शनिवार, 28 दिसंबर 2019

भारतीय संस्कृति के गुण

<इस देश में मानव के हर प्रकार के व्यवहार को संस्कृति, त्योहार में ढाला गया है इसका अर्थ यह है कि मानव का यह व्यवहार प्रारंभ से ऐसा ही है और ऐसा ही रहेगा , हाँ केवल वस्तुएँ,तकनीक बदलती हैं । रावण,राम, सब हमारे चरित्र हैं यह त्योहार हमें प्रतिबिंबित करते हैं हम स्वयं को विद्वान प्रदर्शित करते हुए हर पुरातन कथा, ग्रंथ आदि में कमियाँ निकालते हैं न कि हम विद्वान ही होते हैं दरअसल हम कंई बार वास्तविकता को पूर्णतः समझ पाने में असमर्थ होते हैं सबकी बुद्धिलब्धि अलग अलग स्तर पर रहती है यह प्राकृतिक ही है हम कोई इंजेक्शन देकर किसी का बुद्धि स्तर नहीं बढ़ा सकते केवल शिक्षा ही एक जरिया है और यह बौद्धिक है न कि तकनीकी । मनुष्य प्रकृति से ही हर ज्ञान प्राप्त करता रहा है और करता रहेगा वास्तव में मनुष्य का अपना निर्माण कुछ नहीं है सब कुछ प्रकृति से ग्रहण करता है । सूबे सिंह सुजान dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">

शनिवार, 21 दिसंबर 2019

मौत डरती है ।

माँ मौत को बुलाती है सारे देवी व देवताओं को पुकारती है कहती है मुझे मारो मुझे ले जाओ लेकिन माँ के देवी व देवता पत्थर में रहते थे उनके टुकड़े करके लोग एक दूसरों को मार रहे थे मानवता को चोट लग रही थी मानवता मर रही थी मानवता को मौत आ गई लेकिन माँ के हर रोज बुलाने पर भी मौत नहीं आती माँ अपने जीवन की पिछली सब घटनाओं को याद करती है कभी रोती है कभी सख्त तेवर में देवताओं को कोसती है । दर्द जिंदा है दवाइयाँ बेअसर हैं दर्द के हर प्रकार माँ देख चुकी है माँ के दर्द के अनुभवों को कोई लेना नहीं चाहता लेकिन जब दर्द आएगा तो सबको लेना ही पड़ता है । जीवन में कोई कितना भी सख्त, मजबूत रहा हो लेकिन सब किसी न किसी समय बहुत डरते हैं कोई भी सबके साथ एक सा व्यवहार नहीं कर पाता मौत सबसे क्रूर होने के बावजूद भी डरती है मैंने देखा है माँ से,मौत डरती है माँ से,मौत डरती है ।। सूबे सिंह सुजान

मंगलवार, 17 दिसंबर 2019

डॉ सत्य प्रकाश तफ़्ता ज़ारी साहब का लघु जीवन व साहित्यिक चरित्र चित्रण

डॉ सत्य प्रकाश तफ़्ता ज़ारी साहब जी दिनांक 15/12/2019 को सुबह 7:30 इंतकाल हो गया है उनका जन्म 4 नवम्बर 1933 को रादौर, जिला यमुनानगर में हुआ था उन्होंने वे एम एस सी, पी एच डी थे प्राणी विज्ञान विभाग कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय कुरूक्षेत्र में प्रोफेसर,विभागाध्यक्ष एवं डीन साइंस फैक्लटि के पद से ग़ नवम्बर 1993 को सेवानिवृत्त हुए । विज्ञान के क्षेत्र में 180 से अधिक शोध पत्र, विश्व की शोध पत्रिकाओं में प्रकाशित व उनके मार्गदर्शन में 14 छात्र व छात्राओं ने पी एच डी की । वे तीन वर्ष तक न्यूरो साइंस विभाग यरकीज़ रीजनल रिसर्च सेंटर, एमरी विश्वविद्यालय, अटलांटा अमेरिका में शोध करके आये हैं साहित्यिक क्षेत्र में उर्दू में पुस्तकें नुक़ूशे नातमाम, हिना की तहरीर, हिन्दी में एहसास, दर्द का रिश्ता अनुवाद NATURE AND INTELLIGENCE अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद व चीन की विचारक पुस्तक TOA TEH KING पर वैचारिक निबंध लिखे । उन्होंने उर्दू भाषा में मुख्यतः ग़ज़लें, क़ितआत, ऱूबाईयात, तज़ामीन, एवं तशातीर व माहिया लिखे तथा उपरोक्त पुस्तकों के अलावा उनका लगभग दस पुस्तकों के योग्य लेखन अप्रकाशित है । वे उर्दू अ़रूज के माहिरे उस्ताद रहे हैं वे उर्वेउर्दू अ़रूज के महान उस्ताद डॉ ओमप्रकाश ज़ार अल्लामी साहब के जानशीन रहे हैं । उर्दू,फ़ारसी,अरबी के उस्ताद रहे साथ ही जियोलॉजी के प्रोफेसर व कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय कुरूक्षेत्र में जियोलॉजी विभाग को स्थापित करने वाले व डीन रहे हैं और दो वर्षों के लिए अमेरिका के विश्वविद्यालय में भी अध्यापन किया है अंग्रेजी,हिन्दी,संस्कृत के भी विद्वान व भाषाओं पर पूर्ण अधिकार रखते थे । वहीं वे मनुष्य जीवन में सरल साधा इनसान रहे हैं कभी ईमान नहीं बेचा ज़िन्दगी फ़ाक़ाकशी में गुजारी है बिना पेंशन बुढ़ापे में और बेटियों से कभी कुछ न लेने की जिद रखी लेकिन बेटियों के अलावा कुछ था भी नहीं उम्र के बीमार पड़ाव में बेटियों ने वो सेवा की । उनका साहित्य दर्शन का साहित्य है जिसमें प्रकृति,मनुष्य,पशु पक्षी,समाज,आसमान व जीव प्रक्रिया पर गहन चिंतन है । उनकी कुछ ग़ज़लें व शेर प्रस्तुत कर रहा हूँ । एक खुशबू हूँ ज़माने में बिखर जाऊँगा सबको फरहत से नवाजूँगा जिधर जाऊँगा । मुझे तक़्दीर का शिकवा नहीं है कि मन चाहा कभी होता नहीं है ये दुनिया है तिरी दानिश से बाला (ऊपर) इसे तूने अभी समझा नहीं है न हो मग़रूर तू खुद पर, कि तूने जिसे जाना है पहचाना नहीं है यही सबसे बड़ा है मेरा दावा कि मेरा एक भी दावा नहीं है अनोखे काम कर जाती है च्यूंटी कोई संसार में छोटा नहीं है बशर की शान है पैसे के दम से बशर क्या है अगर पैसा नहीं है सुहाने होते हैं बस दूर के ढ़ोल नज़र आता है जो, वैसा नहीं है हमेशा ग़ैर के कन्धों पे चढ़कर कोई ऊँचा कभी होता नहीं है बहुत दुश्वार है खुद को समझना कि खुद को "तफ़्ता" भी समझा नहीं है । डॉ एस पी तफ़्ता ज़ारी (जानशीन डॉ "ज़ार " अ़ल्लामी)

मंगलवार, 19 नवंबर 2019

तमाशा एक फंतासी दुनिया है ।

तमाशा एक फंतासी है और लोगों को यह बहुत पसंद आता है जब कभी किसी कार्यक्रम में या सड़क,नुक्कड़ पर कोई व्यक्ति यह करे तो लोग बहुत संख्या में बिना बुलाये आ जाते हैं लेकिन यदि कोई बुद्धिजीवी, संस्कारित कार्यक्रम करे तो सुनने वाले नहीं मिलते हैं । ऐसा क्यों ? ऐसा इसलिए क्योंकि लोग सच का सामना नहीं करना चाहते हैं अपितु वह तमाशे से ही मन बहलाना चाहते हैं क्योंकि वास्तविकता से सामना करना पड़ेगा,कार्य करना पड़ेगा,जवाब देना पड़ेगा । लोगों की यही प्रकृति है वे आरामदायक जीवन जीना चाहते हैं वे संघर्ष से भागते हैं । एक उदाहरण वर्तमान जटिल समस्या का ही ले लेते हैं कि आजकल लोग प्रदूषण से बहुत परेशान हैं सोशल मीडिया पर हायतौबा भी खूब करते हैं नारे भी लगाते हैं लेकिन बहुत कम लोग मिलेंगे नारे लगाने वाले भी वे भी केवल फोटो के शौकीन ही । लेकिन समस्या से सामना करना कोई नहीं चाहता, उसका हल निकालना कोई नहीं चाहता हाँ केवल एक दूसरे को दोष दुनियाभर का देते हैं । कोई व्यक्ति स्वयं वातावरण के लिए काम करता नहीं मिलता जो किसान अपने कृषि कार्यों के करने के वशीभूत ही सही साथ साथ में बेहतर वातावरण भी तैयार करते हैं उनको उसका पुरस्कार कभी नहीं मिलता लेकिन साल में एक बार फसल अवशेष जलाने पर जुर्माना,बुराई,निशाना जरूर मिलता है लेकिन दूसरी तरफ प्रतिदिन पर्यावरण को नुकसान पहुँचाते कारखाने, ए सी, वाहन, शहरीकरण का कूड़ा,घर से बाहर,सड़क पर,सार्वजनिक जगहों पर बेशुमार पॉलिथीन, प्लास्टिक का बेवजह प्रयोग करने वाले लोगों का कोई दोष ही नहीं,कोई जुर्माना ही नहीं ।जो किसान अपनी फसलों को से साल भर मुफ्त में शुद्ध ऑक्सीजन देता है ,मेढ़ों पर पेड़ लगाता है और उनसे फसल उत्पादन भी कम कर लेता है लेकिन ऑक्सीजन देता है उसको कभी कोई पुरस्कार नहीं,सम्मान भी नहीं मज़े की बात है कोई एन जी ओ बनाता है चार फोटो व समाचार लगाता है किसी नेता को बुलाता है और पुरस्कार पर्यावरण पर पा लेता है इससे भी मज़े की बात यह होती है उन्हें पेड़ों की,फसलों की,पर्यावरण की एक प्रतिशत भी जानकारी नहीं होती । अतः लोग केवल तमाशा देखना चाहते हैं सो इसलिए कुछ लोग तमाशा करके खूब धन्धा कर रहे हैं । सूबे सिंह सुजान कुरूक्षेत्र हरियाणा

सोमवार, 11 नवंबर 2019

ग़ज़ल - फूल को तोड़ना नहीं होता ।

ग़ज़ल
  मिलने का सिलसिला नहीं होता ,
तो ये दिल आपका नहीं होता । 
 आपसे दिल लगा नहीं होता 
 आपसे वास्ता नहीं होता । मेरी चिंता की कुछ वजह होगी बेवजह सोचना नहीं होता । धान तो बारिशों में ही होगा बारिशों में चना नहीं होता । तुम मुझे भी पसंद आ जाते मैं अगर दिलजला नहीं होता । फूल को सिर्फ़ देखना है "सुजान " फूल को तोड़ना नहीं होता । जब हमारी कहासुनी हो जाए कुछ दिनों बोलना नहीं होता । प्यार में जिंदगी लुटा दूँगा हर कोई सिरफिरा नहीं होता । सब मिलेंगे वंहीं,जहाँ से "सुजान" फिर कभी लौटना नहीं होता । :::सूबे सिंह सुजान :::

ग़ज़ल :- ज़िन्दगी आज लघुकथा हो गई ।

एक पुरानी ग़ज़ल , नये दोस्तों के नाम । ग़ज़ल आदमी की ये क्या दशा हो गई ज़िन्दगी आज लघुकथा हो गई । अब वो खुशियाँ कहाँ से आयेंगी, सब ग़मों में जो एकता हो गई । इस तरह टूटते रहे हैं पहाड़, जैसे शिमला भी कालका हो गई । थोड़ी महँगाई कम हुई थी बस, फिर चुनावों की घोषणा हो गई । सारे किरदार ही बदल गये हैं , आत्मा, दुष्ट आत्मा हो गई । मैं हँसा था,वो मर मिटा मुझ पर, मुस्कुराहट भी हादसा हो गई । पाप से बचने के लिए देखो, भूल भी एक रास्ता हो गई । ©सूबे सिंह सुजान

मंगलवार, 5 नवंबर 2019

धुआँ, दिल्ली, हरियाणा ।

प्रदूषण के नाम पर हरियाणा के साथ तो हद हो गई है । दिल्ली को अनाज,सब्जियाँ,दूध,व प्राण वायु देने वाला हरियाणा ही आज दिल्ली की नज़रों में अपराधी है ??? यही प्रश्न जो दिल्ली हरियाणा के किसान पर उठा रही है तो यही प्रश्न वह यदि सही आकलन करती तो बरसों पहले अपने आप पर करती जब वहाँ हर रोज नये वाहन शामिल हो रहे थे कारखाने बन रहे थे वायु को जहरीली बना रहे थे ? यदि यह प्रश्न दो सौ व सात सौ किलोमीटर दूर रहने वाले किसानों पर लागू हो रहा है तो आपकी गोद में जो बरसों से हो रहा है वहाँ क्यों नहीं एक बार भी लागू हुआ?? यदि आपके लिये हर समय ए सी गाड़ी,ऑफिस,घर की जरूरत है तो क्या किसान के लिए खेती करना भी अधिकार भी नहीं है? एक बात तो यह है कि दिल्ली या तो यहाँ से उठ कर किन्हीं जंगलों में जाकर बसेरा कर ले या हरियाणा को कहीं पहाड़ों या विदेश में ही भेज दे । वैसे हरियाणा को कहीं भेज देना ये लोग बहुत जल्दी तरक्की कर लेंगे । दूसरी बात यह भी है अक्तूबर व नवम्बर मास में मौसम में ठंड शुरू हो जाती है आकाश में धुंध व कोहरा छाने लगता है जिससे धुआँ वाष्प कणों के साथ घुल जाता है और भारी होने के कारण जम जाता है यदि वायु गतिशील नहीं है तो वह नीचे ही ठहर जाता है और मनुष्य को साँस लेने में कठिनाई का अनुभव होता है (इस सब के बीच हम मनुष्य केवल अपने लिए ही रोना रो रहे होते हैं अनेक जीव जन्तु जो कष्ट में होते हैं उन्हें भूल जाते हैं ) यदि वायु तेज गति से चले तो आकाश शीघ्र साफ व स्वच्छ हो जाता है किन्तु जिस दिन वायु गतिशील नहीं होती उस दिन यह भयानक लगता है । खैर सबसे हास्यास्पद यह है कि जो मनुष्य यह सब कर रहा है वही मनुष्य शिकायत भी कर रहा है ? यानी कि मनुष्य बुद्धिजीवी तो है ही ?

सोमवार, 28 अक्तूबर 2019

ग़ज़ल - अपने ग़म की जबान भी तो नहीं

अपने ग़म की जबान भी तो नहीं चोट का कुछ निशान भी तो नहीं हर जगह रहने के बहुत ग़म हैं अपना कोई मकान भी तो नहीं किस तरह आपका मैं हो जाता आपको मेरा ध्यान भी तो नहीं जीत भी आपकी है तय,लेकिन आपका इम्तिहान भी तो नहीं ग़म मुझे बेहिसाब मिलते हैं बेच देता दुकान भी तो नहीं हर जगह गन्दगी,कहाँ जाऊँ? साफ ये आसमान भी तो नहीं आप पर मैं जता रहा हूँ जबकि आपका एहसान भी तो नहीं । मेरा सब कुछ तुम्हारा ही तो है आपको इत्मिनान भी तो नहीं मेरे अन्दर मैं जी रहा हूँ बस ये कोई तेरी जान भी तो नहीं । नाम ही से सुजान कहलाया आदमी ये "सुजान" भी तो नहीं सूबे सिंह सुजान

मंगलवार, 22 अक्तूबर 2019

हार, जीत पर अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रखना सीखना चाहिए ।

हारने वालों को कभी निराश नहीं होना चाहिए और जीतने वालों को खुश तो होना चाहिए लेकिन खुशी में कभी किसी का अपमान नहीं करना चाहिए । हार ,जीत जीवन के प्रत्येक किस्से में नुमायाँ होती है वो चाहे कोई भी खेल हो या प्रतियोगिता हो या चुनाव हो या व्यक्ति का निजी जीवन में निर्णय लेना, किसी भी रास्ते का चयन करना या भावनाओं के स्तर पर प्रेम की सफलता, विफलता पर हार्दिक स्तर पर घात, प्रतिघात लगना या लगाना यह खेल जीवन का हिस्सा होते हैं अर्थात आप कह सकते हैं जीवन इन्हीं से मिल कर बना है जीवन जीने के तरीके हैं जीवन को जीने में व्यस्त रखने के तौर तरीके हैं और इनसे हम कभी दूर नहीं होते इनसे दूर कुछ संत लोग हो सकते हैं वे भी तब, जब वे सृष्टि की वास्तविकता को समझ लेते हैं यह स्थिति गहन दार्शनिक होती है जो संत लोग यहाँ तक की वैचारिक, बौद्धिक स्तर पर पहुँच पाते हैं वे जीवन निर्माण की प्रक्रिया को जान चुके होते हैं अर्थात जिस प्रकार कोई वैज्ञानिक किसी भी पदार्थ की खोज करता है और उसके निर्माण के सभी तत्वों,प्रक्रिया व गुण, अवगुण को समझ चुका होता है वह उसका ज्ञानी, ज्ञाता हो जाता है उस स्थिति में वह उस पदार्थ को जान चुका होता है तो वह उसके मोह ,लोभ,लालच,प्रेम,निराशा जैसी भावनाओं से ऊपर उठ जाता है उसी प्रकार संत लोग जीवन के ज्ञाता हो जाते हैं वे जीवन निर्माण की प्रक्रिया में आनंदित होकर व्यर्थ की वस्तुओं का त्याग कर देते हैं । खैर । हमें जीवन में हारने पर अपनी भावनाओं पर नियंत्रण करना व जीतने पर भी अपनी भावनाओं पर नियंत्रण करना सीखने का निरंतर प्रयास करना होता है यह सबसे नाजुक सीखने की प्रक्रिया होती है जीवन सीखने से प्रारंभ होकर अंत समय तक सीखने की प्रक्रिया ही तो होती है यह सीखने की प्रक्रिया केवल मनुष्यों में ही नहीं होती अपितु हर जीव में होती है सभी जीवों में तो होती ही है साथ ही साथ सजीव, निर्जीव पदार्थों में भी होती है सभी पहाड़ों,नदी नालों,ईंट,पत्थर,रेत,खनिजों आदि में भी सीखने की प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है सीखने की प्रक्रिया जीवों व निर्जीव में एक समानता पैदा करती है । मनुष्यों को अन्य प्राणियों की अपेक्षा अधिक बुद्धिजीवी व संवेदनशील कहा गया है यह किसी अन्य जीव ने तो कहा नहीं है मनुष्य ने ही कहा है तो यह एक पक्षीय निर्णय भी कहा जा सकता है मनुष्य अपने स्वार्थों का प्रयोग करने के लिए पृथ्वी के सभी जीवों के हिस्सों को खा जाता है जबकि प्रकृति ने सभी जीवों को एक समान अधिकार प्रदान किए हैं । हमारी संवेदनशीलता हमें अन्य प्राणियों के प्रति दुर्व्यवहार न करने के लिये प्रदान की गई है जिसे समझने के लिए हर मनुष्य की प्रकृति भिन्न भिन्न होती है यही संवेदनशीलता हमें बुद्धिजीवी का स्तर प्रदान करती है बौद्धिक स्तर पर मनुष्यों द्वारा चतुरता को अपना कर धोखा देना,दूसरों को लूटना एक प्रकार का बौद्धिक स्तर कहा जाता है लेकिन यह मनुष्यता की कमजोरी है । हमें सीखने की प्रक्रिया में हार पर हार्दिक स्तर पर भावनाओं पर नियंत्रण रखना व जीतने पर भी अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रखना सीखना चाहिए यह वर्तमान समय में बहुत अधिक जिम्मेदारी से सीखने,सीखाने की प्रक्रिया है जिस पर बल दिया जाना जरूरी होता जा रहा है चुनावी मौसमों में हमें यह खासतौर पर ध्यान देना चाहिए कि किसी जीतने वाले लोगों को कभी हारने वालों को जानबूझकर इंगित करके अपमानजनक शब्द, व्यवहार नहीं करना चाहिए यदि ऐसा व्यवहार किया जाता है तो यह व्यवहार वैमनस्य को पैदा करता है जो जीवन हानि तक चला जाता है ।

सरकारी तंत्र व निजीकरण एक विश्लेषण

निजीकरण एक ऐसा सच बनता जा रहा है जिसका कोई इलाज नहीं है अगर इसका इलाज है तो वो खुद निजीकरण है क्योंकि सरकारों में कोई हिम्मत नहीं रही कि वे सिस्टम्स को ठीक कर सकें और सरकार में पहली भूमिका नेताओं की है तो दूसरी उच्च अधिकारियों की है और तीसरी सामान्य कर्मचारी की जो हर वक्त काम करता है जिस पर सारा बोझ लदा रहता है लेकिन अफसोस इस बात का है कि ऊपरी दोनों श्रेणी के लोग सारे देश की मलाई खाते हैं और तीसरी श्रेणी के लोग सारा बोझ उठाते हुए भी काम करते रहते हैं अब मनोवैज्ञानिक आधार की बात बुद्धिजीवी करते रहते हैं लेकिन उस पर अमल कोई नहीं लाता है अब ऐसा लगता है लोग मोबाइल जैसी भयंकर बीमारी के वशीभूत हो चुके हैं यह टेक्नोलॉजी है जिसे सब अच्छा ही कहते रहे हैं और काम करने,सही उत्पादन,सही मूल्य,सही शुद्धता को कोई नहीं जानता बस मोबाइल में व्यस्त हैं बच्चों को जन्म होते ही पकड़ा दिया जाता है ताकि बहुत जल्दी से मर सके तो बात यह हुई कि हम जैसा करते हैं वैसा ही परिणाम मिलता है यह सच है गीता में हजारों वर्षों से कह दिया गया है और यही नियम है तो हम सब कुछ करना ही नहीं चाहते बच्चों को किसी काम को हाथ ही नहीं लगाने दे रहे हैं तो वो क्या सीखेंगे?जो सीखा रहे हैं वही न तो अर्थ यह निकलता है कि निजीकरण में हम मजबूरी वश काम सही करने लगते हैं व सरकारी में मनोवैज्ञानिक रूप से लूट करने का प्रयास ऊपर से नीचे तक चलता है इसलिए सरकार कोई भी आये यह निजीकरण तो होगा ही प्रजातंत्र में यदि सरकारी तंत्र में सार्वजनिक सेवाओं को जिंदा रखना चाहते हैं तो इसके लिए सरकारी तंत्र में काम करने वाले लोगों को ज़मीर से जिंदा होना पड़ेगा हाल फिलहाल वहाँ ज़मीर मरा हुआ है

मंगलवार, 8 अक्तूबर 2019

दशहरा पर्व पर भारतीय संस्कृति एवं बौद्धिकता पर आलेख

*दशहरा पर्व पर भारतीय संस्कृति ,बौद्धिकता के संदर्भ में सूबे सिंह सुजान का आलेख* इस देश में मानव के हर प्रकार के व्यवहार को संस्कृति, त्योहार में ढाला गया है इसका अर्थ यह है कि मानव का यह व्यवहार प्रारंभ से ऐसा ही है और ऐसा ही रहेगा , हाँ केवल वस्तुएँ,तकनीक बदलती हैं । रावण,राम, सब हमारे चरित्र हैं यह त्योहार हमें प्रतिबिंबित करते हैं हम स्वयं को विद्वान प्रदर्शित करते हुए हर पुरातन कथा, ग्रंथ आदि में कमियाँ निकालते हैं न कि हम विद्वान ही होते हैं दरअसल हम कंई बार वास्तविकता को पूर्णतः समझ पाने में असमर्थ होते हैं सबकी बुद्धिलब्धि अलग अलग स्तर पर रहती है यह प्राकृतिक ही है हम कोई इंजेक्शन देकर किसी का बुद्धि स्तर नहीं बढ़ा सकते केवल शिक्षा ही एक जरिया है और यह बौद्धिक है न कि तकनीकी । मनुष्य प्रकृति से ही हर ज्ञान प्राप्त करता रहा है और रहेगा वास्तव में मनुष्य का अपना निर्माण कुछ नहीं है सब कुछ प्रकृति से ग्रहण करता है । © सूबे सिंह सुजान

मंगलवार, 16 अप्रैल 2019

महान व्यक्तित्व को बिना समझे ही पूजना मूर्खता की निशानी है

<*महान व्यक्तित्व को पूजने से पहले उसके विचारों को समझना जरूरी है* किसी भी महापुरुष,महान व्यक्तित्व को बिना समझे ही पूजने से ही गलती शुरू होती है । उनके विचारों को समझना जरूरी है वो अपने विचारों में जिंदा हैं और हम जिंदा रूप को देखना,सुनना नहीं चाहते जबकि मूर्त रूप को प्राथमिकता देते हैं । क्योंकि हम कर्महीनता के शिकार हैं यदि हम आम्बेडकर के विचारों पर चलेंगे तो हमें कर्म करना होगा और यही कर्म हम करने से बचना चाहते हैं *मनुष्य स्वभाव से ही केवल सुविधाएँ चाहता है वह भी दूसरों से* *सूबे सिंह सुजान* dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">

रविवार, 7 अप्रैल 2019

निबंध - निठल्लों का महिमा गान

निठल्लों की महिमा निठल्ले हमेशा महान काम करके ही दम लेते हैं वे जहाँ भी घुस जाते हैं तो चिपक ही जाते हैं वे कमीज पर उस धूल कण की तरह चिपके रहते हैं जिसका कमीज पहनने वाले को आभास ही नहीं होता और इस तरह वो कमीज पहना आदमी भी उसी निठल्ले की महिमा में तालियाँ बजाता रहता है शाबाशी और पुरस्कार निठल्लों पर बहुत मेहरबान होते हैं क्योंकि निठल्ले बातें बहुत मीठी बनाते हैं,चमचियाँ बहुत घुमाते हैं और चमचियों में कुछ मिठास चिपकी होती है जिससे अधिकारी पल में चिपक जाते हैं और पुरस्कार की बौछार करते हैं निठल्लों की पौ बारह हो जाती है कुछ लोग हमारे जैसे बेक़ार में परेशान होते रहते हैं और अपना ख़ून जलाते रहते हैं कि ये काम नहीं करते,वो नहीं करते और वाह वाह सारी इनके पास जाकर गोदी में कैसे बैठ जाती है अब हम जैसे बेवकूफों को कोई समझाये कि निठल्लों को मिट्टी,धरती से कभी कोई मतलब रहा ही नहीं वे इस धरा के है ही नहीं तो धरातल से उन्हें न मतलब था और न है वे तो रहते ही धरातल से ऊपर हैं वायु और आकाश ही उनका घर,प्राण,भोजन व मल त्याग का स्थान है वे ऊपर उठे हुए लोग होते हैं उनमें भार नहीं होता वे निभार होते हैं इनको हमेशा अपनी पूजा पसंद होती है इनको इनके बारे में केवल एक ही बात कहनी होती है वह है इनकी तारीफ़ बाक़ी कुछ कहा तो कहने वाले को आफ़त से सामना करना ही पड़ेगा । इसलिए सभी मनुष्य जितनी श्रद्धा से इनकी महिमा कर सकता है उतनी ही श्रद्धा से करे लेकिन करे जरूर इसी में आपके जीवन व कुटुंब का भला है ।

रविवार, 24 फ़रवरी 2019

ईर्ष्या तुलना से पैदा होती है तुलना करना छोड़ दीजिए ईर्ष्या भी ख़त्म और जीवन में खुशहाली आ जाएगी

ईर्ष्या से इतनी पीड़ा क्यों होती है? ईर्ष्या तुलना है। और हमें तुलना करना सिखाया गया है, हमनें तुलना करना सीख लिया है, हमेशा तुलना करते हैं। किसी और के पास ज्यादा अच्छा मकान है, किसी और के पास ज्यादा सुंदर शरीर है, किसी और के पास अधिक पैसा है, किसी और के पास करिश्माई व्यक्तित्व है। जो भी तुम्हारे आस-पास से गुजरता है उससे अपनी तुलना करते रहो, जिसका परिणाम होगा, बहुत अधिक ईर्ष्या की उत्पत्ति; यह ईर्ष्या तुलनात्मक जीवन जीने का बाइ प्रोडक्ट है। अन्यथा यदि आप तुलना करना छोड़ देते हो तो ईर्ष्या गायब हो जाती है। तब बस आप जानते हो कि आप आप हो, आप कुछ और नहीं हो, और कोई जरूरत भी नहीं है। अच्छा है आप अपनी तुलना पेड़ों के साथ नहीं करते हो, अन्यथा आप ईर्ष्या करना शुरू कर दोगे कि हम हरे क्यों नहीं हो? और अस्तित्व हमारे लिए इतना कठोर क्यों है? हमारे फूल क्यों नहीं हैं? यह अच्छा है कि आप अपनी तुलना पक्षियों, नदियों, पहाड़ों से नहीं करते हो, अन्यथा आपको दुख भोगना होगा। तुम सिर्फ इंसानों के साथ तुलना करते हो, क्योंकि आपने इंसानों के साथ तुलना करना सीखा है; आप मोरों और तोतों के साथ तुलना नहीं करते हो। अन्यथा आपकी ईर्ष्या और भी ज्यादा होगी: आप ईर्ष्या से इतना दबे होओगे कि थोड़ा भी नहीं जी पाओगे। तुलना बहुत ही मूर्खतापूर्ण वृत्ति है, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति अनुपम और अतुलनीय है। एक बार यह समझ हर एक में आ जाए, ईर्ष्या गायब हो जाएगी। प्रत्येक अनुपम और अतुलनीय है। आप सिर्फ आप हो: कोई भी कभी भी आपके जैसा नहीं हुआ, और कोई भी कभी भी आपके जैसा नहीं होगा। और न ही आपको भी किसी और के जैसा होने की जरुरत है।अस्तित्व केवल मौलिक सृजन करता है; यह नकलों में, कार्बन कापी में भरोसा नहीं करता। अगले दरवाजे पर महान घटनाएं घट रही हैं: घास ज्यादा हरी है, गुलाब ज्यादा खिले हैं। अपने अलावा सब लोग इतना खुश दिखाई देते हैं। आप हमेशा तुलना कर रहे हो। और यही दूसरों के साथ भी हो रहा है, वे भी तुलना कर रहे हैं। हो सकता है वे भी सोच रहे हों कि आपके मैदान की घास ज्यादा हरी है, दूर से यह हमेशा हरी दिखाई देती है ।' सुप्रभात दोस्तों।😊😊😊div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">

मंगलवार, 19 फ़रवरी 2019


डा. नामवर सिंह नहीं रहे। 1999 में पाश पुस्तकालय करनाल में मुझे भी उनसे बातचीत करके,साहित्यिक परिचर्चा करके बहुत सीखने,समझने का अवसर मिला था । डा. नामवर सिंह हमारे बीच नहीं रहे । हिंदी साहित्य के सूक्ष्मदर्शी, पहले आधुनिक प्रगतिशील आलोचक नहीं रहे । पिछले एक अर्से से उनकी अस्वस्थता की खबरें लगातार आया करती थी । कल रात 11.50 पर उन्होंने दिल्ली में अंतिम साँस ली । नामवर सिंह की उपस्थिति ही हिंदी आलोचना की चमक का जो उल्लसित अहसास देती थी, अब वह लौ भी बुझ गई । नामवर जी के कामों ने हिंदी आलोचना को कुछ ऐसे नये आयाम प्रदान किये थे, जिनसे परंपरा की बेड़ियों से मुक्त होकर आलोचना को नये पर मिले थे । पिछली सदी में ‘80 के दशक तक के अपने लेखन में आलोचना के सत्य को उन्होंने उसकी पुरातनपंथ की गहरी नींद में पड़ रही खलल के वक्त की दरारों में से निकाल कर प्रकाशित किया था । उन्होंने ही हिंदी के कथा साहित्य को कविता के निकष पर कस कर किसी भी साहित्यिक पाठ की काव्यात्मक अपरिहार्यता से हिंदी जगत को परिचित कराया था । हिंदी साहित्य जगत की आलोचना के इस गहरे सत्य से मुठभेड़ कराने के लिये ही उन्हें हिंदी साहित्य के इतिहास में सदा याद किया जायेगा । उनकी वाग्मिता के जादूई असर से वे साहित्य रसिक कभी मुक्त नहीं होंगे जिन्हें उनको कभी भी सुनने का अवसर मिला था । परवर्ती दिनों में उनके कई महत्वपूर्ण भाषणों और साक्षात्कारों के संकलन प्रकाशित हुए हैं जो उनके समग्र बौद्धिक व्यक्तित्व के विस्तार की तस्वीर पेश करते हैं । पिछले कुछ सालों से उनकी रचनात्मक गतिविधियां कम हो गई थी और वे एक प्रकार से मैदान से हट चुके थे । लेकिन उनकी दीर्घकालीन उपस्थिति और उनके क्रमश: मौन से पैदा हुए सन्नाटे के बाद आज उनके न रहने से लगता है जैसे हिंदी जगत की आश्वस्ति का एक बड़ा स्तंभ ढह गया है । अपेक्षाओं, प्रशंसा, शिकवा, शिकायतों की जैसे अब कोई ड्योढ़ी ही नहीं बची है । नामवर जी की तमाम स्मृतियों के प्रति अश्रुपूर्ण आंतरिक श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए हम उन्हें विदा करते हैं । यह हिंदी साहित्य के जगत के लिये एक गहरे शोक की घड़ी है । हम उनके तमाम परिजनों के प्रति अपनी भावपूर्ण संवेदनाएं प्रेषित करते हैं । नामवर सिंह अमर रहे !

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सोमवार, 18 फ़रवरी 2019

गीत चतुर्वेदी का लेख - दिल के किस्से कहाँ नहीं होते

*गीत चतुर्वेदी की कलम से : दिल के क़िस्से कहां नहीं होते*


मशहूर साहित्यकार गीत चतुर्वेदी ने लेखन की नैसर्गिक प्रतिभा और अध्ययन द्वारा प्राप्त क्षमता द्वारा रचित रचनाओं पर जो सवाल उठाये जाते हैं, उसी मुद्दे पर यह लेख लिखा है, जिसमें उन्होंने यह बताने की कोशिश की है कि प्रतिभा नैसर्गिक हो सकती है, किंतु ज्ञान नैसर्गिक नहीं हो सकता, उसे अर्जित करना पड़ता है अध्ययन से चिंतन से. गीत चतुर्वेदी का मानना है कि रचना की श्रेष्ठता महत्वपूर्ण ना कि यह देखना कि वह नैसर्गिक प्रतिभा द्वारा लिखी गयी है यह एक्वायर्ड ज्ञान द्वारा. प्रस्तुत है गीत चतुर्वेदी का आलेख :  दिल के क़िस्से कहां नहीं होते -गीत चतुर्वेदी- जब से मैंने लिखने की शुरुआत की है, अक्सर मैंने लोगों को यह कहते सुना है, 'गीत, तुममें लेखन की नैसर्गिक प्रतिभा है.' ज़ाहिर है, यह सुनकर मुझे ख़ुशी होती थी. मैं शुरू से ही काफ़ी पढ़ता था. बातचीत में पढ़ाई के ये संदर्भ अक्सर ही झलक जाते थे. मेरा आवागमन कई भाषाओं में रहा है. मैंने यह बहुत क़रीब से देखा है कि हमारे देश की कई भाषाओं में, उनके साहित्यिक माहौल में अधिक किताबें पढ़ने को अच्छा नहीं माना जाता. अतीत में, मुझसे कई अच्छे कवियों ने यह कहा है कि ज़्यादा पढ़ने से तुम अपनी मौलिकता खो दोगे, तुम दूसरे लेखकों से प्रभावित हो जाओगे. मैं उनकी बातों से न तब सहमत था, न अब.    बरसों बाद मेरी मुलाक़ात एक बौद्धिक युवती से हुई. उसने मेरा लिखा न के बराबर पढ़ा था, लेकिन वह मेरी प्रसिद्धि से परिचित थी और उसी नाते, हममें रोज़ बातें होने लगीं. हम लगभग रोज़ ही साथ लंच करते थे. कला, समाज और साहित्य पर तीखी बहसें करते थे. एक रोज़ उसने मुझसे कहा, 'तुम्हारी पूरी प्रतिभा, पूरा ज्ञान एक्वायर्ड है. तुम्हारा ज्ञान नैसर्गिक ज्ञान नहीं है.' उसके बाद कई दिनों तक हमारी बहसें इसी मुद्दे पर होती रहीं. बहसों का कोई हल नहीं होता. हममें इतना ईगो हमेशा होता है कि हम 'कन्विंस' होने की संभावनाओं को टाल जायें.   लेकिन मुझे बुरा लगा था. एक्वायर्ड शब्द ही बुरा लगा था. इस शब्द के सारे संभावित अर्थों को जानने के लिए उस रोज़ घर लौटकर मैंने सारे शब्दकोश और थिसॉरस पलटे थे. मुझे एक भी नकारात्मक अर्थ नहीं मिला, लेकिन फिर भी मुझे बुरा लगा था. मुझे बुरा क्यों लगा था? इसका कारण समझने में मुझे कुछ बरस लग गए. जब मेरी प्रतिभा को नैसर्गिक कहा गया था, तो मुझे अच्छा लगा था. जब उसे एक्वायर्ड कहा गया, तो मुझे बुरा लगा. कारण हमारे सामूहिक—सामाजिक—कलात्मक संस्कार थे. हमें बचपन से ही लगभग यह मनवा दिया जाता है कि श्रेष्ठताएं जन्मजात होती हैं. प्रतिभा जन्मजात होती है. बिरवा के पात चिकने हैं, यह बचपन में ही पता चल जाता है. हमें यही स्थिति सबसे अच्छी लगती है. श्रम से पायी गयी, अर्जित की गयी चीज़ों को, वह भी कला के संदर्भ में, अच्छा नहीं माना जाता. अभी पिछले हफ़्ते एक सज्जन कह रहे थे कि नेरूदा नैसर्गिक हैं, एक बार में कविता लिख देते थे, जबकि मीवोश को अपने क्राफ्ट पर बहुत काम करना पड़ता था, इसलिए वह कवि से ज़्यादा मिस्त्री हैं.   प्रतिभाएं तो नैसर्गिक हो सकती हैं, पर क्या ज्ञान भी नैसर्गिक हो सकता है? चाहे बुद्ध हों या आइंस्टाइन, कोई भी जन्मजात ज्ञान लेकर नहीं आता. उसे ध्यान और अध्ययन दोनों की शरण में जाना होता है. दोनों में गहरा भाषाई रिश्ता है. निरंतर ध्यान ही अध्ययन बन जाता है. जो आप धारण करते हैं, उससे आपका ध्यान रचित होता है. इसी से बनती है मेधा. एक होती है प्रज्ञा. वह भी जन्मजात नहीं होती. आपकी मेधा से आपकी प्रज्ञा का विकास होता चलता है. प्रज्ञा, मेधा से चार क़दम आगे चलती है. मान लीजिए, आप किसी किताब के बीस पन्ने पढ़कर छोड़ देते हैं.  एक दिन आप पाते हैं कि आपके मन में वह पंक्ति या दृश्य गूंज रहा है, जो उस किताब के तीसवें पन्ने पर था, जिसे आपने पढ़ा ही नहीं था. यह प्रज्ञा का काम है. वह हमेशा उन भूखंडों में रहती है, जहां आपका अध्ययन व मेधा अभी तक नहीं पहुंचे हैं. गीत चतुर्वेदी की कलम से : जाते हैं जिधर सब, मैं उधर क्यों नहीं जाता इसीलिए योग में प्रज्ञा का विशेष महत्व है. मेधावी तो विद्यार्थी होते हैं, प्रज्ञा योगी के पास आती है. उसे भी प्राप्त करना होता है. एक्वायर्ड होती है. पुरानी अंग्रेज़ी का एक मुहावरा है, जिसे हेमिंग्वे अपने शब्दों में ढालकर बार—बार दुहराते थे— प्रतिभा, दस फ़ीसदी जन्मजात गुण है और नब्बे फ़ीसदी कठोर श्रम. यह वाक्य नैसर्गिक व एक्वायर्ड, दोनों के एक आनुपातिक मिश्रण की ओर संकेत करता है. अगर वह नब्बे फ़ीसदी श्रम न हो, तो उस दस फ़ीसदी का कोई मोल न होगा. एक शेर याद आता है, जिसके शायर का नाम याद नहीं—  दिल के क़िस्से कहां नहीं होते मगर वे सबसे बयां नहीं होते.   पर इस मामले में मेरी मदद हेमिंग्वे से ज़्यादा अभिनवगुप्त ने की. आठ—नौ साल पहले मैंने उन्हें गंभीरता से पढ़ना शुरू किया था. ध्वन्यालोक के उस हिस्से में जहां वह सारस्वत तत्व की विवेचना करते हैं, सहृदय का निरूपण करते हैं, वहां वह प्रख्या और उपाख्या दो प्रविधियों—उपांगों का भी उल्लेख करते हैं. प्राचीन व अर्वाचीन विद्वानों ने इन दोनों शब्दों की भांति—भांति से व्याख्या की है, लेकिन मैंने इन्हें अपने तरीक़े से समझा है. प्रख्या कवि की नैसर्गिक प्रतिभा है, उपाख्या उसका अर्जित ज्ञान है. प्रख्या दर्शन है. उपाख्या अभ्यास है. यहां अभ्यास का अर्थ सीधे—सीधे प्रैक्टिस न समझ लें. अभ्यास यानी उस दर्शन को दृष्टि के व्यवहार में रखना. कवि में एक ऋषि—तत्व का होना अनिवार्य है. ऋषि शब्द को भी समझकर सुना जाये. यह इसलिए कह रहा कि याद आया, आठ-दस साल पहले जब कुंवर नारायण को ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला था, तो सबद पर एक टिप्पणी में मैंने लिखा था कि उनमें ऋषि—तत्व है. कुछ समय बाद हिंदी के एक कवि ने इस शब्द के प्रयोग के आधार पर मुझे दक्षिणपंथी और संघी आदि क़रार दिया और कहा कि ऋषि जैसा शब्द प्रयोग कर मैं कुंवर नारायण को आध्यात्मिक रंग दे रहा हूं. उस हिंदी कवि को ऋषि शब्द का अर्थ नहीं पता है, इसीलिए वह ऐसा लिख गया. कुंवर नारायण को पता है. इसलिए उन्हें पसंद आया था. पुरानी, वैदिक संस्कृत में ऋषि के दो—तीन अर्थ होते हैं, लेकिन मूल अर्थ है— वह व्यक्ति जिसे बहुत दूर तक दिखाई देता हो. इसीलिए जब वेदों का उल्लेख होता है, तो ज्ञानी लोग 'मंत्रों के रचयिता' नहीं, 'मंत्रद्रष्टा' शब्द का प्रयोग करते हैं. कविता रची नहीं जाती, वह पहले से होती है, आप बस उसे देख लेते हैं, उसे उजागर कर देते हैं. उजागर करने की प्रक्रिया में बहुत श्रम लगता है. जैसे पत्थर के भीतर शिल्प होता है, अच्छा शिल्पकार उसे देख लेता है और पत्थर के अनावश्यक हिस्सों को हटाकर शिल्प को उजागर कर देता है. दृश्य हर जगह उपस्थित होता है, अच्छा फिल्मकार उसे देख लेता है, उसके आवश्यक हिस्से को परदे पर उतार देता है। बात वही है— दिल के क़िस्से कहां नहीं होते...।  यह ऋषि—तत्व, देख लेने का यह गुण, प्रख्या है. उजागर करने की प्रक्रिया में लगने वाला श्रम उपाख्या है. रस—सिद्धांत की अच्छी समीक्षा करने वाले लोग भी इस भ्रम में पड़े रहते हैं कि सबसे बड़ा कलाकार वही होता है, जिसके भीतर जन्मजात गुण हो. बचपन से हमारे संस्कार ऐसे होते हैं कि हम जन्म से मिलने वाली श्रेष्ठताओं को ही वरीयता देते हैं. इसीलिए एक्वायर्ड शब्द या अर्जित श्रेष्ठताओं का महत्व हम नहीं समझ पाते. इसीलिए हम साधना के अध्यवसाय को नजरअंदाज़ कर चमत्कारों में यक़ीन करने लग जाते हैं. मेरे उस प्राचीन दुख का कारण यहीं कहीं रहा होगा. किसी एक को महत्वपूर्ण मान लेना, दूसरे को कम महत्व का मानना एक संस्कारी भूल है. श्रम की महत्ता को कम करने आंकने जैसा है. कवि की देह प्रतीकात्मक रूप से अर्ध—नर—नारीश्वर की देह होती है. वह यौगिक है. दो तत्वों के योग से बनी हुई देह. अनुभूति व अभिव्यक्ति का योग. कथ्य व शिल्प का योग. अंतर व बाह्य का योग. प्रख्या व उपाख्या का योग. दाना व नादान का योग. जब कृति सामने आती है, तब यह पता नहीं लगाया जा सकता कि ये दोनों तत्व अलग—अलग थे भी क्या. जैसे पानी पीते हुए हाइड्रोजन और ऑक्सीजन का स्वाद आप अलग—अलग नहीं जान सकते. हां, उसकी शीतलता और प्यास बुझाने के उसके गुण को जान सकते हैं. दोनों बहुत महत्वपूर्ण हैं. दोनों का संयोग महत्वपूर्ण है. इसीलए अभिनवगुप्त ने इस संबंध में कहा था-  सरस्वती के दो स्तनों का नाम है प्रख्या व उपाख्या। कलाकार यदि सरस्वती की संतान है, तो वह अपनी मां के दोनों स्तनों से दुग्धपान करता है. क्या कोई यह बता सकता है कि कालिदास, ग़ालिब और नेरूदा में कितनी प्रख्या थी, कितनी उपाख्या थी? उनका नैसर्गिक ज्ञान कितना था व अर्जित ज्ञान कितना? हो सकता है, किसी रचनाकार के जिस ज्ञान को आप उसका नैसर्गिक ज्ञान मान रहे हों, वह उसने बरसों के अभ्यास से अर्जित किया हो? और जिसे आप उसका अर्जित ज्ञान मान रहे हों, वह उसकी स्वाभाविक प्रज्ञा से आया हो, उन भूखंडों से, जहां तक वह कभी गया ही न हो? रचनात्मकता का यह रहस्य कभी भेदा नहीं जा सकता. सिंदूर प्रकरण : मैत्रेयी ने पोस्ट हटाई कहा, किसी स्त्री का अपमान नहीं होना चाहिए, समर्थन में आये कई लोग यहां ​अभिनवगुप्त का पानक याद आता है. यह पुराने ज़माने का कोई शर्बत है, जिसमें गुड़ भी होता है और मिर्च भी होती है. गुड़ और मिर्च, दोनों को अलग—अलग चखा जाए, तो अलग—अलग स्वाद मिलते हैं. लेकिन जब ईख से बने उस शरबत में इनका प्रयोग किया जाता है, तो एक अलग स्वाद मिलता है. वह तीसरा ही कोई स्वाद होता है. इसलिए कृति का स्वाद या रस, उसके इनग्रेडिएंट्स या उपांगों को देखकर नहीं जाना जाता, बल्कि कृति के संपूर्ण प्रभाव को देखने पर ज़ोर दिया जाता है. क्योंकि आपके पास वही आता है. हम तक नेरूदा और मीवोश के प्रभाव आते हैं, उनका होमवर्क नहीं आ सकता. अंग्रेज़ी में इसे गेस्टॉल्ट इफेक्ट कहते हैं. गेस्टॉल्ट जर्मन का शब्द है, जिसका अर्थ होता है संपूर्ण. आधुनिक दर्शन व मनोविज्ञान की एक पूरी शाखा गेस्टॉल्ट पद्धति पर आधारित है. यह पद्धति कहती है कि चीज़ों को उनके टुकड़ों में न देखा जाये, बल्कि उसे एक में देखा जाये. बहुलता को आधार अवश्य बनाया जाये, लेकिन बहुल के समेकित प्रभाव को जाना जाये. दाल को हल्दी, नमक, मिर्च, तड़का के अलग—अलग उपांगों में बांटकर नहीं चखना चाहिए, उसके समेकित प्रभाव को जानना चाहिए. अंत में आपको 'एक' तक पहुंचना ही होगा. यही 'एक' है, जिसकी ओर शंकर ले जाना चाहते हैं, अभिनवगुप्त ले जाना चाहते हैं, और इसी 'एक' तक बुद्ध भी ले जाना चाहते हैं. बुद्ध में अद्वैत है. भरपूर है. इसका एक प्रमाण यह भी कि बुद्ध का एक नाम 'अद्वयवादी' भी है और यह नाम बुद्ध के जीते—जी प्रचलित हो चुका था. और इसी का उल्टा रास्ता पकड़कर चलें, तो देरिदा और बॉद्रिला के विखंडनवाद और संरचनावाद को समझ सकते हैं. प्राचीन भारतीय दर्शन 'बहुत से एक' की ओर ले जाता है, तो आधुनिक यूरोपीय दर्शन 'एक से बहुत' की ओर. तो जब कोई यह कहता है कि नेरूदा नैसर्गिक थे, क्योंकि वह एक बार में लिख देते थे और मीवोश को अपने क्राफ्ट पर मेहनत करनी होती थी, तो हंसी आ जाती है। क्योंकि तब यह पता चल जाता है कि कहने वाला 'बाल' है, वह अभी अपने 'बाल—पने' से नहीं निकल पाया है, भले सत्तर का हो गया हो. यह कैसे पता चलेगा कि किसी ने एक रचना एक ही बार में लिख दी या दस दिन की मेहनत से? और यह पता करने की ज़रूरत भी क्या है? रचना कैसी है, यह क्यों नहीं देखते? एक बार में लिख देने से भी श्रेष्ठ है तो भी अच्छी बात. चार बार लिखने के बाद भी श्रेष्ठ है, तो भी अच्छी बात. तथाकथित नैसर्गिक प्रतिभा से आयी हो या तथाकथित एक्वायर्ड प्रतिभा से, रचना की श्रेष्ठता ही उसका गेस्टॉल्ट है.  महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा की सच्चाई को उजागर करती ध्रुव गुप्त की कहानी ‘अपराधी’ मध्य—युग के एक इतालवी कवि का किस्सा याद आता है : उसका समाज मानता था कि यदि कोई रचना एक ही बार में लिख दी गयी हो, तो वह ईश्वर—प्रदत्त है. यानी उस रचना की श्रेष्ठता निर्विवाद है. कलाकार हमेशा एक निर्विवाद श्रेष्ठता को पाना चाहता है. तो उस इतालवी कवि ने एक दिन घोषणा की कि मैंने यह लंबी कविता कल रात जंगल में प्राप्त की है, एक प्रकाशपुंज दिखा, और उससे यह कविता मुझ पर नाज़िल हुई. उसके समाज ने उस कविता को महान मान लिया. वह थी भी श्रेष्ठ कविता. कुछ समय बाद वह कवि मरा, तो एक स्मारक बनाने के लिए उसके सामान की तलाशी ली गयी. वहां उसकी दराज़ों में उसी कविता के बारह या अठारह अलग—अलग ड्राफ्ट मिले. वह उसे छह साल से लिखने की कोशिश कर रहा था. चूंकि उसका समाज वैसा था, एक निर्विवाद श्रेष्ठता पाने के लिए उसे दैवीय चमत्कार की कल्पना का सहारा लेना पड़ा.

- गीत चतुर्वेदी।

बुधवार, 30 जनवरी 2019

ग़ज़ल, गण हुए तंत्र के हाथ कठपुतलियाँ

गण हुए तंत्र के हाथ कठपुतलियाँ
अब सुने कौन गणतंत्र की सिसकियाँ

इसलिए आज दुर्दिन पड़ा देखना
हम रहे करते बस गल्तियाँ गल्तियाँ

चील चिड़ियाँ सभी खत्म होने लगीं
बस रही हर जगह बस्तियाँ बस्तियाँ

जितने पशु पक्षी  थे, उतने वाहन हुए
भावना खत्म करती हैं तकनीकियाँ

कम दिनों के लिए होते हैं वलवले
शांत हो जाएंगी कल यही आँधियाँ

अब न इंसानियत की हवा लग रही
इस तरफ आजकल बंद हैं खिड़कियाँ

क्रोध की आग है आग से भी बुरी
फूँक दो आग में मन की सब तल्ख़ियाँ

इक नज़र खुश्क मौसम पे जो डाल दो
बोलना सीख जायेंगी खामोशियाँ

रास्ता अपने जाने का रखने लगीं
आजकल घर बनाती हैं जब लड़कियाँ 

प्रश्न यह पूछना आसमाँ से "सुजान"
निर्धनों पर ही क्यों गिरती हैं बिजलियाँ

सूबे सिंह सुजान 

बुधवार, 16 जनवरी 2019

तफ़्ता जी का ख़त महर्षि जी के नाम A letter to mahrish by S.P.TAFTA

आदरणीय तफ़्ता जी ने महर्षि जी को लिखा पत्र।
महरिषः” एक अज़ीम शायर,सिक़ा अरूज़ी और एक हमःजिह्त शख़सीयत ।
                    जिनसे मिलकर ज़िन्दग़ी से इश्क हो जाये,वो लोग
                    आपने शायद न देखे  हों  मगर ऐसे  भी हैं।
मुझे संयोग साहित्य (सहमाही हिन्दी डाइजेस्ट)के सम्पादक श्री मुरलीधर पाण्डेय जी का हुक्म हुआ है कि मैं क़िब्ला “महरिष”, जो इल्मे-अरूज़ और छन्द शास्त्र के प्रकांड विद्वान हैं,की शख़्सियत और अदबी ख़िदमात(व्यक्तित्व एंव कृतित्व)के बारे में कुछ लिखूं । श्री पाण्डेय जी के ख़त ने मुझे सख़्त तज़बज़ुब में डाल दिया और मैं सोचने लगा कि मुझ जैसा मामूली क़तरा, समन्दर के उमुक़ और वुसअत के बारे में आख़िर क्या लिख सकता है ।
             यादश बख़ैर। किब्ला “महरिष” से मेरा क़लमी राब्ता 25 से 30 साल पुराना है लेकिन मज़े की बात ये है, कि आज तक हमने एक दूसरे की शक़्ल तक नहीं देखी। हाँ, ख़तो-किताबत जोरों पर रही और मैं उनसे ग़ायत दर्जे फैज़ियाब भी हुआ और मरते दम तक होता रहूँगा। अरूज़ी बारीकियों के अलावा, मैंने उनसे बहुत से दीग़र मज़ामीन के बारे में दरयाफ़्त किया और माक़ूल जवाबात पाये। उम्मीद है कि ये सिलसिला ताहयात चलता रहेगा।
                             क़िब्ला “महरिष,” डा. “ज़ार” अल्लामी, माहिरे-अरूज़,के तीन जानशीनों (उत्तराधिकारियों) में से एक हैं और इस वक़्त वो ख़ानदाने सह्र- इश्काबादी ( हमारे दादा गुरू) और डा. “ज़ार” अल्लामी के तलामज़ा में न सिर्फ सबसे सीनियर ,बल्कि सबसे मोतबर शायर नीज़ अरूज़ी भी हैं। अगर मैं साफ़ ही कहूँ, क़िब्ला “महरिष,” ख़ानवाद-ए- सह्र इश्काबादी की आबरू हैं। मैं एलानिया कहता हूँ कि क़िब्ला “महरिष” शायरी और अरूज़ नीज़ पिंगल में एक ज़बरदस्त हस्ताक्षर हैं।इनके बहुत से शागिर्द हैं । हालांकि इनकी उम्र नब्बे वर्ष की है, फिर भी वो दिन-रात अदब, ख़ुसूसन इल्मे-अरूज़ के चमन की आबयारी में और अपने शागिर्दों के मार्गदर्शन में, हमःतन मसरूफ़ रहते हैं। इनके दर पर आया हुआ सवाली कभी ख़ाली नहीं जाता! इल्मे-अरूज़ का कोई ऐसा राज़ नहीं है जो इनसे पोशीदा हो। छन्द शास्त्र पर इनकी लिखी हुई छह किताबें हैं, जिनमें इन्होने अरूज़ जैसे दक़ीक़ इल्म को ग़ायत दर्जे रोचक बना दिया है । अरूज़ में ज़िहाफ़ात को रीढ की हड्डी समझा जाता है लेकिन “महरिष” साहब ने ज़िहाफ़ों के पचडे में ज़्यादा न पडते हुये अरूज़ को क़ारईन ( पाठकों) के ज़ह्नों तक पहुंचा दिया है। यूं तो “महरिष” साहब ने क़ितआ,रूबाई,तज़मीन वगैरः की विधाओं(techniques) को सरल तरीके से पाठकों तक बख़ूबी पहुंचाया है, फिर भी इन्होंने ग़ज़ल को ही शायरी की मुख़्तलिफ़ विधाओं में से सबसे अफ़ज़ल माना है और भरपूर कोशिश की है कि दिलों में उतर जाने वाली ग़ज़ल कहने के लिये, शायरों को किन-किन बातों का ख़्याल रखना चाहिये। यूँ भी ग़ज़ल को उम्मुलअसनाफ़ (कविता की सब विधाओं की माँ) कहा गया है। क़िब्ला “महरिष” ने अपनी छह की छह क़ाबिले सताइश क़िताबों में ग़ज़ल के हर पहलू पर अपने आलिमाना विचार क़ारईन(पाठकों) तक पहुंचाये हैं। क़िब्ला महरिष हर ज़ाविये (दृष्टिकोण) से एक मुकम्मल फ़नकार हैं। उस्तादे मोहतरम के ओजस्वी शब्दों में---
                 अनवार-असर बनना बहुत मुश्किल है
                 बेदार  नज़र  बनना बहुत मुश्किल  है।
                 शायर तो कोई शख़्स भी हो सकता है,
                 फ़नकार मगर बनना बहुत मुश्किल है।
            “महरिष” साहब की बेशुमार अदबी खूबियों में उनकी सबसे बडी ख़ूबी यः है कि उनके कलाम में सादगी यानि सलासत बदर्ज-ए-अतम मौजूद है। ज़माने को देखते हुये वो अपने शागिर्दों को आसान और आम फ़ह्म जब़ान में कलाम तख़्लीक़ करने की तलक़ीन फ़रमाते हैं। उन्हें ये इल्म है कि इस ऊर्दू दुश्मन दौर में सक़ील(भारी) फ़ारिसी और अरबी अल्फ़ाज़ नीज़ तराकीब को कौन समझेगा।
            उनका (latest) ख़त मेरे सामने है।मेरे इसरार पर उन्होंने मुझे अपनी एक ग़ज़ल भेजी। मैंने ग़ज़ल के पहले मिसरे (उसका द्वार ही सब कुछ है) को तो यूँ ही रहने दिया , लेकिन  दूसरा मिसरा इस तरह बना दिया यानि “ईशाधार ही सब कुछ है”! हालांकि पूरी ग़ज़ल हिन्दी का लबादा ओढे हुऐ थी,फिर भी क़िब्ला महरिष ने ईशाधार के बारे में यूँ लिखा, “ईशाधार में हिन्दी कुछ ज़्यादा ही है, हिन्दी वाले ऐसा कहेंगे, मैं नहीं !”जिस शख़्स को ईशाधार तक में भरीपन महसूस हुआ हो और जिसको हिन्दी शोरा के मिज़ाज का गहराई से ज्ञान हो, वो भला भारी अल्फ़ाज़ क्योंकर बर्दाशत करेगा।उन्होने दूसरा मिसरा कुछ यूं बनाया, “पालनहार ही सब कुछ है!” और ग़ज़ल को चार चाँद लगा दिये!
अंग्रेज़ी ज़बान में किसी ने ख़ूब कहा है कि-“Brevity is the soul of wit”  इस कहावत को “महरिष” साहब ने अपनी हर किताब में और हर किताब के हर मज़मून में अमली तौर पर साकार कर दिखाया है। इनके कलम से निकला हुआ हर फ़िक़रा अंग्रेज़ी की ऊपर लिखी गई कहावत को पूरी तरह निभाता हुआ नज़र आता है।उनके हर फ़िक़रे की एक ठोस value है जिसमें कुछ न कुछ नया, प्रभावशाली एंव अर्थपूर्ण होता है।  कारी(पाठक) अगर  उनकी रचनाओं और अरूज़ी किताबों को ध्यान से नहीं पढता तो समझ लीजिये कि वो किसी महत्वपूर्ण कथन से वंचित हुआ है।
        महरिष साहब ने अरूज़ी दायरों का ज़िक्र न करते हुये भी हर बहर और उसके मुख़्तलिफ़ औज़ान को क़ारईन (पाठकों) तक बख़ूबी पहुंचाया है।इसे कहते हैं गागर में सागर भरने का हुनर।
        कुछ लोग अरूज़ को बेकार समझ कर उसकी आलोचना करते हैं, येः जानते हुये भी कि छन्दशास्त्र वेदों में वर्णित छह अंगों में से एक है अर्थात शिक्षा, कल्प,निरूक्त,व्याकरण,छन्द तथा ज्योतिष। जब पवित्र वेदों तक ने छन्द शास्त्र को पूर्ण महत्व दिया है तो इसकी अवहेलना करना न्यायसंगत नहीं है। अगरचे, शायरी एक ईश्वरदत्त प्रतिभा है जिसका अरूज़ से कुछ सरोकार नहीं है । यदि हम छन्दोबद्द कविता का सृजन करना चाहते हैं तो अरूज़/पिंगल का ज्ञान होना नितांत आवश्यक है। दरअसल, अरूज़, शायर को केवल स्टैंडर्ड बाट फ़राहम करता है।अगर शेर वज़्न से आरी है तो कविता नीरस।  शायर की मुश्किलें तब और भी अधिक बढ जाती हैं जब हिन्दी अल्फ़ाज़ को सही वज़न के साँचे में ढालना होता है। अगर कविता हिन्दी में कही गई है तब भी हर हिन्दी लफ़्ज़ के सही वज़न का सही तअयुन बहुत जरूरी है, वरना शेर वज़्न से ख़ारिज हो जाएगा। मिसाल के तौर पर “प्रसाद” को अगर हम “परसाद” तथा “प्रकाश” को “परकाश” बाँधते हैं तो शेरः का वज़्न गडबडा जाएगा। अगर हम मृत्यु को “मरतू”, “कृपा” को “किरपा”, “प्रक़ति” को “पकति” बाधँते हैं तो शेरः वज़्न से ख़ारिज हो जाएगा।“प्रक़ति” को “पकति”, “प्रसाद” को “पसाद”, “प्रकाश” को “पकाश” तथा “क़पा” को “कपा” बाँधना ही सही है।हाँ कुछ अपवाद (Exceptions) भी हो सकते हैं “पयाला” फ़ारिसी लफ़्ज़ है और इसका सही वज़्न “फ़ऊलुन” होगा न कि “फ़ेलुन” । और तो और ख़ुदाए सुख़न जनाब़ मीर तकी “मीर” भी “प्यारे” के सही वज़्न “फ़ेलुन” की बज़ाए “फ़ऊलुन” के वज़्न पर बाँध गये जो सरासर ग़लत है।“मीर” का शेर मुलाहिज़ा फ़रमायेः-
        “शिकवए-आबला अभी से “मीर”
        है “पियारे” हनोज़ दिल्ली दूर” ।
ये भी मुमकिन है कि “मीर” ने “प्यारे” को बरवज़्न ‘फऊलुन’ बाँध कर (poetic license)से काम लिया हो जो हर शायर को करना पडता है।
              अरूज़ एक ऐसा ख़ौफ़नाक जंगल है कि जिसमें बडे-बडे दिग्गज भी भटक गये हैं, लेकिन महरिष साहब ने अरूज़ का इस ढंग से सरलीकरण कर दिया है और इसे इस क़दर दिलचस्प बना दिया है कि वो लोहे के चनों की बज़ाए स्वादिष्ट हल्वा बन गया है । उन्होने अरबी बहूर के मुनासिब और रोचक हिन्दी समानार्थ शब्द(Equivalents)देकर साहित्य जगत पर एक लाज़वाल एहसान किया है । अरूज़ में बहूर की कुल तादाद इकत्तीस(31) है। मिसाल के तौर पर उन्होने बहरे-मुतक़ारिब को अभिसार छन्द,बहरे-मुतदारिक को मिलनयामिनी छन्द,बहरे- कामिल को पूर्णिमा छन्द,बहरे-वाफ़िर को सुमन छन्द, बहरे और बहरे-रजज़ को गर्विता छन्द, बहरे रमल को मरूकणिका छन्द, बहरे तवील को विकसित लता छन्द,बहरे मदीद को बहूचर्चिता छन्द,बहरे-मुन्सरिह् को सरला छन्द और मुक़्तज़ब को विरहणी छन्द आदि-आदि। उन्होने बाक़ी बहूर को भी मनोहारी हिन्दी नाम प्रदान किये हैं। शब्द विभाजन और तक़ती (मात्रा गणना) के नियम भी व्यापक तौर पर समझाये हैं। हर्फ़े- वस्ल क्या है और इससे शायर किस प्रकार से लाभान्वित हो सकता है, “महरिष” साहब ने बडे ही रोचक एंव सरल ढंग से समझाया है। उन्होने “तपोवन” शब्द तथा इसकी मक़लूब (उल्टी) सूरतों के ज़रिये इक्त्तीस(31) बहूर के घटकों की सही तरतीब को सरल ढंग से समझाया है। सालिम अरकान (प्राथमिक घटक) और उनके मुज़ाहिफ़ अरकान(परिवर्तित रूप) कहाँ-कहाँ आ सकते हैं, को भी स्पष्ट रूपेण समझाया है।
                 रूबाई की विधा को अरूज़ की दुनिया में आज भी एक डरावनी विधा समझा जाता है। “जोश” मलीहाबादी जैसे अज़ीम शायर और उच्च कोटि के विद्वान ने तो रूबाई के बारे में यहाँ तक कह दिया कि ये कम्बख़्त किसी शायर को पचास साल से कम की उम्र में आ ही नहीं सकती। “रौदकी” को रूबाई की विधा का  मूजिद (अविष्कारक) माना गया है। उसने रूबाई के मूल वज़्न मफ़ऊलु मफ़ाइलुन मफ़ाईलु फ़अल/फ़उल पर समायोजन विधा अर्थात तख़्नीक के अमल से कुल 24 औज़ान निकाले। फिर हमारे दादा ज़नाब सह्र इश्क़ाबादी ने इनमें 12 औज़ान का इज़ाफ़ा किया। उसके बाद उस्तादे-मोहतरम क़िब्ला “ज़ार” अल्लामी ने 18 औज़ान का मज़ीद इज़ाफ़ा किया। इस तरह रूबाई के कुल औज़ान 54 हो गये। उस्तादे मोहतरम ने ये फ़तवा ज़ारी कर दिया कि “अब रूबाई के औज़ान में किसी किस्म के इज़ाफ़े की कोई गुंज़ाइश नहीं है”।क़िब्ला “महरिष” ने रूबाई के औज़ान को ऐसे रोचक ढंग से समझाया है कि लगता है कि रूबाई हव्वा नहीं बल्कि शौरा की दोस्त है। उन्होंने यह भी समझाया कि- जो अक्षर स्पष्ट रूप से पढनें में नहीं आते उन्हें अक्षर गणना करते समय छोड दिया जाता है।  वस्तुतः “महरिष” साहब ने अपने उस्तादे मोहतरम की नादिर तस्नीफ़ “कलीदे-अरूज़”को पढने की तरह पढा तथा समझने की तरह समझा। वो “कलीदे-अरूज़” से प्रभावित ज़रूर हुए लेकिन उनकी ज़ुमला अरूज़ी काविशें उनकी अपनी हैं।
                    ‘ग़ज़ल के विभिन्न स्वरूप नामक’ शीर्षक के अन्तर्गत महरिष साहब ने ग्यारह(11) प्रकार की ग़ज़लों का मिसालों समेत खुलकर बख़ान किया है ये ग्यारह प्रकार की ग़ज़लें जो आजकल प्रचलित हैं, यूँ हैः-  1.स्वतन्त्र अश्आर वाली ग़ज़लें 2. मुसलसल ग़ज़ल 3. नई ग़ज़ल 4. पारम्परिक ग़ज़ल 5. आज़ाद ग़ज़ल 6. यक क़ाफ़िया ग़ज़ल 7. मुस्तज़ाद ग़ज़ल 8. मुसम्मत ग़ज़ल 9. क़ितआ युक्त ग़ज़ल 10. मुरस्सा ग़ज़ल 11. ग़ज़ल सनअते मुतलव्विन में ।
     क़ाफ़िया एक टेढी खीर है ।कोह्नामश्क (स्थापित) शायर,(कवि) भी भारी ग़लतियों का शिकार होकर रह जाते हैं। “महरिष” साहब ने क़ाफ़ियों के दोष ( सिनाद,इक्फ़ा एंव ईता) को मिसालों के ज़रिये पाठकों को समझाया है। इसके अलावा उन्होने बहरे मुतकारिब में अमले- तख़्नीक ( समायोजन विधि) तथा बहरे मुतदारिक में अमले- तस्कीन ( स्थिर विधि ) को भी सरलता के साथ समझाया है। पंजाबी (Folk lore) से आये हुये माहिया एंव माहिया ग़ज़ल नीज़ दोहा एंव दोहा ग़ज़ल के बारे में भी “महरिष” साहब ने खुलकर बहस की है। अपनी अब तक की अन्तिम क़िताब “व्यवहारिक छन्द” शास्त्र में तो क़िब्ला “महरिष” ने  क़लम ही तोड डाला । जैसा कि हम ऊपर लिख चुके हैं उन्होने ऊर्दू और हिन्दी शायरी के किसी पहलू को नहीं छोडा।चाहे  वो चौपाई हो या सवैया हो या फिर दोहा हो। यच तो ये है महरिष साहब की एक-एक किताब पर बेशुमार सेर-हासिल मज़ामीन क़लम बंद किये जा सकते हैं। यूं तो उनकी सभी किताबें एक से बढकर एक हैं फिर भी हम ये कहेंगे कि उनकी किताब ‘व्यवहारिक छन्द शास्त्र’ पढने और मनन करने से तआल्लुक़ रखती है।
             जबकि “महरिष” साहब की छः किताबें अरूज़ के बारे में हैं, मेरी नज़र से उनकी सिर्फ़ एक किताब “नागफ़नियों ने सजाई महफ़िलें” अभी तक गुजरी हैं। मैं समझता हूँ कि उनके पास ग़ज़लियात, क़ित्आत , रूबाईयात और तज़ामीन का एक ख़जाना मौजूद है, जिसको वो जनता के सामने अब तक इसलिये न ला सके कि उन्होने अपनी तव्ज्जो अरूज़ की तरफ़ ज़्यादा दी है।  अपने सैंकडों शागिर्दों के कलाम पर इस्लाह देने और उनका उचित मार्गदर्शन करने के कार्य में व्यस्त रहने के कारण भी वो अभी तक अपने कलामे-बलाग़त निज़ाम को मन्ज़रे-आम तक लाने में असमर्थ रहे।
    हमें उम्मीद है कि “महरिष” साहब हमारी प्रार्थना पर गौर फ़रमा कर अपनी रचनाओं का संग्रह जल्द से जल्द मन्ज़रे-आम पर लायेंगे। हालांकि उनकी कविताओं की पुस्तक “नागफ़नियों ने सजाई महफ़िलें ” में केवल 43 ग़ज़लें एंव 23 तज़मीन ही हैं लेकिन गुणवत्ता की दृष्टि से उनका कलाम और लोगों के कंई –कंई दीवानों पर भारी पडता है। उनके उक्त ग़ज़ल संग्रह में उन्होने “साहिर लुधियानवी” की तरह कडे चयन से काम लिया है। उनकी प्रत्येक ग़ज़ल का एक-एक शेर “मीर”के 72 शेरी निशतरों की बराबरी करता हुआ प्रतीत होता है। बानग़ी के लिये चंद अश्आर मुलाहिज़ा फ़रमायें:-
      “चटपटी है बात लछमन- सी मगर
      अर्थ में  रघुवीर सी  गंभीर  है”।
      “जब चली वात्सल्य रस की बात,
      आ गये  सूरदास  होठों  पर”।
     “ हज़ार ग़जलें कहीं तुमने नाज़नीनों पर,
      कहो कुछ इसपे, ये रोटी का एक टुकडा है”।
     “ इक तरफ दावत ख़िज़ाँ को दे रहा है आदमी,
      फिर बहारों से भी कहता है ठहरने के लिये”।
     “ द्रौपदी दाँव  पर  लगी  “महरिष”
      हार भी किस मुक़ाम तक पहुँची”।
मौलाना “हाली” के लाजवाब मर्सिये के नीचे दिये गये दो अश्आर ज़नाब महरिष पर पूरे उतरते हैं । अश्आर यूँ हैः-
     हमने सबका कलाम देखा है
     हैं अदब शर्त,मुंह न खुलवायें
     ग़ालिबे नुक्तादां से क्या निस्बत
     ख़ाक को आसमां से क्या निस्बत।
अब आगर हम ग़ालिब की जगह “महरिष” ( substitute) करके दूसरे शेर को पढें, तो न तो हक़ीक़त ही कम होगी और न ही ऐसा करना अतिश्योक्ति में शुमार होगा । वाक़ई क़िब्ला “महरिष” जैसी हस्तियाँ युगों में जन्म लेती हैं। उनके बारे में जितना भी लिखा जाये कम है।
       “सफ़ीना चाहिये इस बह्रे-बेकरां के लिये”
       कुछ और चाहिये वुसअत मेरे बयां के लिये”!
“महरिष” साहब हर लिहाज़ से मुजतहिदुल अस्र (Trail blazer) की हैसीयत के अलम बरदार हैं। वो जितने अच्छे इन्सान हैं उतने ही अच्छे मोतबर शायर एंव सिक़ा अरूज़ी भी हैं।उनकी तो आवाज़ भी निहायत खुश आईन्द है। लगता है फ़ोन पर बात करते हुये मुंह से फूल झड रहे हों। ये बातें किसी और के लिये लिखना कद्रे मुश्किल है। हक़ बः हक़दार रसीद ।
 खानदाने-अल्लाम  “सह्र” इश्काबादी मरहूमो मग़फूर कोई बहुत बडा ख़ानदान नहीं है। इसके डाण्डे ऊर्दू के मायानाज़ मर्सिया गो ज़नाब  “दबीर”लख़नवी से मिलते हैं। इस ख़ानदान के हर फ़र्द की एक इम्तियाज़ी हैसीयत ये है कि वो जनता के सामने एक नया तजरिबा रखता है। ख़्वाह वो ग़ज़ल का मैदान हो कि नज़्म का, ख़्वाह वो रूबाई का क्षेत्र हो कि तज़मीन का, हर फ़र्द कुछ न कुछ हट कर पेश करने का हुनर रखता है तथा यही असली फ़नकारी है।
               “हम सुख़न फ़हम हैं “ग़ालिब” के तरफ़दार नहीं”
                                      मज़मून पहले ही काफ़ी तवील हो गया है। इसको मज़ीद तवालत न देते हुये इस फ़क़ीरे-गोशागीर की तहे दिल से बारगाहे- एज़दी में यही दुआ है कि वो क़िब्ला “महरिष” को रहती दुनियां तक सलामत रखे ताकि समन ज़ारे-शायरी और अरूज़ की आबयारी होती रहे। मैं इस मज़मून को हाली के ज़ैलदर्ज शेर पर ख़त्म किया चाहता हूँ।
  > बहुत जी खुश हुआ “हाली” से मिलकर
   अभी कुछ लोग बाक़ी है जहाँ में ।
                                 आमीन सुमआमीन
                                प्रो.सत्य प्रकाश शर्मा “तफ़्ता” “ज़ारी”
                                ज़ानशीन डा. “ज़ार” अल्लामी
                                कुरूक्षेत्र (हरियाणा)
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गुरुवार, 10 जनवरी 2019

भारतीय संस्कृति को क्षत विक्षत करती यूरोपीय संस्कृति

भारतीय  संस्कृति को वैसे तो यूरोपीय व पाश्चात्य संस्कृति बहुत समय से नुकसान पहुँचा रही है  लेकिन पिछले गुजश्ता दस बरसों से बहुत ही तीव्र गति से नुकसान हो रहा है जैसे जैसे संचार के साधनों का तंत्र विस्तार रूप ले रहा है तैसे तैसे पाश्चात्य संस्कृति की आँधी भी तेज गति से आ रही है जो कि भारतीय संस्कृति के उस पहलू को नष्ट कर रही है जिसमें भारत के नागरिक  अपने  बच्चों को वह शिक्षा देते थे जिसमें व्यवहारिक काम करने, बडों का आदर करना, सबको एक बराबर नजर से देखना, दूसरों के दर्द को समझना, सभी प्रकार के जीव जन्तुओं में जीव भाव देखकर नुकसान न पहुँचाना , समय के साथ व मौसम के व्यवहार के साथ जीवन को संचालित करना, दूसरों को हराने की नहीं वरन साथ लेकर चलने की पंरपरा में जीना, अपनी खाद्य सामग्री को वर्ष भर के लिये एकत्रित करके रखना अर्थात प्राकृतिक साधनों का अनावश्यक रूप से दोहन न करना और सादा जीवन उच्च विचार के साथ जीवन व्यतीत करना आदि आदि ।

                                                                                          आज भारतीय संस्कृति के यह मूल्य नष्ट हो रहे हैं बच्चे काम करने की पंरपरा से दूर होते जा रहे हैं वे केवल स्वंय के लिये काम करते हैं और वह भी केवल एक समय तक के भोजन की चिंता करना अगले पल के लिये सोचते ही नहीं जिससे महामारी व मौसम की विपदाओं के समय मनुष्य कैसे अपना बचाव करेगा यह गम्भीर समस्याओं में से एक हो रही है सहनशीलता समाप्त होती जा रही है नये बच्चे साधारण सी बात पर  अपना धैर्य खो देते हैं जिससे मानव मूल्यों का पतन हो रहा है सहनशील होना मनुष्यों का समरसता का गुण है जो मानव को मानव बनाये रखता है वरना तो मानव पशु बना जाता है ।
                 प्रकृति में मनुष्य ही सभी पशु पक्षीयों के लिये मानक तय करता है पूरी पृथ्वी पर मनुष्यों ने ही कब्जा कर रखा है सभी संसाधनों को अपनी मर्जी से इस्तेमाल कर रहा है जबकि प्रकृति ने सभी संसाधनों को सभी जीव जन्तुओं के लिये बराबर बनाया है लेकिन मनुष्य सभी का हक अकेले खा रहा है िस प्रकार से मनुष्य सबसे खतरनाक प्राणी है जो प्रकृति को नष्ट कर रहा है ।

                                                                                      सभी प्रकृातिक खतरों को देखते हुये कहना न होगा कि हमें पूरे विश्व को पुरातन भारतीय संस्कृति की शिक्षा देनी जरूरी हो जाती है जो संस्कृति मनुष्य को मानव बना कर रखती है और प्रकृति के साथ तालमेल करके जीवन बसर करने को प्रेरित करती है भारतीय संस्कृति  का इतिहास मानव समाज में सबसे पुराना है इसलिये ही भारतीय संस्कृति सबसे लम्बी अवधि की रही है क्योंकि इसमें सहनशीलता अधिक ही है प्राकृतिक संसाधनों के साथ, मौसमों के साथ अधिक तालमेल के साथ जीवन यापन किया गया है इस संस्कृति पर सुविधाभोगी संस्कृति ने ही हमला किया है यूरोपीय व पाश्चात्य संस्कृति केवल सुविधाभोगी है जो कि मानव को अपनी सुविधा के लिये सभी संसाधनों को नष्ट करने को प्रेरित करती आ रही है जिससे वर्तमान समय में तीव्र गति से समाज सुविधा के मोहपाश में बंधकर पृथ्वी को ही नष्ट करने के मुहाने पर आ खडृा हुुआ है भारतीय संस्कृति को सुविधाओं की पाश्चात्य संस्कृति ने हानि पहुँचायी है विश्व को बचाने के लिये भारतीय संस्कृति को अपनाना बेहद जरूरी हो जाता है ।

                                                                                                                सूबे सिंह सुजान
                                                                                                         कवि व शिक्षक
                                                                                                              कुरूक्षेत्र
                                                                                                                हरियाणा 

बुधवार, 9 जनवरी 2019

कविकर्म हिज़्र शायर को बाँध लेता है । शायरी ऐसे जीत लेती है ।। सूबे सिंह सुजान


हिज़्र शायर को बाँध लेता है। शायरी ऐसे जीत जाती है ।।

              कवि से अपनी बात कहलवाने के लिये कुदरत कवि को अचानक उदास कर देती है उसे दर्द देती है उसे सबके बीच में अकेला कर देती है फिर कवि और कुदरत आपस में बातें करते हैं और कविताओं का जन्म होने लगता है जैसे आकाश में तीव्र उष्णता के पश्चात बादलों का जन्म होता है और फिर बादलों से पानी बरसने लगता है और फिर पानी बरस कर नदी को जीवन देता है पेड़ पौधों की प्यास बुझाता है सारी प्रकृति को हरित कर देता है कविता होने में कुदरत  यही प्रक्रिया कवि के माध्यम से दोहराती है कवि कभी ख़ुद के लिये जीवन नहीं जीता है वह समाज, परिवेश,वातावरण के लिये जीता है वह अपने सुख त्यागता है और लोगों के सुख देखकर ही सुखों का एहसास कर लेता है और दुखों को ग्रहण कर लेता है यह कवि के जीवन का अभिन्न अंग है ।  



                                                    सूबे सिंह सुजान 


मंगलवार, 1 जनवरी 2019

NAZAM, NAYA SAL...नज़्म, नया साल

नज़्म      नया साल

इन दिनों पिछले साल आया था
पेड़ की टहनी पर नया पत्ता
वक्त की मार से हुआ बूढ़ा
आज आखिर वह शाख से टूटा ।

 जन्मदिन हर महीने आता था
और वो और खिलखिलाता था
 वो मुझे देख मुस्कुराता था 
मैं उसे देख मुस्कुराता था  ।

जिन दिनों वो जवान होता था 
पेड़ पौधों की शान होता था 
उस तरफ सबका ध्यान होता था 
और वो आंगन की शान होता था  ।

उसके चेहरे में ताब होता था
मुस्कुराना गुलाब होता था 
और बदन पर शबाब होता था
हर जगह कामयाब होता था  ।

धीरे धीरे वो फिर पड़ा पीला
क्यों हुआ ऐसा कुछ नहीं समझा
पहले तो एक दाँत ही टूटा
फिर हुआ उसका तन -बदन झूठा ।

हर कोई दिल को तोड़ जाता है
आँसुओं को निचोड़ जाता है
साथ आखिर में छोड़ जाता है
फुर्र से वक्त दौड़ जाता है ।

वक्त की नींद धीरे से टूटी
मेरी अस्मत तो वक्त ने लूटी
मैं गिरा तो मेरी जगह छूटी
फिर मेरे बाद कोंपलें फूटी ।

सूबे सिंह  "सुजान"

कुरूक्षेत्र,हरियाणा ।
9416334841

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