मंगलवार, 25 जनवरी 2022

ग़ज़ल- ज़मीं पे चाँद कभी भी उतर नहीं सकता

 ज़मीं पे चाँद कभी भी उतर नहीं सकता

निज़ाम ए आसमां कभी भी बिखर नहीं सकता।


वो मेरे दिल को दुखाने की बात करते हैं,

तो क्या मैं थोड़ा सा गुस्सा भी कर नहीं सकता?


मैं ही ज़मीं, मैं ही सूरज और आसमां भी मैं,

मुझे ही मुझसे अलग कोई कर नहीं सकता।


हरेक कण में , हर आवाज में भी मैं ही मैं,

मैं अपने आप से तो यार डर नहीं सकता।


मुझे सुखा लो, भिगो दो,जला के भी देखो,

मरा मराया हूँ,तो फिर और मर नहीं सकता।


सूबे सिंह सुजान कुरूक्षेत्र हरियाणा

ग़ज़ल Ghazal

 एक बग़ैर मतले की ग़ज़ल हुई है। आप हर एक शेर पर ग़ौर कीजिएगा।


वक्त से जो कभी न मांगा था,

वक्त ने,सब वही दिया हमको।


कोशिशें तो जवान रहती हैं,

देती रहती हैं रास्ता हमको।


बेवफा, वक़्त ही तो होता है,

जो बनाता है बेवफा हमको।


मेरे ख्वाबों में वो नहीं था मगर,

आज रस्ते में मिल गया हमको।


हम गरीबों के ज़ख्म ऐसे हैं,

जिंदा रखता है, हादसा हमको।


हार, हमने कुबूल कर ली थी,

था मुकद्दर में जीतना हमको।


प्यार में तो परख़, लिया तुमने,

दुश्मनी से भी सोचना हमको।


शक्लें ही तो अलग अलग अपनी,

पर, बनाया है एक सा हमको।


सूबे सिंह सुजान