोगों के लिये बहुत अच्छी बात रही कि कभी कोई ख़ास झगडा आपस में नहीं हो सका।  कुछ समझदार लोगों के बीच में आने से यह टकराव टलता ही रहा।लेकिन इस गाँव का दुर्भाग्य यह है कि इन लोगों ने अपनी राजनीति की जंग में गाँव के सार्वजनिक काम नहीं होने दिये। जितनी भी सरकारी ग्रांट आई सब कामों पर झट से स्टे लगया जाता रहा। और गाँव की जनता के सारे काम अधूरे ही पडे रहे। और फिर एक दिन पंचायत कोर्ट केस जीत गई और  पुलिस की मदद से बी.डी.ओ. व तहसीलदार की उपस्थिति में जंगल के पेडों को कटवा कर उसके खेत बनाये गये। बहुत से ठेकेदारों को लकडी काटने का काम मिला जिसमें से तहसीलदार व बी.डी.ओ. का हिस्सा भी था। बेचारे गाँव के गरीब ठेकेदारों को यह काम नहीं मिल सका क्योंकि जब बोली की गई तो वह यह बोली नहीं दे सके। जबकि बाद में पता चला कि जो बोली मौके पर दिखाई गई थी वह तो झूठी थी असल बोली तो बहुत कम थी। हो भी क्यों न क्योंकि उऩ मोटे ठेकेदारों ने उसमें से मोटा हिस्सा बी.डी.ओ. व तहसीलदार को देना था।

                                      भारत की आज़ादी के बाद इसकी तरक्की में भारत के लोगों का ही बाधा के रूप में सबसे आगे आना ही एक मुख्य कारण रहा है  इसकी आज़ादी को अंग्रजों की अपेक्षा इन स्वदेशी अंग्रजों से ज्यादा खतरा आज तक रहा है। जो बदस्तूर ज़ारी है। जो अपनी राजनीति के चक्कर में हर ग़लत काम को अंज़ाम देते रहे हैं। इसी तरह उपर की राजनीति में है। यह तो एक गांव की राजनीति है। राज्य व राष्ट्रीय राजनीति में तो बहुत बडे गडबड घोटाले होते हैं आजकल जो उजागर होने के बाद भी जनता पर कुछ खास असर नहीं डाल पा रहे हैं। जनता को कुछ समझ नहीं आ रहा है कि कौन भला कौन बुरा है। जनता अच्छे आदमी की पहचान भी भूल गई है शायद, उसके सामने अच्छा आदमी हो तो वह उसको समझ नहीं पाती और फिर से ग़लत आदमी को चुन लेती है और हर बार पछताने के सिवा उसके पास कुछ नहीं रह जाता है।

  आज जब आठ साल का आरूष और मैं उस जंगल वाले खेतों के पास सटे एक डेरे में एक हड्डियों के डाक्टर के पास अपने पिता जी की टूटी हुई हड्डी को दिखाने गये तो आरूष ने इन चिडियों को देखा तो वह कह उठा कि डाक्टर बाबा आपके पास तो बहुत रंग-बिरंगी चिडियां हैं एक हमें भी दे दो। इस बात पर डा. पाल ने बताया कि बेटे अब इन चिडियों का घर ही लुट गया है इनको कौन और कब तक पाले रख सकेगा। वह बोले मैंने पिछले एक साल से चावल की कंई बोरियाँ इनके लिये कुटवायी हैं और प्रतिदिन सुबह इन्हें डालता हूँ जिसे खाने के लिये यह आती हैं और मेरे घर के आसपास इन्होने अपने घोंसले बना लिये हैं। वह आगे बोले कि जितना मुझसे हो सकेगा उतना मैं इन्हें खिलाता-पिलाता रहूँगा। यह हमारी लालची दिनचर्या का नतीज़ा है कि हम कुदरत की इन उडती हुई परियों के सौन्दर्य को भूल रहे हैं। इनमें असीम आन्नद है। ये चिडियाँ हमारे मन को शान्ति प्रदान करती हैं यह सोच  ही मानव की भावनाओं को मानव के करीब रखती है और हमें मानवता का पाठ पढाती है। मेरे बच्चे हमें इन चिडियों से प्यार करते रहना चाहिये यह हम मानवों की तरह इसी प्रकृति का हिस्सा हैं हमें कोई अधिकार नहीं कि हम इनके घोंसलों को तोडें। ये चिडियाँ तो जीवन का सबसे आन्नदायक गीत हैं जिसे गुनगुनाते हुये किसी वाध यन्त्र की आवश्यकता नहीं होती बल्कि प्रकृति स्वयं संगीत को बजाती है।

 

                                                                                                                                                                                                     सूबे सिहं सुजान

                                                                                                                                                                                                      29-10-2012

                                                                                                                                                                                                      करूक्षेत्र (09416334841)

शनिवार, 6 अक्तूबर 2012

शनिवार, 29 सितंबर 2012

दूसरे को तुच्छ कहने के पीछे क्या सोच होती है।

एक मुशायरे में भारत के दिग्गज सायर अपनी ग़ज़लें पढ रहे थे। कार्यक्रम के अंत में लोग अपनी-अपनी प्रतिक्रिया प्रकट कर रहे थे। एक महाश्य अच्छे शायर थे लेकिन उनको अच्छे-अच्छे शायरों में कोई भी अच्छा नहीं लगा । हां लेकिन उन्होने एक सुंदर शायरा की जरूर तारीफ की। और कहा कि मुन्नवर राणा व राहत इन्दौरी  की कुछ ख़ास शायरी नहीं हैं। इनसे अच्छी तो ये कल की शायरा है। इस वाक्य को सुन-देख मुझे बडी हैरानी हुई। क्या सोच होती है आदमी की एक नामवर शायर को भी तुच्छ कैसे कहा गया है। उस महाश्य के मन में क्या रहा है। इसमें कोई शक नहीं है। उस महाश्य को पहले तो यह लगता है कि मैं ही अच्छा शायर हूँ और कोई हो ही नहीं सकता। वह किसी की तारीफ़ कर ही नहीं सकते जो ख़ुद की तारीफ सुनना पसंद करते हैं। दूसरा सोने पे सुहागा ये हुआ कि वहां उनकी सोच के मुताबिक सुन्दरता की देवी मौजूद थी तो वह और किसी को अच्छा कैसे कहे भला। 

इस प्रकरण में यह भी तथ्य है कि उस आदमी को ऐसी बातें करने से मिलता क्या है क्या सामने वाले पर कोई असर पडता है। ऐसा नहीं है उसको तो मालूम भी नहीं कि उसने उसके बारे में क्या सोचा है। वह अपना काम तत्लीनता से कर रहा है और जब तक आदमी को पता ही नहीं कि उसके बारे में किसी ने क्या कहा है उस पर किसी प्रकार का असर भी नहीं पडता यह भी प्राकृतिक है। मानवीय स्वभाव हैं दोनों तरफ़- यह हर स्तर के व्यक्ति के साथ होता रहता है। यह मानवीय स्तरों के हर स्तर पर होता है मानव अपने आप से बहुत संतुष्ट होता है वह दूसरों की आलोचना करने में भी संतुष्टि प्राप्त करता है। लेकिन आलोचना तो होना व करना अच्छी बात है। लेकिन जब आलोचना ही बेहुदी तरीके की हो। जिसमें  से घृणा ही साफ़ झलकती हो तो वह स्वस्थ प्रकार की आलोचना न होकर ईर्ष्या से प्रेरित आलोचना है।

                                                                                 सूबे सिंह सुजान

गुरुवार, 20 सितंबर 2012

लोक कथा में मानव के लिये अदभुत सीख ।

एक तेली प्रतिदिन तेल बेचने जाता था। एक दिन वह बहुत दूर निकल गया और घने जंगल में रास्ता भटक गया था । शाम होने को थी और वह आज के दिन कुछ भी तेल नहीं बेच पाया था । अचानक उसे एक साँप दिखाई दिया पहले वह घबराया किन्तु साँप को वापिस जाता देख वह ठहर गया और साँप की ओर देखने लगा। कुछ ही देर में साँप बिल में गया और तुरन्त एक सोने की मोहर लेकर वापिस आया। जिसे वह वहीं छोड कर वापिस बिल में चला गया। तेली के मन में आया कि आज तो अच्छी दिहाडी निकल गई और मोहर को उठाने ही वाला था कि साँप दुबारा फिर बाहर आ गया साँप को देखकर तेली दौड कर पीछे हटा। लेकिन इस बार फिर साँप ने एक ओर सोने की मोहर वहीं छोड दी इस तरह साँप का यही क्रम चलता रहा और वहाँ पर सोने की मोहरों का ढेर लग गया। जब साँप का निकलना बंद हो गया तो तेली ने सारी सोने की मोहरों को उठाना चाहा लेकिन वह उन्हें किस वस्तु में डाले यही सोच रहा था कि उसे ध्यान आया कि जिस डोलची में तेल लिये है क्यों न उसी में डाल ले, ओर उसने वह तेल वहीं मिट्टी पर गिरा कर सोने की मोहरें उस में डाल ली। और आगे की ओर चलने लगा लेकिन शाम हो रही थी  तो उसने रात को ठहरने के लिये किसी जगह की तलाश शुरू कर दी। कुछ देर चलने के बाद उसे एक गाँव नज़र आया। वह गाँव में गया सामने वाले घर में जाकर कहा कि मुझे रात को ठहरने के लिये जगह दे देंवे।

 

घर का मालिक जो कि जाति से बनिया था बोला कि आप कौन हैं,कहाँ से आये हैं और क्या काम करते हैं। तेली ने जवाब दिया कि वह तेली है और हर रोज़ तेल बेचता है लेकिन आज उसका तेल भी नहीं बिका और वह जंगल में भटक गया इसलिये घर नहीं जा सका। बनिये ने उसकी परेशानी को समझते हुये उस पर विशवास करके उसे घर में पनाह दे दी। रात को तेली को खाना खिला कर सुला दिया गया। जब आधी रात हुई थी कि बनिये के घर में बहु को बच्चा हुआ और दाई ने तेल माँगा। लेकिन बनिये के घर में तेल नहीं था बनिये को तभी याद आया कि तेली के पास तो तेल जरूर होगा उसने जाकर तेली की डोलची में तेल देखा तो हैरान रह गया कि उसमें तेल नहीं सोने की मोहरें थी। उसने सोचा तेली ने झूठ बोला है तो क्यों न मोहरें चुरा लें और बनिये ने सारी मोहरें चुरा ली और मोहरों की जगह गाँव से तेल लाकर डाल दिया क्योंकि तेली ने कहा था कि उसका डोलची में तेल है।

सुबह जब तेली उठा तो उसे नाश्ता करवा कर बनिया गाँव से दूर तक छोडने गया तेली बार-बार कह रहा था कि धन्यवाद आप वापिस जायें। लेकिन बनिया उसे दूर तक छोडने गया। जब  बनिया वापिस गाँव की तरफ जाने लगा तो कुछ दूर जाकर तेली ने उत्सुकता पूर्वक डोलची को खोला तो उसमें सोना न पाकर व तेल देखकर उसके होश गुम हो गये।उसे गहरा सदमा लगा। वह इसी सदमें में सोच ही रहा था कि उसके पास एक आदमी आया। उसने पूछा कि आप इतने घबराये से क्यों लग रहे हैं। तेली ने सारी घटना बताई तो उस महर्षि ने बताया कि भाई इस घटना पर इतना दुखी मत हो क्योंकि वो सोने की मोहरें तेरे भाग्य की नहीं थी। वह तो बनिये के भाग्य की थी जो तेरे माध्यम से वहाँ पहुँचाई गई हैं। वह तेरी नहीं थी तेरे भाग्य में रोज तेल बेचना ही है यही तेरा काम है। जो कल तेरा तेल नहीं बिक सका था उसके एवज़ में तुझे कल का खाना मिल चुका है और आज का तेल तेरे पास है। यही भगवान की मरजी थी जो भगवान चाहते हैं वही होता है उसके बिन चाहे कुछ नहीं होता। प्रकृति ने सबके हिस्से के काम बाँट रखे हैं जो आपका काम है वह आपके पास है इसका मतलब आपका कुछ खोया नहीं गया है। 

                                                                    sube singh sujan

                                                                  9416334841

शुक्रवार, 14 सितंबर 2012

धूप का बोझ……..

धूप का बोझ सर पर उठा कर चला………..

देखिये वो बडा हौंसला कर चला…………….

मैं वफा की इबादत करूँ कब तलक,   

बेवफा तू मुझे बेवफ़ा कर चला……….सुजान

सोमवार, 27 अगस्त 2012

सावन का देर से आना।

आज हम सावन के आने पर भी खुश नहीं हैं क्योंकि वह देर से आया है लेकिन इसमें सावन का क्या दोष है। वह तो हमें फोलो कर रहा है। देर से आने का तो हमारा लम्बा इतिहास है। जो हमारे नेताओं की देन है। हमें इस मामले में नेताओं का शुक्रगुज़ार होना चाहिये। जिन्हें हमें यह सुदृढ परम्परा दी है। हमें नेताओं की कुर्बानियों को यूँ ही नहीं भुलाना चाहिये।  अब हम थोडा सा इस परम्मरा के इतिहास के बैकग्राऊंड पर नज़र डालते हैं। अक्सर नेता लोग ही लेट आते थे फिर धीरे-धीरे पता चला कि हमारे देश के कर्मचारियों को भी नेताओं की रीस हो गई और वो भी नेता के पदचिन्हों पर चलने लगे। नेताओं का देखिये आज कहां तक असर हुआ। अब इस देश में हर आदमी लेट आने को बडा हुनर मानने लगा है। सबमें होड लगी है लेट आने की। नेता से लेकर हर कर्मचारी अब लेट आने की तैयारी करता है। वह पूरी प्लान के साथ लेट होने के फायदे ढूंढता है। नेता का लेट होना तो ठीक था। और सबकी आसानी से समझ में भी आता था कि जब तक लोग अधिक से अधिक इक्कठ्ठे नहीं हो जाते तो नेता का सभा में आने का क्या फायदा । क्योंकि नेता को तो हमेशा जनता की फिक्र रहती है ना भला। उसे जनता के सिवा कुछ सूझता ही नहीं। जनता ही उसकी अन्दाता है,जनता ही उसकी विधाता है। अब गरीब बेचारे भगवान को पूजते रहते हैं। और नेता गरीब को पूजता है। है न चमत्कारी देश। नेता का पेट फूलता है,गरीब का पेट पतला होता है।

 

नेता ने सबको सिखाया कि देर से आना बहुत फायदेमंद है। और लगभग हर विभाग के कर्मचारियों ने इस तथ्य को परखा और फोलो करना शुरू कर दिया। फिर इन्हें देखा-देखी स्कूल में अध्यापक लेट आते, तो बच्चों ने भी लेट आना शुरू किया। बच्चों को खूब मज़ा आने लगा। और हालात मज़े के अब यह हैं कि बच्चों ने लेट आना सीखने के बाद बताया कि जो पढा-पढाया ही खरीद ले वो ज्यादा समझदार कहलाता है तो हर तरफ यही फिकरा हवा में गूंजने लगा। कि पढने वाला बेवकूफ और जो पढा-पढाया प्रमाणपत्र ले आये वह ही असली समझदार होता है। क्योंकि काम तो आदमी की योग्यता ने करना है। तो जो योग्य होगा भला उसे पढने की क्या जरूरत, पढने की जरूरत तो उसे है जो योग्य नहीं। और सिलसिला यूँ चला कि हर स्कूल के विद्धयार्थी पढना छोड कर जुगाड तकनीक का प्रयोग करने लगे। और नये-नये कीर्तिमानों की झडी लगा दी। खिलाडियों ने भी नेताओं की राह पर चल कर खेलों में नशीली दवाओं का प्रयोग करके खूब नाम और पैसा दोनों कमाये।

इस तरह मौसम ने भी आदमी से ही सीखा कि देर से आने के अपने फायदे हैं। अब देखिये ना कि पिछले कईं सालों से किसानों ने बेहद अनाज पैदा किया जिसे रखने के लिये सरकार के पास जगह नहीं रही और उसे समुद्र में फेंकना पडा। अब अगर जगह नहीं है तो समुद्र में ही फेंकेंगे ना। और कहां रखेंगे भला। जब अनाज ज्यादा होगा तो अब उसे कम करने के लिये आदमी तो सोचता नहीं तो मौसम को ही सोचना पडेगा। और मौसम ने सोचा। और इस बार देर से आया ताकि जो फ़सल किसान ने मर-मर कर खडी कर ली है। वह तो बम्पर होने वाली है। तो नेताओं ने सोचा कि इस बार हम इतने सारे अनाज को कहां रखेंगे। और मौसम विभाग को कहा देखो अगर आप लोगों को तन्ख्वाह लेनी है तो सावन को लेट कर दो। ताकि जो फ़सल किसानों ने उगा ली है। उसे बिना किसी लाग-लपेट के नष्ट किया जा सके।सांप  भी मरे और लाठी भी न टूटे। मौसम विभाग ने सावन से कहा देखो भई सावन अगर हमारे देश में हमारी इजाजत के बैगर आये तो आपकी खैर नहीं । इसलिये जब हम कहें तभी आना । और सावन आदमी से डर गया। सावन ने सुन रखा था कि आजकल आदमी खुद ही कृत्रिम बरसात कर लेता है। तो कंही कल मेरे ऊपर ही बैन ना लगा दे और वह चुपचाप मौसम विभाग की बात मान गया । और देर से आया और खूब आया ताकि सरकार को खूब मज़ा आये और कल हो सकता है सरकार मुझे ‘भारत रत्न’ से ही पुरस्कृत कर दे।

                                     सूबे सिंह सुजान

                                      e-mail-subesujan21@gmail.com

                                mob.09416334841

बुधवार, 15 अगस्त 2012

स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर कुरूक्षेत्र में मुशायरा।

अमीन साहित्य सभा की तरफ से स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर 14 अगस्त 2012 को सांय 7 बजे मुशायरे का आयोजन किया गया। जिसमें  जिला कांग्रेस के अध्यक्ष जय भगवान शर्मा (डी.डी.) मुख्य अतिथि रहे। व अध्यक्षता की करनाल से आये डा. महावीर शास्त्री ने। मंच के साहित्य अतिथि के रूप में डा. सत्य प्रकाश तफ्ता ने शिरकत की। मुशायरे में भाग लेने वाले मुख्य शायरों में चण्डीगढ से सत्यपाल सरूर, अम्बाला से रमेश तन्हा, करनाल से डा. सरिता आर्य,डा. ज्ञानी देवी, कैथल से गुलशन मदान, कमलेश शर्मा, पेहवा से डी.पी. दस्तूर, श्याम लाल बागडी, तथा कुरूक्षेत्र से स्थानीय शायरों में सत्य प्रकाश तफ्ता,डा. कुमार विनोद,डा. बलवान सिंह, सूबे सिंह सुजान,डा. सलोनी,डा. दिनेश दधीचि,दीदीर सिंह कीरती, दीवाना,कस्तूरी लाल शर्मा शाद,ओम प्रकाश राही,डा. सुधीर कुमार रामेशवर दास गुप्ता आदि शाइर, कवियों ने जम कर ग़ज़लें व कवितायें पढी।

कवियों ने भारत माता को याद किया व शहीदों के बलिदानों का गुणगान किया। सुजान ने अपने हाइकु में कहा-अमर रहे। बलिदान शहीदों का, अमर रहे। और ग़ज़ल के तीखी संवेदना को झकझोरते हुय़े शेर देखिये- बम फटा था निशान बाकी है, पूछ ले कोई जान बाकी है।डा. सरिता आर्य का बदलाव का नया रंग--- रिवायतों के सहारे कब तक कटेगी ये उम्र,आओ कुछ तोड-फोड करें सुधार के लिये। सत्यपाल कौशिक  ने कहा—वफ़ा के शहर में मक़बूल थी सदा अपनी,मगर न पहुंची ये उन तक भी ना रसा-कितनी। रमेश तन्हा ने कहा—बेलौस रही सदा मुहब्बत तेरी,तू न ले कभी किसी से नफ़रत । गुलशन मदान ने कहा—कुछ मत पूछो अपना हाल, कुदरत ने किया कमाल।।

डा. महावीर प्रसाद शास्त्री की कविता बहुत ही गहनता लिये हुये थी। जो स्त्री की मार्मिक अनुभूति को बयान करती है। देखें—पुरूष हमें तब चूमते हैं,जब हम सोये हुये होते हैं आराम से,और हम उनहें तब चूमती हैं, जब वे रो रहे होते हैं। और देश के हालात पर देखिये कितनी सार्थक कविता –ये चाँदी का टुकडा तेरा,ये चाँदी का टुकडा मेरा, अपने-2 टुकडों में से काट कर कुत्तों को भी तो देना है,जो रात बिरात पैहरा देते हैं।

इस तरह कुल मिला कर यह मुशायरा सफल रहा।जिसके पुरोधा बेधडक शायर बाल कृष्ण बेज़ार रहे।

सोमवार, 13 अगस्त 2012

Akesios - Blog

Akesios - Blogसोमवार, 13 अगस्त 2012बम फटा था निशान बाकी है।
बम फटा था निशान बाकी है

पूछ ले कोई जान बाकी है।।

जितना सामान ता वो लूट लिया,

मेरे दिल की दुकान बाकी है।।

देश का हाल इस तरह का है,

टूटी तलवार,म्यान बाकी है।।

मैं मरूँगा नहीं किसी हालात,

मुंह में जब तक जबान बाकी है।

हमने लूटा जमीं,हवा,पानी,

लूटना आसमान बाकी है।।

दोनों के बीच में मरा मज़हब,

हिन्दू और मुस्लमान बाकी है।।

अपना अनशन भी बेनतीज़ रहा,

क्या अभी इत्मिनान बाकी है।।

मारने में कोई क़सर तो नहीं,

फिर भी कैसे सुजान बाकी है।।

सूबे सिंह सुजान

13.08.2012

बम फटा था निशान बाकी है।

बम फटा था निशान बाकी है 

पूछ ले कोई जान बाकी है।।

जितना सामान ता वो लूट लिया,

मेरे दिल की दुकान बाकी है।।

देश का हाल इस तरह का है, 

टूटी तलवार,म्यान बाकी है।।

मैं मरूँगा नहीं किसी हालात, 

मुंह में जब तक जबान बाकी है।

हमने लूटा जमीं,हवा,पानी, 

लूटना   आसमान   बाकी   है।।

दोनों के बीच में मरा मज़हब,

हिन्दू और मुस्लमान बाकी है।।

अपना अनशन भी बेनतीज़ रहा, 

क्या अभी इत्मिनान बाकी है।।

मारने में कोई क़सर तो नहीं, 

फिर भी कैसे सुजान बाकी है।।

                        सूबे सिंह सुजान

                       13.08.2012

रविवार, 12 अगस्त 2012

ग़ज़ल के दो शेर

बम फटा था निशान बाकी है

पूछ ले कोई  जान  बाकी है।।

जितना सामान था वो लूट लिया,

मेरे दिल की दुकान बाकी है।।

सूबे सिंह सुजान

मंगलवार, 7 अगस्त 2012

कहानी---कैटी-एक बिल्ली का बच्चा

स्कूल में बच्चों ने एक बिल्ली का बच्चा पकड कर मुझे दिया। और कहने लगे कि आप इस बच्चे को पाल लें। बच्चा बहुत प्यारा था मैं भी मोहित हो गया। और उसे घर ले आया। घर पर बच्चों ने उससे पहले दिन तो दूरी बना कर रखी उन्हें उससे थोडा डर लग रहा था। लेकिन दो-चार  दिन बाद उससे इतने घुल-मिल गये कि उसके बिना खाना तक नहीं खाते थे। बच्चों को अपना प्यारा मित्र मिल चुका था। नीति फिर भी उससे दूरी बनाये रखती थी लेकिन आरूष हर पल उसके साथ ही रहता था। वह खाना भी उसके साथ ही खाता था। अगर उसकी माता उसे कहती कि खाना तो अलग बैठ कर ख लिया कर तो वह खाना खाने से ही मना कर देता था। इस पर उसकी मम्मी के लिये और आफ़त खडी हो जाती फिर वह बेटे को गले लगा कर,प्यार से मनाती और कुछ देर बाद उसका गुस्सा ठंडा होता और फिर वह खाना बिल्ली के साथ ही खाता। बच्चों में बिल्ली के प्रति प्यार को देखकर  मेरा मन खुश हो जाता था। मुझे अपने बचपन की यादें ताजा हो जाती थी। हालांकि मैं अपने बचपन में पालतु जानवरों के साथ खेलने को तो आतुर रहता था लेकिन खेल नहीं पाता था।क्योंकि पिता जी का इतना दबाव हमारे ऊपर रहता था कि हमें कभी खेलने का ठीक से अवसर ही नहीं मिल पाता था। हमारा बचपन का दौर केवल काम करने के लिये था। माता-पिता की आज्ञा मानना हमारे लिये ऐसा था जैसे कि भगवान की आज्ञा है कि जिसके आगे कोई चारा नहीं होता आदमी का,हमें जीवन के संघर्ष को अपने बचपन में ही सीख लिया होता था। आज हमारे बच्चों का बचपन ऐसा नहीं है। यह कितनी सुखदायक बात है हमारे लिये कि हम अपने बचपन को कष्टदायक जीते रहे और अपने बच्चों को वह कठिन बचपन नहीं दे रहे हैं। यही सोच, यही बात हमारे लिये मानवता का संदेश दे रही है।

 

आज बिल्ली का बच्चा  बडा हो गया है। आरूष के खेल का वह अभिन्न अंग है। उसकी दिनचर्या कैटी के साथ शुरू होती है और रात को सोने तक वह उसको बार-बार देखता है खिलाता है और तो और रात को सोते समय सपने में भी बिल्ली के बच्चे से बात करता पाता है। मैं बच्चों की मानसिकता को पढने का प्रयास कर रहा हूँ कि क्या अब बच्चे अपनी पढाई पर ठीक से ध्यान दे पायेंगे। कंही बच्चों की पढाई पर बुरा असर तो नहीं पडेगा। आज के माता-पिता की चिंता अलग प्रकार की है। वह बच्चे पर विभिन्न कोर्सों के पढने पर दबाव के प्रयास में रहता है।और यह प्रयास ही नहीं उनके स्टेटस सिंबल का बहुत बडा हिस्सा है। जो बच्चों के मन पर गहरा सदमा डालता है।जिस कारण बच्चे कईं बार आत्महत्या का कदम उठा लेते हैं।जीवन को जीना ज्यादा जरूरी है। क्योंकि जीवन जीने के लिये ही मिला है उस जीवन में वो क्या करेगा क्या नहीं यह भविष्य का प्रश्न है। इस बारे में कोई ठीक से नहीं कह सकता कि हमारे दबाव से ही बच्चा सही पढाई कर पाएगा।यह बात समय के गर्भ में ही रहती है। हालांकि प्रयास जरूरी तो होते हैं लेकिन डोर इतनी कभी न खींचो कि टूट जाये। इसी बात का ध्यान रखते हुये आरूष आज अपनी मित्र कैटी के साथ प्रसन्न है और पढाई भी ठीक कर रहा है।

                                                                                                                           लेखक- सूबे सिंह सुजान

शुक्रवार, 27 जुलाई 2012

1.ग़ज़ल- गुमशुदा…ग़ुमशुदा

पहले पहल तो देखिये बादल है गुमशुदा

बादल अगर कंही मिला भी तो जल है ग़ुमशुदा।

जंगल न खेत, अब नहीं मिलते ज़मीन पर,

आमों से भोर, और वो कोयल है ग़ुमशुदा

अठखेलियों भरी वो मुहब्बत नहीं रही,

अब गौरियों के पावों से पायल है ग़ुमशुदा

आँखों  की सारी शर्मो-हया खत्म हो गई,

पानी भी सूख़ा और वो काजल है ग़ुमशुदा।।

                                                     सूबे सिंह सुजान

बुधवार, 11 जुलाई 2012

फ़न्नी और अ़रूज़ी ऐतबार से इम्तियाज़ी ग़ज़ल

आ़रिज़ हैं दो खुश्बू के बन, एक इस तरफ,एक उस तरफ

इक मोतिया,इक यासमन, एक इस तरफ,एक उस तरफ।

 

मशरिक़ में सूरज ज़ौ-फ़िशा, मग़रिब में ज़ोहरा ज़ौ-फ़िगन

गोया हैं दो लाले-यमन, एक इस तरफ,एक उस तरफ।

 

इक से खुसूमत,दूसरे से भरती है उल्फ़त का दम

दुनिया के दो-दो हैं दहन, एक इस तरफ,एक उस तरफ

 

दिल की कभी भरती है हामी,तो कभी इदराक की

चालाक हैं, आंखें हैं पुर-फ़न, एक इस तरफ,एक उस तरफ

 

इदराक कहता है संभल, दिल है कि कहता है मचल

ये राहबर वो राहज़न, एक इस तरफ,एक उस तरफ

 

अ़ल्लाम दिल्ली में तो हरियाणा में अ़ल्लामी रहे

दोनों थे उस्तादाने-फ़न, एक इस तरफ,एक उस तरफ

 

“तफ़्ता”। हमें चुनना पडेगा, एक को,सिर्फ एक को

कुर्सी-व-ज़र,हुब्बे-वतन, एक इस तरफ,एक उस तरफ

                          डॅा. सत्य प्रकाश “तफ़्ता”

                        तफ़्ता ज़ारी

                      जानशीन डॅा. ज़ार अ़ल्लामी

            mobile. 09896850699

       written by_ sube singh sujan

     09416334841

बुधवार, 4 जुलाई 2012

दो -पध बंध

पुराने सब हो गये धरोहर
किले, हवेली, नदी, सरोवर
घटा-बढा तापमान ऐसे,
कि रात दिन अब हुये बराबर।

 

जहाँ भी रस्ता सही नहीं था,

वहीं पे तोडे,बिछाये पत्थर

हवाओं में जहर किलने घोला,

हुआ यहाँ साँस लेना दूबर…।

सोमवार, 2 जुलाई 2012

neeti paint

 

 neeti

a painting made by neeti

गरमी से लोग बेहाल हुये

आज की गर्मी ने हरियाणा राज्य में जीना मुश्किल कर दिया है। गरमी से आम आदमी की जिन्दगी बेहद प्रभावित हुई। लोग सडकों पर नहीं दिखाई दिये। पानी की बहुत ज्यादा किल्लत पैदा हो गई है। बिजली का बेहद संकट पैदा हो गया है पानीपत रिफाइनरी से बिजली बनना लगभग बंद हो गया है  पानी के लिये हिमाचल और उतराखण्ड से बिजली की सप्लाई की गई है। बिजली के संकट से लोग और ज्यादा प्रभावित हुये। इस मौसम में आज का दिन सबसे खतरनाक हालत में गुजरा है।बजुर्ग और बच्चों को दिन भर हांफते देखा गया। लोगों के पास पहले की तरह पानी के मटके नहीं रहे क्योंकि फ्रिज ने लोगों के रहन सहन पर गहरा असर डाला है। लेकिन ऐसी दम घोटती गर्मी में हमें पानी की जरूरत व प्राचीन परम्परा के मटकों की याद आ रही है। जो हमें प्रकृति के नजदीक रखते थे। आज आदमी प्रकृति से दूर हो गया है। जिसका परिणाम हमें भुगतना पड रहा है। हमें पानी की जरूरत को समझना होगा।प्रकृति का उपहास नहीं, उसके पास जाना होगा। हमारे मनों में प्रकृति का वास होना हमारे लिये बेहद जरूरी है।

                                                                                                                                                                                     सूबे सिहं सुजान

                                                                                                                                                                                         कुरूक्षेत्र,हरियाणा,09416334841

शुक्रवार, 29 जून 2012

पटियाला जाते समय एक बात खास नज़र आई--
जैसे ही पंजाब की सीमा शुरू होती है..लिखा  मिलता है...कि पंजाब से सस्ता पैट्रोल, व ठेके के आगे लिखा है कि पंजाब से सस्ती दारू यहां से लें............
कमाल तब हुआ......जब आते समय देखा कि------पंजाब सीमा में लिखा मिला-----हरियाणा से सस्ता पैट्रोल व दारू यहां से लेते जायें।।
देखो शराब व पैट्रोल बेचने वालों को मार्किटिंग के फण्डे कितने सहीह आते हैं

पटियाला यात्रा और खजूर के पेड

आज 29 जून 2012 को सुबह 5 बजे मोटरसाइकिल द्वारा पटियाला( रोडेवाला साहिब) के लिये रवाना हुआ। जिसमें जाते समय मोटरसाइकिल में पंक्चर हो गया था उसके बाद का सफर ठीक रहा। 9 बजे रोडेवाला साहिब पहुंच गया वहां पर आज साध संगत का मेला लगा था,हालांकि मेरा वहां जाने का उद्देश्य ग्वार का बीज लाना था। मैंने जिन ढिल्लों साहिब से बीज लेना था वो लिया,और उसके बाद बाबा जी के अनुरोध पर मत्था टेकने गया और प्रसाद चखा। यहां पर जनता का बहुत ही मनोरम दृश्य देखने को मिला। जिसको देखने को मेरा मन करने लगा।सब पुरूष व महिलायें यहां पर बहुत शांत व व्यवहार कुशल दिखाई दे रहे थे। मालूम नहीं हमारे देश में लोग धरों में या अपने धंधे पर व सडकों पर चलते हुये इतने शांत क्यों नहीं हो पाते।
                                                                                                                                                                                       वहां पर सभी स्त्री-पुरूष आपस में धक्का-मुक्की होते हुये भी शांत रहते हैं हालांकि असल जिंदगी में ऐसा नहीं करते यही लोग, खैर इसके बाद मैंने वापसी की यात्रा शुरू की। जिसमें पटियाला शहर का हल्का सा,चलते-चलते मुआयना किया। जिला मुख्यालय बहुत शांत व सुंदर दिखाई दिया। मुख्यालय के सामने की सडक एकदम चकाचक थी बाकी सडकें ठीक-ठाक ती मगर कुछ गावों की तरफ निकलने वाली सडकें खराब हालत में थी। मुझे सबसे अच्छा यह लगा कि पटियाला शहर में जगह-जगह खजूर के पेड खडे थे जो मेरे दिल को छू गये। ये लम्बो-लम्बे पेड मुझे याद दिला रहे थे,कि- पंछी को छाया नहीं,फल लगे अति दूर,,की , लेकिन आजकल ये पेड शहर तो छोडिये गांवों में नहीं देखने को नसीब होते। ऐसे हालात में इन्हें देखकर मन को बडा सुकून हुआ। इनकी सुन्दरता देखते ही बनती है। इसके बाद मेरी इस लधु यात्रा में कुछ खास नहीं है और इस तेज धूप वाली चिलचिलाती गर्मी में ही मैंने वापसी की, पूरे 200 कि.मी. तय करते हुये दोपहर एक बजे कुरूक्षेत्र पहुंच गया।www.facebook.com/sujankavi

बुधवार, 13 जून 2012

ग़ज़ल- सोचिये हम हो गये आबाद क्या…

सोचिये हम हो गये आबाद क्या  

अपने ख्यालों से हुये आजाद क्या..

आज के हालात पर क्या कुछ कहें,

हो रहे आबाद क्या, बर्बाद क्या….

पेश करते हैं बदल कर शक्ल को, 

आइने भी हो गये उस्ताद क्या….   

कितना उम्मीदें गरीबी कर रही, 

काम आयेगी कोई फरियाद क्या..

आपका अब फोन भी आता नहीं, 

क्या हुआ आती नहीं है याद क्या..

जिस ग़ज़ल में आँसुओं की बात हो,

उस ग़ज़ल पर वाह क्या इरशाद क्या…

                          सूबे सिहं सुजान

            13-06-2012

         फोन..09416334841

           कुरूक्षेत्र

जय शंकर प्रसाद जी..

छूने में हिचक,देखने में पलकें आँखों पर झुकती हैं,
कलरव परिहास भरी गूँजें,
अधरों तक सहसा रूकती हैं।
                     - जय शंकर प्रसाद

मंगलवार, 12 जून 2012

मांगना छोड दो………..

मांगना छोड दो मिलेगा सब,     

बोलना छोड दो सुनेगा सब……………

अपनी मर्जी से देने दे उसको,    

जिसने पैदा किया वो देगा सब……………

……………………सुजान………………………….

रविवार, 10 जून 2012

मेरे आज के मित्र

आज मुझे ऐसा एहसास हो रहा है कि जैसे इस भरी दुनिया में कोई मेरा मित्र ही नहीं है। कारण यह है कि एक मित्र ने परसों मुझ किसी ट्रिप के लिये इनवाइट किया था लेकिन आज अन्य मित्रों के साथ मौज मस्ती करने चला गया मुझे खबर भी नहीं किया । जब मैंने फोन किया तो पता चला मुझे अफसोस हुआ। वैसे तो लोग अच्छे मित्रों की बहुत मिसाल देते हैं लेकिन आज के हालात में ऐसा लगता है उन मित्रों का अब अभाव हो चला है क्या अब मित्रता की बातें कहानियों में ही मिलेंगीं  हकीकत में ऐसा नहीं दिखाई देगा जैसे आजकल के बच्चे पाँच पैसे को देख नहीं पाते और उन्हें लगता है कि पाँच पैसे का इस दुनिया में अस्तित्व ही नहीं हुआ।

                                                                                                         क्या मुमकिन नहीं है कि ऐसा ही नये बच्चे मित्र के बारे में भी सोचें। यह कम से कम वर्तामन मानस के लिये तो सोचनीय है ही, अगर ऐसे हालात चलते रहे तो अगलों को तो सुदामा पर यकीन ही नहीं होगा। हमें तो फिलवक्त सुदामा पर यकीन है।                                                सुजान

बुधवार, 6 जून 2012

गीत- मेरे साँई मेरे साँई, मेरे साँई मेरे साँई….

मेरे साँई मेरे साँई, मेरे साँई मेरे साँई….

 

मेरे साँई तेरे ऊपर हमें अभिमान रहता है

तेरे होने से हर इंसान में इंसान रहता है

मेरे साँई मेरे साँई, मेरे साँई मेरे साँई….

 

कभी दुख है कभी सुख है यही जीवन की धारा है

हमें जो कुछ मिला तुमसे, वही सच में तुम्हारा है

कली को फूल को ,सबको तुम्हारा  ही सहारा है

तुम्हें पाना जगत के जीव का अरमान रहता है…………

मेरे साँई मेरे साँई, मेरे साँई मेरे साँई……………………..

मेरे साँई तेरे ऊपर हमें अभिमान रहता है

तेरे होने से हर इंसान में इंसान रहता है

मेरे साँई मेरे साँई, मेरे साँई मेरे साँई….

 

हरिक रिश्ते से न्यारा आपका अहसास कैसा है

बिना देखे तुम्हें जाना है ये विश्वास कैसा है

कहीं रोना कहीं हंसना तेरा उल्लास कैसा है

मेरे साँई तेरे ऊपर हमें अभिमान रहता है

तेरे होने से हर इंसान में इंसान रहता है

मेरे साँई मेरे साँई, मेरे साँई मेरे साँई….

                                                गीतकार—सूबे सिंह सुजान

 

गाँव- सुनेहडी खालसा

डाक. सलारपुर-पिन-136119

जिला कुरूक्षेत्र,

मों 09416334841

9017609226

मंगलवार, 5 जून 2012

कविता कैसे मर सकती है

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कविता हर जगह,हर वक्त रहती है

जब हम नहीं कह रहे होते तब भी,

हमारा हंसना रोना से लेकर,

जब हम मर रहे होते हैं

तब तक कविता होती रहती है

फूल के खिलने से मुरझाने तक ही नहीं कविता,

फूल के फिर से खिलने,फिर से खिलने और इसी चक्र को कविता चलाती है

यही जीवन है, यही कविता है

फिर बताओ कविता कैसे मर सकती है

                                             सुजान

रविवार, 27 मई 2012

जो है शायद उसे ऐसा ही होना था।

पत्थर अभाव में पलता है या यही उसका सही जीवन है अर्थात पत्थर को पत्थर बनने का उपयुक्त वातावरण जरूरी है,अगर यह वातावरण उसे नहीं मिला तो फिर वह पत्थर नही बनेगा। यह विचारों का क्रम ही नये विचार प्रस्तुत कर देता है हम हमेशा किसी न किसी को दोष देते हैं अभावों के लिये, लेकिन गम्भीरता से सोचने पर ज्ञात होता है कि जो स्थिति हमारी है हम उसे दोष देते रहते हैं, दूसरी स्थिति  को प्राप्त करने के लिये, लेकिन सत्य यह है कि जब हम किसी नयी स्थिति को प्राप्त होते हैं समस्याऐं उस समय भी अपने नव रूप में हमारे सामने होती हैं यह क्रम सदियों से अनवरत जारी है।
                                                                   सूबे सिहं सुजान

शुक्रवार, 25 मई 2012

तरही ग़ज़ल ( एक अलग अंदाज में)

यह ग़ज़ल मैंने कुछ परिधि से हटकर लिखने की कोशिश की है हालांकि कंही-कंही पर छन्द व बहर में अडचन वगैरह का ठहराव उस्ताद को खल सकता है। लेकिन मुझे इस ग़ज़ल को लिखते समय कुछ ऐसा अनुभव हुआ कि इसे इसके कच्चेपन के साथ ही प्रस्तुत करूँ। मैं इस ग़ज़ल की धुन पर सवार रहा उस्ताद कहतें हैं कि अपनी ही रचना का दुश्मन बन कर उसे दुरूस्त किया जाना चाहिये,हालांकि यह तथ्य अपनी जगह सहीह है।

 

जीवन की डगर ऐसी, कठिन भी है सुगम भी

हर मोड मिलेंगे यहाँ ,सुख भी और गम भी….

दुनियाँ में   अधिक  लोग  रहे  मध्य   हमेशा,

जायेंगे  किनारे   जो,  सहेंगे   वो  सितम  भी…..

गहरायी जमीं की कभी बादल नहीं समझा,

गरजा भी बहुत, आखि़र बरसा,छम-छम भी….

जो  इनको  निभा  जाए  कलाकार  वही  है,

रिश्तों की बनावट में है नफ़रत भी रहम भी…

टकराव   जरूरी है  मगर  थोडे   समय  का,

टकराती  रही  जैसे कि  पूर्व  – पश्चिम  भी….

मज़हब से अधिक भूख असर करती है सब पर,

मैंख़ाना भी वीराँ है,कलीसा भी हरम भी….

जो मांगे नहीं मिलता उसे पाकर खुश हैं,

इस प्यार की खातिर हम तोडेंगे क़सम भी…

                                                सूबे सिहं सुजान

गुरुवार, 24 मई 2012

हम सबकी  गाडी-

बिना ड्राइवर के गाडी चलती देखी
वहां रिमोट भी नही है.....
कुचल रही है राहगीरों को,तोड रही है हरे पेडों को,
लेकिन गाडी रूकती नहीं है।
कुछ लोग अकेले से हैं,जो रोकने चले थे
मगर वो मंहगा पैट्रोल भी खरीद लेती है
रेत को ऊँचे दामों पर बेच देती है
ड्राइवर ये काम नहीं करता,
लेकिन उसका क्लंडर हर जगह माहिर है
पट्टी बाँध कर उसकी आँखों पर,
दौडाये जाता है क्लंडर
पीछे उडता है धूल का भवंडर
मगर लोग फिर मुंह साफ करते हैं
और अपने काम पर लग जाते हैं

tarannum ki sair तरन्नुम की सैर

list of members

 

1.dr.keval karishn rishi    mob.9812157567

2.dr. satya  parkash tafta mob.9896850699

3.dr. mohit gupta  mob. 9034951600

4.dr. dinesh dhadhichee mob. 9354145291, 01744238571, www.facebook.com/dinesh dadhichi

5.dr. barijesh kathil   phone.01744 232322

6. dr. rakesh bhaskar mob.9255486484

7. dr. arun sharma (musicen) mob. 9896008797

8. dr. sanjeev kumar  mob. 9812284321

9.shiree bal karishan bezar mob.9896362351

10. shiri ratan chand sardhana mob. 9416654970

11. shiri sube singh sujan mob. 9416334841,9017609226, mail: subesujan21@gmail.com

सोमवार, 21 मई 2012

हवा और सूरज

दिन गर्म हो जाए तो शाम को हवा घुमडती है

गरमी के व्यवहार पर खूब बिगडती है

कईं बार तो ज्यादा ही झगडती है

रात भर साथ अंधेरे के साथ रहती है,हल्की-हल्की

सुबह फिर सूरज को पकडती है

सूरज अपने आप से खुश है

वह नहीं हवा को देख,छू पाता

उसे सुख-दुख का नहीं मालूम

परन्तु हवा जानती है

शब्द

शब्द चलते हैं

अपने –आप,चल कर हर जगह पहुँचते हैं

जहाँ जाना चाहते हैं

बिन पाँव सब काम कर देते हैं

मन को दुखाना, मन को प्रसन्न  करना

मन को डराना,विजियता लाना,अभेद करना

हर तरह के सब काम करते हैं

शब्द तुम तो परमात्मा हो,

जो सब कुछ जानता, करता है

सोमवार, 14 मई 2012

कवि सम्मेलनः रिपोर्ट-अदबी संगम कुरूक्षेत्र की मासिक काव्य गोष्ठी एक नजर में

दिनाँक 13 मई 2012 को सांय पाँच बजे सदाकत आश्रम कुरूक्षेत्र में अदबी संगम साहित्य संस्था की मासिक काव्य गोष्ठी का आयोजन सूबे सिंह सुजान की अगुवाई में और इन्द्रजीत इस्सर की अध्यक्षता में सफल आयोजन किया गया। गोष्ठी का संचालन डा. राकेश भास्कर जी ने किया जो स्वयं हास्य कवि के रूप में अपनी पहचान बना चुके हैं। सर्वप्रथम डा. संजीव कुमार ने अपनी ग़ज़ल से यूँ आगाज किया-वो फूल हाथों में कभी पत्थर लिये हुये,आता है मेरे दर पर मुकद्दर लिये हुये।संजीव के बाद कवियत्री शकुंतला शर्मा ने अपनी कविता में कहा –माँ एक शब्द नहीं समंदर है माँ की दुनिया में ही बच्चों की दुनिया है।,डा. सत्या प्रकाश “तफ्ता” जी ने एक नई विधा को विकसित किया है जो बहुत ही खूबसूरत और कठिन भी है जिसका विकास ग़ज़लों के छन्दों से ही हुआ है यह बहुत ही संक्षिप्त है और इसमें एक बात को ही रखा जाता है तान पंक्तियों में पूरी बात को लयात्मक व छन्दात्मक रूप से कही जाती है। इसका नाम है  “माहिया”  उनके तीन माहिये देखिये 1. सचमुच था बडा आकिल, कन्धा भी दिया मुझको, रोया भी मेरा कातिल । 2.क्या खूब उजाले हैं,  हिन्द की किस्मत में , रिश्वत है घोटाले हैं । 3.उपवन भी नहीं होगा, जो पेड नहीं होगा , जीवन भी नहीं होगा।।  सुजान ने कहा-  गर्दन तो घूमती है घुमाना भी चाहिये,अकडो न इतने सर को झुकाना भी चाहिये,जब काम प्यार से भी बनाये नहीं बने, फिर आसमान सर पे उठाना भी चाहिये…विनोद कुमार धवन ने घर नामक कविता मे मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया—लोगों ने जब बार-बार कहा कि आपका छोटा सा घर है,तो मुझे भी लगने लगा कि मेरा घर छोटा है। गोष्ठी में अन्य कवि—डा. बलवान सिहं,सुधीर डांडा,रमेश कुमार शर्मा,दोस्त भारद्वाज,  ने अपनी रचनायें पेश की। यह सारा कार्यक्रम सदाकत आश्रम के संचालक स्वामी सत्य प्रेमी के सान्धिय में सम्पन हुआ।

                                                                                                                                     रिपोर्ट—सूबे सिंह सुजान

मंगलवार, 8 मई 2012

पिता की बीमारी ( लघुकथा)

पिता को हमेशा ऐसा लगता है कि मुझे ही सबसे ज्यादा रोग है बाकी परिवार में व संसार में सब ठीक हैं। पल में वह कहने लगते हैं कि मैं तो मरने वाला हूँ और कुछ देर बाद ठीक हो जाते हैं और कभी-कभी तो कसी लेकर खेत में काम करते नजर आते हैं लेकिन अब लगभग अस्सी की उम्र में भी वे इसी तरह व्यवहार करते हैं दुनिया भर की दवा खा चुके हैं लगभग हर सप्ताह वह डाक्टर बदल देते हैं एक समय में वह दो या तीन डाक्टरों की दवा खाते हैं वह दन भर में मुश्किल से एक दो बार ही खुश होते हैं। जबकि अधिकतर समय वह गुस्सा प्रकट करते रहते हैं उनसे जब कोई काम नहीं बनता होता है फिर भी वह खेत या घर के अन्य काम के बारे में पूछते रहते हैं जब उन्हें दर्द होता है उस समय में भी वह काम के बारे में आराम से पूछ लेते हैं यदि उनके सामने मैं अपना बाहर का काम छोड कर उनके सामने कोई भी कठोर काम करने लग जाऊँ तो पल भर बाद यह देखकर उनका दुख कम हो जाता है। डाक्टर इसे मानसिक रोग कहते हैं लेकिन यह अजीब प्रकार का रोग है कि वह मेरे कहने से  अच्छी बात नहीं मानते लेकिन किसी अन्य के कहने पर उसी बात को मानने लगते हैं। यह मानसिकता पिता की अगर हो तो पुत्र का क्या हाल होता है। उम्र कैसे गुजरती है, असली दर्द किसको होता है, इस तरह के बहुत से सवाल जीवन को खींचते हैं ।

                                                                                                                                                                                                       सूबे सिंह सुजान

                                                                                                                                                                                                         कुरूक्षेत्र

बुधवार, 2 मई 2012

INDIAN VILLAGER WOMEN.भारतीय ग्रामीण औरतों का एक व्यवहार….

भारतीय ग्रामीण औरतों में आज भी एक व्यवहार देखने को मिलता है हालांकि पहले से बहुत बदलाव आज के समय में आ चुके हैं परन्तु इस तरह का व्यवहार आज भी हर जगह अक्सर देखने को मिल जाता है। काफी हद तक यही व्यवहार शहरों में भी है मैंने  अक्सर देखा है कि जब कोई पुरूष मोटरसाईकिल या कार से जा रहा हो तो ये औरतें उस पूरूष से अपेक्षा करती हैं कि वह खुद गाडी को रोके और उसे बैठा ले, कईं मामलों में ऐसा होता है हालांकि सभी में नहीं। और जब वह पुरूष बिना गाडी रोके चला जाता है तो वह उक्त पुरूष को गाली देती है कि उसने गाडी नहीं रोकी,दूसरा पहलू यह है कि यदि कोई पुरूष स्वयं गाडी रोक कर बैठने के लिये आग्रह करे तो वह उसे फिर भी गाली देती है कि मुझे छेडता है,मेरे साथ अभद्रता का व्यवहार करता है

 

यह पहलू उस जगह लागू होता पाया गया है जहाँ पर पुरूष की गलत इच्छा नहीं थी हालांकि यह तथ्य ज्यादा सटीक है भारतीय परिवेश में कि पुरूष की इच्छा स्त्री पर अधिकतर गलत रहती रही है,हाँ आज इस सोच में काफी बदलाव आ चुका है। लेकिन जिस सन्दर्भ में हम बात कर रहे हैं उसमें यह पाया गया है कि स्त्रियाँ बडी विडम्भना में अपनी इच्छा जाहिर कर पाती हैं मुझे लगता है यही कारण रहा है कि भारतीय पुरूष ने इसीलिये औरत को अधिकतर चंचला या बेवफा होने का ओहदा दिया है। हालांकि मुझे ऐसा लगता है कि भारतीय पुरूष का स्त्री के प्रति अति घिनौनी सोच के कारण ही स्त्री में इस तरह के व्यवहार उत्पन्न हुआ है यह व्यवहार स्त्री ने विपरीत परिस्थितियों में स्वयं को कष्टप्रद स्थिति में ढालते हुये लागू किया है

मंगलवार, 1 मई 2012

मित्रों उस्ताद शायर डां सत्य प्रकाश तफ्ता जी की ग़ज़ल पेश है।
(जू-बहरीन,ब-क़ैद चहार क़ाफि़येतैन)
जब पडी उनकी नजर ,तब हुई अपनी खबर
चल सकें जिस पर सभी, कब बनी ऐसी डगर?
जब मिले दुनिया से गम, तब बनी पैनी नजर
टूटने में दिल मिरा,   कब रही कोई कसर?
हो गया जब ख़ूने-दिल,तब मिली दिल की खबर
चीर देती है ये दिल,कब हुई किस की नजर?
हर खुशी धुंधला गई, जब हुई गम की सहर
प्यार ताजा हो गया, जब पडी पहली नजर
खुल गये सब रास्ते, जब पडी तिरछी नजर
हो गये सीधे सभी, जब खुली दिल की डगर
          " तफ्ता" किस्मत फिर गई
           जब फिरी उनकी नजर
बहूर- रमल(सालिम महजूफ़)
        रजज़ (मरफ़ूअ़ सालिम)

शुक्रवार, 27 अप्रैल 2012

तरही ग़ज़ल 27.04.2012

दिल के अन्दर है अन्धेरा और बाहर चाँदनी

क्यों नही दोनो जगह होती बराबर चाँदनी

सुख अकेला जिन्दगी में मिल नही सकता हमें,

जिन्दगी में हर जगह है संगमरमर चाँदनी

ख्वाहिशें ही ख्वाहिशें, ताकत बहुत कम है, मगर,

आदमी हावी रहा औरत के ऊपर चाँदनी

कल यहाँ झगडा हुआ दो जातियों के बीच में,

मेरे घर पर बैठ जा चुपचाप आकर चाँदनी

किस पिता के माथे पे गम की लकीरें हैं नहीं,

“शमअ् लेकर ढूँढती फिरती है घर-घर चाँदनी”

मदमदाती वो जमीं पर,जब उतरती है सुजान

प्यार करती है मेरे गालों को छूकर चाँदनी

                            सूबे सिहं “सुजान”

मंगलवार, 17 अप्रैल 2012

ghazal( गजल)

तुम हुये गम हुये शराब हुई

इस तरह जिंदगी खराब हुई

चाँद को कुछ गिला नहीं होता

जुल्फ,बादल हुई,नकाब हुई

दिल जलाया तो भी नहीं निकली

तेरी यादें तो आफताब हुई

घर से बाहर वो जबसे जाने लगी

पंखुडी सी खिली,गुलाब हुई

इक झलक के लिये भटकता है दिल

इक झलक जब मिली अजाब हुई

वक्त आने पे सब उफनता है

चलते-चलते नदी  शबाब हुई

                               सूबे सिहं सुजान

                           sube singh sujan

                          vill. sunehri khalsa

                          p.o. salarpur pin-136119

                             distt, kurukshetra,haryana,india

                                  mob. +919416334841

                             e-mail- subesujan21@gmail.com

गेहूँ का पकना(wheat harvesting)

गेहूँ की बालियाँ पकते हुये आवाज करती हैं जब सुबह धूप बढने लगती है तो खेत के बीच में बैठ कर आप शांत वातावरण में गेहँ की बालियों की किट-किट को सुन सकते हैंआज सुबह मैंने ऐसा सुना तो ऐसा लगा जैसे गेहूँ पकते हुये बोल रही है जैसे दर्द में कराह रही हो । क्योंकि फसल पक रही है गेहूँ के पौधे कितने हरे भरे थे अब वो सूखने लगे हैं विचारों की श्रृंखला बढने लगी तो यह एहसास हुआ कि जैसे कोई स्त्री बच्चे को जन्म दे रही हो ऐर उसे जन्म देते हुये असहाय कष्ट हो रहा हो गेहूँ की किट-किट की आवाज मुझे उस औरत के रूदन की तरह प्रतीत होने लगी ।

जैसे जब स्त्री बच्चे को जन्म देती है तो हमें दो तरह का आभास होता है एक तो नव शिशु के आने का हर्ष और दूसरा स्त्री की पीडा को देखकर दर्द होता है बिल्कुल इसी समय नव जन्म होता है यह दो तरह का आभास अर्थात प्लस और माइनिस है दुनिया का जन्म भी इसी तरह हुआ है प्रकृति में जन्म की यही प्रक्रिया है। जो एक असीम सुख से प्रारम्भ होती है जिसे सैक्स भी कहा जाता है।

 

सूबे सिहं सुजान

कुरूक्षेत्र-pin-136118

p.o. salarpur

distt. kurukshetra,haryana,india

mob.+919416334841

e-mail- subesujan21@gmail.com

रविवार, 15 अप्रैल 2012

कविता--धूप छेडती है मुझे

धूप छेडती है मुझे
मसखरी करते हुए
मुझे तपाती है
मेरी कमियाँ बताती है
और माँ से शिकायत करती है
कि मैं नकारा कोई काम नहीं करता
.......................
धूप सिखाती है मुझे
कैसे काम किया जाता है
किस से कैसे बात की जाती है
माता-पिता को नमस्ते करना
बहन से कैसे पेश आना चाहिये
अपनी जुबान को संयम देना
.........................................
धूप कहती है मुझसे...
कि पेड लगाओ
सुबह उठो
शाम को घर आओ
बच्चों से बातें करो
खूब हंसो,हंसाओ
रोने के लिये
तैयार रहा करो
रोना बुरी बात नहीं होता
..................................
मैं खुश हूँ धूप के साथ से
धूप की मित्रता वफादार है
तुम मानो या न मानो
लेकिन तुम्हारी भी सखा है धूप..........सूबे सिहं सुजान

बुधवार, 11 अप्रैल 2012

coercion to conform

Coercion to Conform


- Prabhat Patnaik

India is one of the few countries in the third world which has a vigorous domestic intellectual discourse. This is partly because of its scale: a distinguished economist friend from Bangladesh often laments that his country lacks the scale for such a discourse and envies India on this count. But it also has to do with the intellectual institutions, including journals, that were set up in India during the anti-colonial struggle and the years of dirigiste development that followed, whose objective was precisely to develop a discourse that was autonomous, both intellectually and institutionally, from the hegemony of the West. Prasanta Chandra Mahalanobis’s founding not just of the Indian Statistical Institute, but also of a journal, Sankhya, associated with that institute, which was supposed to maintain the highest intellectual standards while presenting the results of its research, was an example of such an endeavour. The publication of research from India in standard foreign journals, even in the natural sciences where ideological considerations were supposed to be secondary, often ran into barriers of prejudice, of which scientists like J.C. Bose to Mahalanobis himself had personal experience. Starting India’s own journals was seen as a way out. And this built up the domestic discourse.

In the social sciences, where such general prejudice was refurbished by ideology, the need for developing domestic institutions was even greater. Ideology entered into the question of what was considered a worthwhile subject of research; and it entered substantially into the question of what were considered ‘acceptable conclusions’. In the realm of the social sciences, Sachin Chaudhury started that remarkable institution Economic Weekly, later to become Economic and Political Weekly, which contributed immensely to the development of a domestic intellectual discourse, and still does.

The autonomy of such a discourse, however, is anathema in the era of ‘globalization’ when the intellectual ideas of the metropolis, especially in the social sciences, are required to have the same degree not just of global currency, but of global acceptability as, say, Macdonalds or Kentucky Fried Chicken. But while the metropolitan powers and their domestic allies would like such a denouement, its realization faces hurdles. Establishing hegemony over the autonomous discourse that has flourished hitherto, and driving it underground, into the “dim underworld of heretics”, is not an easy task intellectually. The means adopted, therefore, typically involve coercion.

The favourite ploy is to raise the question of ‘excellence’. There can be no two opinions about the pathetic state of most institutions of higher learning in the country; but the remedy for it is sought not through ensuring adequate faculty strength, not through eliminating the practice of running academic programmes on the strength of ‘temporary’ or ‘guest’ lecturers who are paid a pittance, not through creating a democratic atmosphere in colleges and universities where students and teachers can discuss and contest opinions fearlessly, and not through the creation of an ambience where higher education is not seen as a mere commodity. It is sought in the introduction of a concept of ‘quality’, where our institutions are to be judged on the basis of how closely they imitate Western institutions. ‘Quality’ is seen as a homogeneous substance of which ‘they’ have more and ‘we’ have less; ergo, ‘we’ must be like ‘them’.

Implicit in this perspective is a denial of any need for an autonomous domestic intellectual discourse; not surprisingly, the ‘quality’ of a faculty is explicitly judged by the proponents of this view by the number of its publications in ‘refereed journals of repute’, which essentially means, in a world characterized by hegemony, Western metropolitan journals. These proponents, alas, are increasingly occupying key positions of power in the higher education establishment of the country, which is hardly surprising given our government’s embrace of neo-liberalism.

All this would not matter if the content of these hegemonic ideas was free from prejudice and crass ideological bias. But such is not the case. In economics for instance, the hegemonic view, which permeates not just metropolitan university curricula but also publications in the so-called ‘refereed journals of repute’, states that the spontaneous result of the functioning of markets is the elimination of ‘involuntary unemployment’ caused by inadequate demand. The labour market always ‘clears’ as long as it is allowed to function freely. The close to 10 per cent unemployment in the advanced capitalist countries, where labour markets can scarcely be accused of becoming suddenly ‘unfree’, is therefore either voluntary, or because people are moving from one set of jobs to another which is waiting for them. There is no unemployment, as the term is commonly understood.

Joseph Stiglitz, the well-known economist, narrates an interesting story. When he was the chairman of economic advisory council of the former president of the United States of America, Bill Clinton, he had the task of suggesting policies for reducing unemployment in the US, which had been Clinton’s campaign promise. Stiglitz wanted to hire some macroeconomists to help him craft such policies, and interviewed several candidates for this purpose. To his surprise, all those interviewed invariably said that there was no problem of unemployment in the US. This is what they had been taught in their Ivy League universities. Such crass ideological positions characterize the so-called ‘frontiers’ of economics, and are frequently rewarded with Nobel prizes.

One can multiply such examples. What is called ‘growth theory’ in economics, for instance, that is supposed to explain the phenomenon of economic growth under capitalism, never makes any reference to the colonial empire and its role in the dynamics of capitalism. And if one thinks that it is only the theorists who are to blame and that economic historians are more conscious of the role of colonies, then one is in for a shock: they too make it a point to turn their gaze away from colonies; and this includes even ‘progressive’ historians in the West, who are coerced for career reasons into submitting to the hegemonic view.

To insist that publication in ‘refereed journals of repute’ should be the criterion for judging the creativity of the faculty in Indian universities is to widen that domain of submission, to extinguish our autonomous national intellectual discourse, and to silence all critical voices within the Indian academia against the ideological hegemony of what in effect is an apologetics for ‘neo-liberal’ capitalism.

Support for a policy of privileging publication in ‘refereed journals of repute’ comes these days, however, from a somewhat unexpected quarter, namely the diaspora of non-resident Indian academics who have emigrated from the country and who occupy important positions in reputed foreign universities. If this support was confined only to the votaries of neo-liberalism one would be scarcely surprised; but what is intriguing is that several NRI academics who profess themselves to be ‘progressive’ and who are careful to distance themselves from neo-liberalism, make common cause with its votaries in privileging publication in ‘refereed journals of repute’, thereby implicitly debunking the autonomous national intellectual discourse. How does one explain this?

One has to fall back here upon a sociological, as distinct from an ideological, explanation. An autonomous national discourse is an implicit denial of any overarching importance to foreign centres of academic ‘excellence’, an unconscious cocking-a-snook at the concept of a global hierarchical order among academic institutions and academic journals. It is an exercise in narcissism, but a narcissism which constitutes a democratic assertion because it is ipso facto non-submissive to any global hierarchy among institutions.

Precisely for this reason, however, it is an implicit denial of any exalted status to NRI academics who occupy prestigious positions in reputed foreign universities. If you occupy a prestigious chair at Harvard or Oxbridge or Stanford and publish from time to time in the Econometrica, or the American Economic Review, then you will be understandably peeved if in Pune or Nasik or Satara the academics are discussing not your latest offering but what a Jadhav or a Bapat has to say in the latest issue of the Economic and Political Weekly. Your pique will be greater if you yourself were once a major academic in India and your work was known in Pune and Satara and Nasik. You thought you had moved up in life by migrating, say, from Mumbai to Boston; but in fact you find you have simply dropped out of the local academics’ ken.

A person who invests much effort in climbing up the caste hierarchy has a stake in upholding the caste-system. Barring a few exceptions, the NRI academics’ stake in upholding a global academic hierarchy is of a similar kind. But that is no reason for us to accept hierarchies as indicative of merit.

(The author is a former professor, Centre for Economic Studies, Jawaharlal Nehru University, New Delhi)

Here this article is republished. It was originally published in The Telegraph.

  this article is copy paste

 

         post  by:- sube singh sujan

गजल--फसल कटने लगी और आँधियाँ ही आँधियाँ आई……

फसल कटने लगी और आँधियाँ ही आँधियाँ आई

शिकायत आदमी की करने बादल बिजलियाँ आई..

खडे छह मास से उम्मीद में जिसकी, वही लूटी,

हमारे आँसुओं में तैर कर कुछ किश्तियाँ आई….

हमीं दौलत के पीछे थे मुहब्बत को तलाशा कब,

इसी कारण हमारे बीच में ये तल्खियाँ आई…..

                       10-04-2012, सूबे सिंह सुजान

शनिवार, 7 अप्रैल 2012

अब कोई फेल नहीं होगा (लघु कहानी)

गौरव का मन उसे उत्साहित कर रहा था कि वह भी अपने बडे भाई के साथ नये स्कूल में पढने जाएगा। जबकि अभी चौथी कक्षा ही पास की है उसने इसी स्कूल में ही पाँचवी पढनी है परन्तु उसका बडा भाई पाँचवी पास कर चुका है ऐर वह अब नये स्कूल में जाएगा तो उसका मन अब प्राईमरी स्कूल में नही लग रहा था। उसके पिता गरीब हैं उसको वहीं पढाना चाहते हैं लेकिन बच्चे की जिद को कौन समझ सकता था और अब उसका दाखिला वहीं कर दिया गया है अब उसके मन में सारे स्कूल के छोटे बच्चों पर धाक जमाने का विचार आया और वह सब बच्चों पर अपनी धाक चलाने लगा है। पढाई की तरफ से उसका मन हट चुका है। अध्यापक उससे सर माथा खपाकर तंग हो चुका है लेकिन उसकी समस्या कोई नहीं समझ पा रहा है वह अपने साथियों से कहने लगा था कि वह सबसे बडा है इस स्कूल में अब मुझे किसी का डर नही है,और मुझे कोई फेल नही कर सकता अब सरकार ने नियम बना दिया है कि किसी भी बच्चे को मास्टर फेल नही कर सकते तो अब मुझे पढने की जरूरत नही हैं मेरे पापा कह रहे थे अखबार में ऐसा आया है जब अध्यापक ने उसकी बातें सुनी तो अध्यापक अवाक रह गया और उस बच्चे को समझाने लगे कि बेटा पढने के लिये तो पढना ही पडेगा नही तो तुझे कुछ नहीं आएगा। लेकिन बच्चे का मन बदल चुका था और अध्यापक सरकार के बारे में सोच कर अपना मन मैला कर रहा था।

                                                                                                                                                                                                                                  सूबे सिहं सुजान

                                                                                                                                                                                                                                    9416334841,, कुरूक्षेत्र

बुधवार, 4 अप्रैल 2012

तरही गजल--

आह ठण्डी कोई हमारी है

सुब्ह की ओस सबको प्यारी है

रात के वस्त्र शाम पहने है,

आसमाँ से परी उतारी है

खेल ले जितना खेल सकता है,

जिन्दगी सिर्फ एक पारी है

नींद में बोलने लगे हैं लोग,

जिन्दगानी की दौड जारी है

कह नहीं सकता अब कोई ऐसा,

"ये जमीं दूर तक हमारी है"

आप इतना बता नहीं सकते,

किस तरह ये जगह तुम्हारी है

रोज हंस ले तो रोज रो भी ले,

हंसना रोना दुकानदारी है

मुस्कुरा अपने-आप पर भी "सुजान"

मुस्कुराना तो लाभकारी है

............ .................सूबे सिहं" सुजान"

सफाई तो सब चाहते हैं……(लघुकथा)

गाँव से खेतों में जो पगडंडी वाला कच्चा रास्ता जाता है आज जब सुबह उससे गुजर रहा था तो देखा कि रास्ते पर जगह-जगह राख,पालिथीन और घर का कूडा-करकट बिखरा पडा है जो पूरे रास्ते पर एक कतार में पडा था। अगले दिन फिर यही क्रम था जब मुझे कईं दिन ऐसा ही क्रम दिखाई दिया तो मैंने उस बली नाम के किसान से पूछ ही लिया कि आप को रोज यह कूडा यहाँ रास्ते में बिखेरने से क्या मिलता है ये पालिथीन तो हमारे खेतों,फसलों के लिये जहर का काम करता है और फसल की पैदावार को कम करता है। क्या तुम्हें इस बात का नहीं पता? तो वह बोला इससे क्या फर्क पडता है गाँव की गलियों में भी तो  बिखरा पडा है अरे भाई तो क्या खेत भी गन्दे करने हैं गाँव को भी साफ कर सकते हैं अगर हम थोडा अपने कामों पर ध्यान दें,सफाई तो सबको अच्छी लगती है यह वाक्य हम बहुधा बोलते हैं लेकिन जब सब सफाई चाहते हैं तो यहाँ गन्दगी क्या दूसरे देश के लोग फेंकते हैं वो भी तो हमीं हैं। और बली मेरी तरफ इस तरह मुस्कुराया जैसे मैने कोई गलत बात कह दी और उसकी हंसी मुझे दोषी कह रही हो। और वह अपने काम को चलता बना मैं अपराधी सा खडा देखता रह गया।

 

                                                                                                                                                                                                                  सूबे सिहं सुजान

पता- गाँव सुनेहडी खालसा

डाकखाना-सलारपुर-पिन-136119

जिला-कुरूक्षेत्र,हरियाणा

मो.09416334841

मेल-subesujan21@gmail.com

मंगलवार, 27 मार्च 2012

ghazal-

हर तरफ रास्ता है जाने का
क्या मजा है नये जमाने का

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sujan

गजल-सच खोजना

सच खोजना नहीं अब आसान रह गया

अब खबरों में उलझ कर इन्सान रह गया

हर रोज अपना काम किया और सो गये,

बूढा पिता जमाने से अनजान रह गया

 

मंगलवार, 20 मार्च 2012

कविता-रास्ते की आँख में दर्द

आज रास्ते की आँख में दर्द था
दर्द भी बेतहाशा,
मैं उसे ढूढं रहा था
कोशिशों के बाद जब वह मिला
तो मैं सिर्फ उसे सहला कर वापिस आ गया।
अपनी बात नहीं कह सका
जो बात रास्ते को कहनी थी
और जब मैं वापिस घर को चला
तो रास्ता भी मेरा मुंह ताकता रहा।
सुजान

CoolFunClub: Art Typography

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शुक्रवार, 9 मार्च 2012

Finest Multivitamins for women over 40

Various important and visible changes occur inside of a woman's life at 40. Menopause is one of the significant points that a lady has to deal with through 40. At the exact same time, immediately after 40, ladies are at higher hazard of suffering from osteoporosis and coronary heart diseases. Females also encounter continual tiredness and lack of electricity in the course of this phase of existence. The only real way to conquer and prevent this is certainly to have a wholesome food plan with plenty of vitamins and necessary minerals. Even so, it could not be probable to prepare your meals accordingly because of towards your hectic routine. Next, at this point of life, relying only on eating plan so that you can achieve many of the vitamins and minerals might not help. Hence, multivitamins come into picture. Multivitamins are nutritional supplements of vitamins as well as critical nutritional vitamins demanded by the entire body. So, that's the most beneficial multivitamin for women above forty? Permit us acquire a look at it in detail. Multivitamins for women Above forty There are various multivitamin tablets, pills, powders obtainable in the market which could be obtained over-the-counter. If you are searching for the greatest multivitamin for ladies more than forty, you need to seem for people containing each of the essential nutritional vitamins demanded at this time. Which vitamin are most required by ladies through forty many years of age? Let us take a look. Vitamin A Vitamin A is among the most effective nutritional vitamins for girls about 40 since it will help in increasing eyesight and in addition can help in preserving healthy eyes. This vitamin can also be vital for regulating the immune program and keep off infectious health conditions. Vitamin A, in more mature girls, is likewise crucial for healthful operate in the epithelial cells during the overall body. Vitamin B Vitamin B is essential in case a woman ideas for pregnancy following 40. Folic acid, a B vitamin is essential as a way to possess a healthy pregnancy and stay clear of birth defects. In other instances, vitamin B really should be bundled while in the best multivitamin for ladies within their 50s as it is vital for your manufacturing of red blood cells, enhances immunity and also can help in vitality manufacturing. B advanced vitamins will also be essential to stay away from memory complications. Vitamin C Vitamin C, or ascorbic acid, can be one of many important vitamin for ladies over forty. Vitamin C is needed to create a powerful immunity. Additionally, it plays a very important function in prevention of Alzheimer's condition and lessens the danger of most cancers in adult females. Vitamin C is likewise critical to acquire balanced gums and tooth. Vitamin D Vitamin D is an additional critical ingredient that just one need to search for from the very best multivitamin for ladies more than 40. Vitamin D is necessary for upkeep of proper bone health and fitness and prevent osteoporosis. In addition to this, vitamin D is also considered to engage in a crucial part in reducing the chance of cancer, heart disorders; handle despair, panic, and many others. Aside from the over pointed out nutritional vitamins, calcium and iron can also be extremely crucial for that prevention of osteoporosis in women about forty. Even though deciding upon the ideal multivitamin, don't forget that it need to have many of the higher than talked about minerals and vitamins. Among all of the manufacturers obtainable on the market A person daily woman's system and Centrum Silver are a few in the hottest and finest multivitamin for ladies through 40. It's also possible to get a look for the women's multivitamin testimonials for other merchandise. Last of all, you need to bear in mind that vitamin nutritional supplements should really be taken only soon after consulting the medical professional in order to avoid vitamin overdose 人妻母娘. You need to recall that it is needed to go for multivitamins to fulfill the bodily requirement of vitamins within the afterwards age. You'll be able to exploration on the market to get the greatest multivitamin for women over 40. Lastly, keep in mind that owning multivitamins regularly will certainly assist in prevention of various diseases 人妻熟女. Get care! www.facebook.com/sujankavi

गुरुवार, 1 मार्च 2012

पेडों ने शुरू की क्रांति

जो पेड दीवार के पास खडे होते हैं उनकी जडें दीवार में अपनी जगह बना लेती हैं जैसे आदमी को कह रही हों कि अब छोडिये आप मकानों को हमें रहना है इन मकानों में। आदमी की ज्यादतियों से तंग आकर पेड अपनी रक्षा के लिये ये कदम उठा रहे हैं।
सुजान

पेडों ने शुरू की क्रांति

जो पेड दीवार के पास खडे होते हैं उनकी जडें दीवार में अपनी जगह बना लेती हैं जैसे आदमी को कह रही हों कि अब छोडिये आप मकानों को हमें रहना है इन मकानों में। आदमी की ज्यादतियों से तंग आकर पेड अपनी रक्षा के लिये ये कदम उठा रहे हैं।
सुजान

केवल बातें

केवल बातें

शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2012

तरही गजल

अपनी ही हरारत से है अनजान अभी तक।
इनसान नहीं बन सका इनसान अभी तक।।
जिन्दा हैं मेरे प्यार के अरमान अभी तक।
आया नहीं उनका कोई फरमान अभी तक।।
हमने ही समस्याऐं खडी की हैं जमीं पर,
और ढूंढ नहीं पाये समाधान अभी तक।
इक पेड की चीखों से ये माहौल बना है,
दहशत में ही खामोश है मैदान अभी तक।
                                                -सूबे सिहं सुजान

रविवार, 1 जनवरी 2012

AB KON

अब देखता हूँ कौन है देता दुआ मुझे
सच बोलने की कैसी मिलेगी सजा मुझे-
पहचानते नहीं मेरे अपने भी वक्त पर,
अब इस जमाने से ही उठा ले खुदा मुझे
मैंने खरीदी कार जो मन्दिर के पैसों से,
सारा जमाना कहने लगा देवता मुझे
जनलोकपाल तेरी पिटाई से डरते हैं,
नेताओं का तो झूठा लगा वायदा मुझे
सुजान

NOW I SEE

Now I see is what gives me*true pray speak of what punishment will help me-* not recognize on my own time also,*
Only now taking this transplant to take me*I bought car god temple which the money, God put me say Zamaana*All*
democacy are afraid to saugijana pullumayudham,*leaders of the false promise put me*sujan