पिता को हमेशा ऐसा लगता है कि मुझे ही सबसे ज्यादा रोग है बाकी परिवार में व संसार में सब ठीक हैं। पल में वह कहने लगते हैं कि मैं तो मरने वाला हूँ और कुछ देर बाद ठीक हो जाते हैं और कभी-कभी तो कसी लेकर खेत में काम करते नजर आते हैं लेकिन अब लगभग अस्सी की उम्र में भी वे इसी तरह व्यवहार करते हैं दुनिया भर की दवा खा चुके हैं लगभग हर सप्ताह वह डाक्टर बदल देते हैं एक समय में वह दो या तीन डाक्टरों की दवा खाते हैं वह दन भर में मुश्किल से एक दो बार ही खुश होते हैं। जबकि अधिकतर समय वह गुस्सा प्रकट करते रहते हैं उनसे जब कोई काम नहीं बनता होता है फिर भी वह खेत या घर के अन्य काम के बारे में पूछते रहते हैं जब उन्हें दर्द होता है उस समय में भी वह काम के बारे में आराम से पूछ लेते हैं यदि उनके सामने मैं अपना बाहर का काम छोड कर उनके सामने कोई भी कठोर काम करने लग जाऊँ तो पल भर बाद यह देखकर उनका दुख कम हो जाता है। डाक्टर इसे मानसिक रोग कहते हैं लेकिन यह अजीब प्रकार का रोग है कि वह मेरे कहने से अच्छी बात नहीं मानते लेकिन किसी अन्य के कहने पर उसी बात को मानने लगते हैं। यह मानसिकता पिता की अगर हो तो पुत्र का क्या हाल होता है। उम्र कैसे गुजरती है, असली दर्द किसको होता है, इस तरह के बहुत से सवाल जीवन को खींचते हैं ।
सूबे सिंह सुजान
कुरूक्षेत्र
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