सोमवार, 28 अक्तूबर 2019

ग़ज़ल - अपने ग़म की जबान भी तो नहीं

अपने ग़म की जबान भी तो नहीं चोट का कुछ निशान भी तो नहीं हर जगह रहने के बहुत ग़म हैं अपना कोई मकान भी तो नहीं किस तरह आपका मैं हो जाता आपको मेरा ध्यान भी तो नहीं जीत भी आपकी है तय,लेकिन आपका इम्तिहान भी तो नहीं ग़म मुझे बेहिसाब मिलते हैं बेच देता दुकान भी तो नहीं हर जगह गन्दगी,कहाँ जाऊँ? साफ ये आसमान भी तो नहीं आप पर मैं जता रहा हूँ जबकि आपका एहसान भी तो नहीं । मेरा सब कुछ तुम्हारा ही तो है आपको इत्मिनान भी तो नहीं मेरे अन्दर मैं जी रहा हूँ बस ये कोई तेरी जान भी तो नहीं । नाम ही से सुजान कहलाया आदमी ये "सुजान" भी तो नहीं सूबे सिंह सुजान

मंगलवार, 22 अक्तूबर 2019

हार, जीत पर अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रखना सीखना चाहिए ।

हारने वालों को कभी निराश नहीं होना चाहिए और जीतने वालों को खुश तो होना चाहिए लेकिन खुशी में कभी किसी का अपमान नहीं करना चाहिए । हार ,जीत जीवन के प्रत्येक किस्से में नुमायाँ होती है वो चाहे कोई भी खेल हो या प्रतियोगिता हो या चुनाव हो या व्यक्ति का निजी जीवन में निर्णय लेना, किसी भी रास्ते का चयन करना या भावनाओं के स्तर पर प्रेम की सफलता, विफलता पर हार्दिक स्तर पर घात, प्रतिघात लगना या लगाना यह खेल जीवन का हिस्सा होते हैं अर्थात आप कह सकते हैं जीवन इन्हीं से मिल कर बना है जीवन जीने के तरीके हैं जीवन को जीने में व्यस्त रखने के तौर तरीके हैं और इनसे हम कभी दूर नहीं होते इनसे दूर कुछ संत लोग हो सकते हैं वे भी तब, जब वे सृष्टि की वास्तविकता को समझ लेते हैं यह स्थिति गहन दार्शनिक होती है जो संत लोग यहाँ तक की वैचारिक, बौद्धिक स्तर पर पहुँच पाते हैं वे जीवन निर्माण की प्रक्रिया को जान चुके होते हैं अर्थात जिस प्रकार कोई वैज्ञानिक किसी भी पदार्थ की खोज करता है और उसके निर्माण के सभी तत्वों,प्रक्रिया व गुण, अवगुण को समझ चुका होता है वह उसका ज्ञानी, ज्ञाता हो जाता है उस स्थिति में वह उस पदार्थ को जान चुका होता है तो वह उसके मोह ,लोभ,लालच,प्रेम,निराशा जैसी भावनाओं से ऊपर उठ जाता है उसी प्रकार संत लोग जीवन के ज्ञाता हो जाते हैं वे जीवन निर्माण की प्रक्रिया में आनंदित होकर व्यर्थ की वस्तुओं का त्याग कर देते हैं । खैर । हमें जीवन में हारने पर अपनी भावनाओं पर नियंत्रण करना व जीतने पर भी अपनी भावनाओं पर नियंत्रण करना सीखने का निरंतर प्रयास करना होता है यह सबसे नाजुक सीखने की प्रक्रिया होती है जीवन सीखने से प्रारंभ होकर अंत समय तक सीखने की प्रक्रिया ही तो होती है यह सीखने की प्रक्रिया केवल मनुष्यों में ही नहीं होती अपितु हर जीव में होती है सभी जीवों में तो होती ही है साथ ही साथ सजीव, निर्जीव पदार्थों में भी होती है सभी पहाड़ों,नदी नालों,ईंट,पत्थर,रेत,खनिजों आदि में भी सीखने की प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है सीखने की प्रक्रिया जीवों व निर्जीव में एक समानता पैदा करती है । मनुष्यों को अन्य प्राणियों की अपेक्षा अधिक बुद्धिजीवी व संवेदनशील कहा गया है यह किसी अन्य जीव ने तो कहा नहीं है मनुष्य ने ही कहा है तो यह एक पक्षीय निर्णय भी कहा जा सकता है मनुष्य अपने स्वार्थों का प्रयोग करने के लिए पृथ्वी के सभी जीवों के हिस्सों को खा जाता है जबकि प्रकृति ने सभी जीवों को एक समान अधिकार प्रदान किए हैं । हमारी संवेदनशीलता हमें अन्य प्राणियों के प्रति दुर्व्यवहार न करने के लिये प्रदान की गई है जिसे समझने के लिए हर मनुष्य की प्रकृति भिन्न भिन्न होती है यही संवेदनशीलता हमें बुद्धिजीवी का स्तर प्रदान करती है बौद्धिक स्तर पर मनुष्यों द्वारा चतुरता को अपना कर धोखा देना,दूसरों को लूटना एक प्रकार का बौद्धिक स्तर कहा जाता है लेकिन यह मनुष्यता की कमजोरी है । हमें सीखने की प्रक्रिया में हार पर हार्दिक स्तर पर भावनाओं पर नियंत्रण रखना व जीतने पर भी अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रखना सीखना चाहिए यह वर्तमान समय में बहुत अधिक जिम्मेदारी से सीखने,सीखाने की प्रक्रिया है जिस पर बल दिया जाना जरूरी होता जा रहा है चुनावी मौसमों में हमें यह खासतौर पर ध्यान देना चाहिए कि किसी जीतने वाले लोगों को कभी हारने वालों को जानबूझकर इंगित करके अपमानजनक शब्द, व्यवहार नहीं करना चाहिए यदि ऐसा व्यवहार किया जाता है तो यह व्यवहार वैमनस्य को पैदा करता है जो जीवन हानि तक चला जाता है ।

सरकारी तंत्र व निजीकरण एक विश्लेषण

निजीकरण एक ऐसा सच बनता जा रहा है जिसका कोई इलाज नहीं है अगर इसका इलाज है तो वो खुद निजीकरण है क्योंकि सरकारों में कोई हिम्मत नहीं रही कि वे सिस्टम्स को ठीक कर सकें और सरकार में पहली भूमिका नेताओं की है तो दूसरी उच्च अधिकारियों की है और तीसरी सामान्य कर्मचारी की जो हर वक्त काम करता है जिस पर सारा बोझ लदा रहता है लेकिन अफसोस इस बात का है कि ऊपरी दोनों श्रेणी के लोग सारे देश की मलाई खाते हैं और तीसरी श्रेणी के लोग सारा बोझ उठाते हुए भी काम करते रहते हैं अब मनोवैज्ञानिक आधार की बात बुद्धिजीवी करते रहते हैं लेकिन उस पर अमल कोई नहीं लाता है अब ऐसा लगता है लोग मोबाइल जैसी भयंकर बीमारी के वशीभूत हो चुके हैं यह टेक्नोलॉजी है जिसे सब अच्छा ही कहते रहे हैं और काम करने,सही उत्पादन,सही मूल्य,सही शुद्धता को कोई नहीं जानता बस मोबाइल में व्यस्त हैं बच्चों को जन्म होते ही पकड़ा दिया जाता है ताकि बहुत जल्दी से मर सके तो बात यह हुई कि हम जैसा करते हैं वैसा ही परिणाम मिलता है यह सच है गीता में हजारों वर्षों से कह दिया गया है और यही नियम है तो हम सब कुछ करना ही नहीं चाहते बच्चों को किसी काम को हाथ ही नहीं लगाने दे रहे हैं तो वो क्या सीखेंगे?जो सीखा रहे हैं वही न तो अर्थ यह निकलता है कि निजीकरण में हम मजबूरी वश काम सही करने लगते हैं व सरकारी में मनोवैज्ञानिक रूप से लूट करने का प्रयास ऊपर से नीचे तक चलता है इसलिए सरकार कोई भी आये यह निजीकरण तो होगा ही प्रजातंत्र में यदि सरकारी तंत्र में सार्वजनिक सेवाओं को जिंदा रखना चाहते हैं तो इसके लिए सरकारी तंत्र में काम करने वाले लोगों को ज़मीर से जिंदा होना पड़ेगा हाल फिलहाल वहाँ ज़मीर मरा हुआ है

मंगलवार, 8 अक्तूबर 2019

दशहरा पर्व पर भारतीय संस्कृति एवं बौद्धिकता पर आलेख

*दशहरा पर्व पर भारतीय संस्कृति ,बौद्धिकता के संदर्भ में सूबे सिंह सुजान का आलेख* इस देश में मानव के हर प्रकार के व्यवहार को संस्कृति, त्योहार में ढाला गया है इसका अर्थ यह है कि मानव का यह व्यवहार प्रारंभ से ऐसा ही है और ऐसा ही रहेगा , हाँ केवल वस्तुएँ,तकनीक बदलती हैं । रावण,राम, सब हमारे चरित्र हैं यह त्योहार हमें प्रतिबिंबित करते हैं हम स्वयं को विद्वान प्रदर्शित करते हुए हर पुरातन कथा, ग्रंथ आदि में कमियाँ निकालते हैं न कि हम विद्वान ही होते हैं दरअसल हम कंई बार वास्तविकता को पूर्णतः समझ पाने में असमर्थ होते हैं सबकी बुद्धिलब्धि अलग अलग स्तर पर रहती है यह प्राकृतिक ही है हम कोई इंजेक्शन देकर किसी का बुद्धि स्तर नहीं बढ़ा सकते केवल शिक्षा ही एक जरिया है और यह बौद्धिक है न कि तकनीकी । मनुष्य प्रकृति से ही हर ज्ञान प्राप्त करता रहा है और रहेगा वास्तव में मनुष्य का अपना निर्माण कुछ नहीं है सब कुछ प्रकृति से ग्रहण करता है । © सूबे सिंह सुजान