रविवार, 27 मई 2012

जो है शायद उसे ऐसा ही होना था।

पत्थर अभाव में पलता है या यही उसका सही जीवन है अर्थात पत्थर को पत्थर बनने का उपयुक्त वातावरण जरूरी है,अगर यह वातावरण उसे नहीं मिला तो फिर वह पत्थर नही बनेगा। यह विचारों का क्रम ही नये विचार प्रस्तुत कर देता है हम हमेशा किसी न किसी को दोष देते हैं अभावों के लिये, लेकिन गम्भीरता से सोचने पर ज्ञात होता है कि जो स्थिति हमारी है हम उसे दोष देते रहते हैं, दूसरी स्थिति  को प्राप्त करने के लिये, लेकिन सत्य यह है कि जब हम किसी नयी स्थिति को प्राप्त होते हैं समस्याऐं उस समय भी अपने नव रूप में हमारे सामने होती हैं यह क्रम सदियों से अनवरत जारी है।
                                                                   सूबे सिहं सुजान

शुक्रवार, 25 मई 2012

तरही ग़ज़ल ( एक अलग अंदाज में)

यह ग़ज़ल मैंने कुछ परिधि से हटकर लिखने की कोशिश की है हालांकि कंही-कंही पर छन्द व बहर में अडचन वगैरह का ठहराव उस्ताद को खल सकता है। लेकिन मुझे इस ग़ज़ल को लिखते समय कुछ ऐसा अनुभव हुआ कि इसे इसके कच्चेपन के साथ ही प्रस्तुत करूँ। मैं इस ग़ज़ल की धुन पर सवार रहा उस्ताद कहतें हैं कि अपनी ही रचना का दुश्मन बन कर उसे दुरूस्त किया जाना चाहिये,हालांकि यह तथ्य अपनी जगह सहीह है।

 

जीवन की डगर ऐसी, कठिन भी है सुगम भी

हर मोड मिलेंगे यहाँ ,सुख भी और गम भी….

दुनियाँ में   अधिक  लोग  रहे  मध्य   हमेशा,

जायेंगे  किनारे   जो,  सहेंगे   वो  सितम  भी…..

गहरायी जमीं की कभी बादल नहीं समझा,

गरजा भी बहुत, आखि़र बरसा,छम-छम भी….

जो  इनको  निभा  जाए  कलाकार  वही  है,

रिश्तों की बनावट में है नफ़रत भी रहम भी…

टकराव   जरूरी है  मगर  थोडे   समय  का,

टकराती  रही  जैसे कि  पूर्व  – पश्चिम  भी….

मज़हब से अधिक भूख असर करती है सब पर,

मैंख़ाना भी वीराँ है,कलीसा भी हरम भी….

जो मांगे नहीं मिलता उसे पाकर खुश हैं,

इस प्यार की खातिर हम तोडेंगे क़सम भी…

                                                सूबे सिहं सुजान

गुरुवार, 24 मई 2012

हम सबकी  गाडी-

बिना ड्राइवर के गाडी चलती देखी
वहां रिमोट भी नही है.....
कुचल रही है राहगीरों को,तोड रही है हरे पेडों को,
लेकिन गाडी रूकती नहीं है।
कुछ लोग अकेले से हैं,जो रोकने चले थे
मगर वो मंहगा पैट्रोल भी खरीद लेती है
रेत को ऊँचे दामों पर बेच देती है
ड्राइवर ये काम नहीं करता,
लेकिन उसका क्लंडर हर जगह माहिर है
पट्टी बाँध कर उसकी आँखों पर,
दौडाये जाता है क्लंडर
पीछे उडता है धूल का भवंडर
मगर लोग फिर मुंह साफ करते हैं
और अपने काम पर लग जाते हैं

tarannum ki sair तरन्नुम की सैर

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सोमवार, 21 मई 2012

हवा और सूरज

दिन गर्म हो जाए तो शाम को हवा घुमडती है

गरमी के व्यवहार पर खूब बिगडती है

कईं बार तो ज्यादा ही झगडती है

रात भर साथ अंधेरे के साथ रहती है,हल्की-हल्की

सुबह फिर सूरज को पकडती है

सूरज अपने आप से खुश है

वह नहीं हवा को देख,छू पाता

उसे सुख-दुख का नहीं मालूम

परन्तु हवा जानती है

शब्द

शब्द चलते हैं

अपने –आप,चल कर हर जगह पहुँचते हैं

जहाँ जाना चाहते हैं

बिन पाँव सब काम कर देते हैं

मन को दुखाना, मन को प्रसन्न  करना

मन को डराना,विजियता लाना,अभेद करना

हर तरह के सब काम करते हैं

शब्द तुम तो परमात्मा हो,

जो सब कुछ जानता, करता है

सोमवार, 14 मई 2012

कवि सम्मेलनः रिपोर्ट-अदबी संगम कुरूक्षेत्र की मासिक काव्य गोष्ठी एक नजर में

दिनाँक 13 मई 2012 को सांय पाँच बजे सदाकत आश्रम कुरूक्षेत्र में अदबी संगम साहित्य संस्था की मासिक काव्य गोष्ठी का आयोजन सूबे सिंह सुजान की अगुवाई में और इन्द्रजीत इस्सर की अध्यक्षता में सफल आयोजन किया गया। गोष्ठी का संचालन डा. राकेश भास्कर जी ने किया जो स्वयं हास्य कवि के रूप में अपनी पहचान बना चुके हैं। सर्वप्रथम डा. संजीव कुमार ने अपनी ग़ज़ल से यूँ आगाज किया-वो फूल हाथों में कभी पत्थर लिये हुये,आता है मेरे दर पर मुकद्दर लिये हुये।संजीव के बाद कवियत्री शकुंतला शर्मा ने अपनी कविता में कहा –माँ एक शब्द नहीं समंदर है माँ की दुनिया में ही बच्चों की दुनिया है।,डा. सत्या प्रकाश “तफ्ता” जी ने एक नई विधा को विकसित किया है जो बहुत ही खूबसूरत और कठिन भी है जिसका विकास ग़ज़लों के छन्दों से ही हुआ है यह बहुत ही संक्षिप्त है और इसमें एक बात को ही रखा जाता है तान पंक्तियों में पूरी बात को लयात्मक व छन्दात्मक रूप से कही जाती है। इसका नाम है  “माहिया”  उनके तीन माहिये देखिये 1. सचमुच था बडा आकिल, कन्धा भी दिया मुझको, रोया भी मेरा कातिल । 2.क्या खूब उजाले हैं,  हिन्द की किस्मत में , रिश्वत है घोटाले हैं । 3.उपवन भी नहीं होगा, जो पेड नहीं होगा , जीवन भी नहीं होगा।।  सुजान ने कहा-  गर्दन तो घूमती है घुमाना भी चाहिये,अकडो न इतने सर को झुकाना भी चाहिये,जब काम प्यार से भी बनाये नहीं बने, फिर आसमान सर पे उठाना भी चाहिये…विनोद कुमार धवन ने घर नामक कविता मे मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया—लोगों ने जब बार-बार कहा कि आपका छोटा सा घर है,तो मुझे भी लगने लगा कि मेरा घर छोटा है। गोष्ठी में अन्य कवि—डा. बलवान सिहं,सुधीर डांडा,रमेश कुमार शर्मा,दोस्त भारद्वाज,  ने अपनी रचनायें पेश की। यह सारा कार्यक्रम सदाकत आश्रम के संचालक स्वामी सत्य प्रेमी के सान्धिय में सम्पन हुआ।

                                                                                                                                     रिपोर्ट—सूबे सिंह सुजान

मंगलवार, 8 मई 2012

पिता की बीमारी ( लघुकथा)

पिता को हमेशा ऐसा लगता है कि मुझे ही सबसे ज्यादा रोग है बाकी परिवार में व संसार में सब ठीक हैं। पल में वह कहने लगते हैं कि मैं तो मरने वाला हूँ और कुछ देर बाद ठीक हो जाते हैं और कभी-कभी तो कसी लेकर खेत में काम करते नजर आते हैं लेकिन अब लगभग अस्सी की उम्र में भी वे इसी तरह व्यवहार करते हैं दुनिया भर की दवा खा चुके हैं लगभग हर सप्ताह वह डाक्टर बदल देते हैं एक समय में वह दो या तीन डाक्टरों की दवा खाते हैं वह दन भर में मुश्किल से एक दो बार ही खुश होते हैं। जबकि अधिकतर समय वह गुस्सा प्रकट करते रहते हैं उनसे जब कोई काम नहीं बनता होता है फिर भी वह खेत या घर के अन्य काम के बारे में पूछते रहते हैं जब उन्हें दर्द होता है उस समय में भी वह काम के बारे में आराम से पूछ लेते हैं यदि उनके सामने मैं अपना बाहर का काम छोड कर उनके सामने कोई भी कठोर काम करने लग जाऊँ तो पल भर बाद यह देखकर उनका दुख कम हो जाता है। डाक्टर इसे मानसिक रोग कहते हैं लेकिन यह अजीब प्रकार का रोग है कि वह मेरे कहने से  अच्छी बात नहीं मानते लेकिन किसी अन्य के कहने पर उसी बात को मानने लगते हैं। यह मानसिकता पिता की अगर हो तो पुत्र का क्या हाल होता है। उम्र कैसे गुजरती है, असली दर्द किसको होता है, इस तरह के बहुत से सवाल जीवन को खींचते हैं ।

                                                                                                                                                                                                       सूबे सिंह सुजान

                                                                                                                                                                                                         कुरूक्षेत्र

बुधवार, 2 मई 2012

INDIAN VILLAGER WOMEN.भारतीय ग्रामीण औरतों का एक व्यवहार….

भारतीय ग्रामीण औरतों में आज भी एक व्यवहार देखने को मिलता है हालांकि पहले से बहुत बदलाव आज के समय में आ चुके हैं परन्तु इस तरह का व्यवहार आज भी हर जगह अक्सर देखने को मिल जाता है। काफी हद तक यही व्यवहार शहरों में भी है मैंने  अक्सर देखा है कि जब कोई पुरूष मोटरसाईकिल या कार से जा रहा हो तो ये औरतें उस पूरूष से अपेक्षा करती हैं कि वह खुद गाडी को रोके और उसे बैठा ले, कईं मामलों में ऐसा होता है हालांकि सभी में नहीं। और जब वह पुरूष बिना गाडी रोके चला जाता है तो वह उक्त पुरूष को गाली देती है कि उसने गाडी नहीं रोकी,दूसरा पहलू यह है कि यदि कोई पुरूष स्वयं गाडी रोक कर बैठने के लिये आग्रह करे तो वह उसे फिर भी गाली देती है कि मुझे छेडता है,मेरे साथ अभद्रता का व्यवहार करता है

 

यह पहलू उस जगह लागू होता पाया गया है जहाँ पर पुरूष की गलत इच्छा नहीं थी हालांकि यह तथ्य ज्यादा सटीक है भारतीय परिवेश में कि पुरूष की इच्छा स्त्री पर अधिकतर गलत रहती रही है,हाँ आज इस सोच में काफी बदलाव आ चुका है। लेकिन जिस सन्दर्भ में हम बात कर रहे हैं उसमें यह पाया गया है कि स्त्रियाँ बडी विडम्भना में अपनी इच्छा जाहिर कर पाती हैं मुझे लगता है यही कारण रहा है कि भारतीय पुरूष ने इसीलिये औरत को अधिकतर चंचला या बेवफा होने का ओहदा दिया है। हालांकि मुझे ऐसा लगता है कि भारतीय पुरूष का स्त्री के प्रति अति घिनौनी सोच के कारण ही स्त्री में इस तरह के व्यवहार उत्पन्न हुआ है यह व्यवहार स्त्री ने विपरीत परिस्थितियों में स्वयं को कष्टप्रद स्थिति में ढालते हुये लागू किया है

मंगलवार, 1 मई 2012

मित्रों उस्ताद शायर डां सत्य प्रकाश तफ्ता जी की ग़ज़ल पेश है।
(जू-बहरीन,ब-क़ैद चहार क़ाफि़येतैन)
जब पडी उनकी नजर ,तब हुई अपनी खबर
चल सकें जिस पर सभी, कब बनी ऐसी डगर?
जब मिले दुनिया से गम, तब बनी पैनी नजर
टूटने में दिल मिरा,   कब रही कोई कसर?
हो गया जब ख़ूने-दिल,तब मिली दिल की खबर
चीर देती है ये दिल,कब हुई किस की नजर?
हर खुशी धुंधला गई, जब हुई गम की सहर
प्यार ताजा हो गया, जब पडी पहली नजर
खुल गये सब रास्ते, जब पडी तिरछी नजर
हो गये सीधे सभी, जब खुली दिल की डगर
          " तफ्ता" किस्मत फिर गई
           जब फिरी उनकी नजर
बहूर- रमल(सालिम महजूफ़)
        रजज़ (मरफ़ूअ़ सालिम)