मंगलवार, 29 दिसंबर 2020

व्यंग्यबाण, मंच की गरिमा- सुनील जश्न

 मंच काव्य की गरिमा पिछले दस बरसों में इतनी ज़ियादा गिरी है कि लोग मंचीय कवियों की तुलना भांडों और तवायफों से करने लगे हैं ।इसके पीछे के प्रमुख कारणों में से एक दो का ज़िक्र मैं यहां करना चाहूँगा । सबसे बड़ा कारण तो एक जो मेरी नज़र में आता है वो है अनुभवी कवियों का लालच और लंपटता । ये लोग अपनी ठरक के चलते उन महिलाओं को कवियित्रियों के रूप में जनता के सामने परोस रहे हैं जो न ठीक से छंद समझती हैं भाषा । न उनकी प्रकृति में काव्य है न व्यवहार में । इन लिपस्टिक पाउडर की दुकानों का जब तक हिंदी काव्य मंचों से बहिष्कार नहीं होगा सामूहिक रूप से मैं नहीं समझता कि हिंदी काव्य मंचों में फिर से स्वस्थ वाचन की परंपरा स्थापित हो पाएगी । श्रृंगार के नाम पर क्या क्या पढ़ दे रही हैं ये ??? छि: छि: । कानूनी कार्यवाही के भय से मैं इनका नाम तो पोस्ट में नहीं लिख सकता लेकिन ये सैकड़ों की तादाद में मौजूद हैं । चमकीली साड़ियों और भड़कीली लिपस्टिक लगाए आप इनकी उपस्थिति में माँ शारदे की तस्वीर को लज्जित होते अवश्य देख सकते हैं । रटे रटाये अंदाज़ में घिसे हुए जुमलों के साथ इनकी शुरुआत होती है , मसलन -- " मां शारदे को नमन करती हूं , उपस्थित मंच को प्रणाम करती हूं , चार पंक्तियां नारी शक्ति को समर्पित करती हूँ । फिर ये अपने ढर्रे पे चालू हो जाती हैं । इनका एक तरन्नुम होता है जो कहीं न कहीं किसी गीत की धुन ही होता है चूँकि छंद से इनकी वाबस्तगी नाम मात्र की ही होती है तो ये उसी धुन पे गुनगुना कर अपना काम चलाती है । बीच बीच में ये लंपट संचालक के साथ नोकझोंक भी करती रहती हैं । कुलमिला कर दर्शकों के लिए सारा मनोरंजन जुटाने का भार इनके कांधो पर ही होता है । ऐसे ही मुशायरों में भी करती हैं ये शाइरा के रूप में  - "' चार मिसरे साहिबे सदर की इजाज़त से , नौजवान दोस्तों के नाम , फलां ढिमका । इतने घटिया होते हैं इनके चार मिसरे कि क्या बताएं जिस पर लंपट कवि इन्हें दाद भी देते हैं । जिससे भृमित होकर आम आदमी भरोसा कर बैठता है कि यार इतने बड़े शायर कवि ने दाद दी है ज़रूर कुछ बड़ी बात कही गयी है । और वो भी पागलों की तरह सीटियां और तालियां मारने लगता है । दूसरा ऐसा ही ओज के ,वीर रस के कवियों के नाम पर परोसा जा रहा है जनता को । जिस जगह दिनकर जैसे महाकवि हुए हैं वहां पर इतने घटिया और स्तरहीन कवियों को पाठ करते देख सकते हैं आप । इनकी सोच पाकिस्तान से आगे बढ़ती ही नहीं । सर पे चोटी रखे हाथ मे कलावा और रुदारक्ष बांधे ये चौबीसों घंटे ये अपने धर्म की रक्षा की दुहाई देते रहते हैं । हर कविता में एक मुस्लिम आक्रमणकारी आकर इनके मंदिर मस्ज़िद तोड़ता रहता है और पाकिस्तान युद्ध की दहलीज पर खड़ा रहता है । यही प्रोसेस सेम मुशायरों में फॉलो होती है बस वहाँ ये यजीद की फ़ौज को खड़ा कर देते हैं । अब वो ज़माना नहीं कि दस किताबें पढ़ने के बाद कोई दो पंक्तियां कहता था अब लोग दस किताबें लिखने के बाद दो पंक्तियां पढ़ते हैं । किसी ज़माने में दुबई , दिल्ली लालकिला , रामपुर , जैसी जगहों के मुशायरे में पढ़ने वालों का कोई मैयार हुआ करता था । अब दुबई में पढ़कर लौटी ख़वातीन को देखता हूँ तो अपने होने पे तरस आता है कि क्या हो गया है मुशायरों को । लोग धड़ल्ले से लगे हुए हैं अपने परिचितों को कवि ,शायर के तौर पर पेश करने में । यहां पर कोई क्वालिटी चेकर नहीं ,कोई फिल्टरेशन नहीं । बस जो जी मे आये लोग माईक के आगे मुँह खोल कर बके जा रहे हैं । आपस ही में साठ गांठ कर के परुस्कार भी बांटे जा रहे हैं । हर औरत शायरा है यहां जैसे और लौंडा युवा कवि । एक भी प्लेटफॉर्म ऐसा नहीं जहां नेपोटिज़्म की बजाय टैलेंट की क़द्र हो । बुजुर्गों ने अपने कान बंद कर लिए हैं और लौंडे छुट्टे सांड हुए पड़े हैं । ग़ज़ल विधा जितने बड़े पैमाने पर सामूहिक बलात्कार का शिकार हुई है शायद ही दूसरी विधा कोई हुई हो । ऐसा ही हिंदी छँद के मामले में हुआ । लड़कों ने शिवजी , पार्वती , कृष्ण राधा के ज़िक्र को हिंदी कविता का छँद समझ रखा हुआ है ।और ग़ज़ल में लड़की , बिस्तर ,पंखा रस्सी । जैसे ग़ज़ल में ज़िन्दगी हमबिस्तर होने और खुदकुशी करने की कहानी भर हो ।


सुनील जश्न


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रविंद्र नाथ टैगोर के पत्र

रूस के पत्र।

भाग 3।

अध्याय 7 से 9।लेखक रविंद्र नाथ टैगोर

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ब्रेमेन स्टीमर (अटलांटिक)


रूस से लौट कर आज फिर जा रहा हूँ अमेरिका के घाट पर। किंतु रूस की स्मृति आज भी मेरे संपूर्ण मन पर अधिकार किए हुए है। इसका प्रधान कारण यह है कि और-और जिन देशों में घूमा हूँ, वहाँ के समाज ने समग्र रूप से मेरे मन को हिलाया नहीं। उनमें अनेक कार्यों का उद्यम है, पर अपनी-अपनी सीमा के भीतर। कहीं पॉलिटेकनीक्स है तो कहीं अस्पताल, कहीं विश्वविद्यालय है तो कहीं म्यूजियम। विशेषज्ञ अपने-अपने क्षेत्र में ही मशगूल हैं, मगर यहाँ सारा देश एक ही अभिप्राय को ले कर समस्त कार्य-विभागों को एक ही स्नायुजाल में बाँध कर एक विराट रूप धारण किए हुए है। सब-कुछ एक अखंड तपस्या में आ कर मिल गया है।


जिन देशों में अर्थ और शक्ति का अध्यवसाय व्यक्तिगत स्वार्थों में बँटा हुआ है, वहाँ इस तरह की गहरी हार्दिक एकता असंभव है। जब यहाँ पंचवर्ष-व्यापी यूरोपीय महायुद्ध चल रहा था, तब झख मार कर इन देशों की भावनाएँ और कार्य एक अभिप्राय से मिल कर एक हृदय के अधिकार में आए थे, पर वह था अस्थायी। किंतु सोवियत रूस में जो कार्य हो रहा है, उसकी प्रकृति ही अलग है -- ये तो सर्वसाधारण का काम, सर्वसाधारण का हृदय और सर्वसाधारण का स्वत्व नाम की एक असाधारण सत्ता कायम करने में लगे हुए हैं।


उपनिषद की एक बात मैंने यहाँ आ कर बिलकुल स्पष्ट समझी है -- 'मा गृधः' -- लोभ न करो। क्यों लोभ न करें? इसलिए कि सब कुछ एक सत्य के द्वारा परिव्याप्त है और व्यक्तिगत लोभ उस एक की उपलब्धि में बाधा पहुँचाता है। 'तेन त्यक्तेन भुंजीथा' -- उस एक से जो आता है, उसी का भोग करो। आर्थिक दृष्टिकोण से ये यही बात कहते हैं। समस्त मानव साधारण में ये एक अद्वितीय मानव सत्य को बड़ा मानते हैं। उस एक के योग से उत्पन्न जो कुछ है, ये कहते हैं कि उसका सब कोई मिल कर भोग करो - 'मा गृधः कस्य स्वद्धन' - किसी के धन पर लोभ मत करो। किंतु धन का व्यक्तिगत विभाग होने से धन का लोभ स्वभावतः होता ही है। उसका लोप करके ये कहना चाहते हैं-'तेन त्यक्तेन भुंजीथा'।


यूरोप में अन्य सभी देशों की साधना व्यक्ति के लाभ और व्यक्ति के भोग के लिए है। इसी से मंथन और आलोड़न इतना प्रचंड है, और पौराणिक समुद्र मंथन की तरह उसमें से विष और सुधा, दोनों निकल रहे हैं।


पर सुधा का हिस्सा सिर्फ एक दल को मिलता है और अधिकांश को नहीं मिलता, इसी से दुख और अशांति हद से ज्यादा बढ़ रही है। सभी ने मान लिया था कि यही अनिवार्य है। कहा था, मानव प्रकृति के अंदर ही लोभ है और लोभ का काम है भोग में असमान भाग करना। अतएव प्रतियोगिता चलेगी ही, और लड़ाई के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए। परंतु सोवियत लोग जो कहना चाहते हैं, वह यह है कि मनुष्य में ऐक्य ही सत्य है, भोग तो माया है, सम्यक विचार और सम्यक चेष्टा से जिस क्षण में माया को मानेंगे, उसी क्षण वह स्वप्न की तरह लुप्त हो जाएगी।


रूस की वह न मानने की चेष्टा सारे देश में विराट रूप में अपना काम कर रही है। सब कुछ इसी एक चेष्टा में आ कर मिल गया है। यही कारण है कि रूस में आ कर एक विराट हृदय का स्पर्श मिला। शिक्षा का विराट पर्व और किसी भी देश में ऐसा नहीं देखा। इसका कारण यह है कि अन्य देशों में जो शिक्षा प्राप्त करता है, वही उसका फल पाता है -- 'पढ़ोगे-लिखोगे होगे नवाब'। यहाँ प्रत्येक की शिक्षा में सबकी शिक्षा शामिल है। एक आदमी में जो शिक्षा का अभाव होगा, वह सबको अखरेगा, क्योंकि ये सम्मिलित शिक्षा के योग से सम्मिलित मन को विश्वसाधारण के काम में लगाना चाहते हैं। ये 'विश्वकर्मा' हैं, इसलिए इन्हें विश्वमना बनना है। अतएव इन्हीं के लिए यथार्थ में विश्वविद्यालय हो सकता है।


शिक्षा को वे नाना प्रणालियों से सर्वत्र सबों में फैला रहे हैं। उन प्रणालियों में एक है म्यूजियम। नाना प्रकार के म्यूजियम-जालों से इन लोगों ने गाँवों और शहरों को पाट दिया है। ये म्यूजियम हमारे शांति निकेतन की लाइब्रेरी की तरह निष्क्रिय नहीं, क्रियात्मक हैं।


रूस की रीजनल स्टडी अर्थात स्थानिक तथ्यानुसंधान का उद्योग सर्वत्र व्याप्त है। इस तरह के शिक्षा केंद्र लगभग दो हजार होंगे, जिनकी सदस्य संख्या 70,000 से भी आगे बढ़ गई है। इन सब केंद्रों में उन-उन स्थानों के इतिहास और वर्तमान की आर्थिक अवस्था की खोज की जाती है। इसके सिवा उन सब स्थानों की उत्पादिका शक्ति किस श्रेणी की है और वहाँ कोई खनिज पदार्थ छिपा हुआ है या नहीं, इस विषय की खोज की जाती है। इन सब केंद्रों के पास जो म्यूजियम हैं, उन्हीं के जरिए सर्वसाधारण में शिक्षा प्रचार का कार्य होता है, और यह बड़ा भारी काम है। सोवियत राष्ट्र में सर्वसाधारण की ज्ञानोन्नति का जो नवयुग आया है, स्थानिक तथ्यानुसंधान की व्यापक चर्चा और उससे संबंध रखनेवाली म्यूजियमें उसकी एक मुख्य प्रणाली है।


इस तरह का निकटवर्ती स्थानों का  तथ्यानुसंधान शांति निकेतन में कालीमोहन ने कुछ-कुछ किया है, पर उस कार्य में हमारे छात्रों और शिक्षकों के शामिल न होने से उससे कोई उपकार नहीं हुआ। अनुसंधान के फल पाने की अपेक्षा अनुसंधान करने का मन तैयार करना कुछ कम बात नहीं है। मैंने सुना था कि कॉलेज विभाग के इकॉनॉमिक क्लास के विद्यार्थियों के साथ प्रभात ने इस प्रकार की चर्चा की नींव डाली है, परंतु यह काम और भी अधिक साधारण रूप से होना चाहिए, पाठ भवन के लड़कों को भी इस कार्य में दीक्षित करना होगा। साथ ही समस्त प्रादेशिक सामग्री का म्यूजियम स्थापित करने की भी आवश्यकता है।


यहाँ तसवीरों की म्यूजियम का काम कैसे चलाया जाता है, इसका विवरण सुनने से अवश्य ही तुम्हें संतोष होगा। मॉस्को शहर में ट्रेटियाकोव गैलरी नामक एक प्रसिद्ध चित्र भंडार है। वहाँ 1928 से 1929 तक एक वर्ष के अंदर लगभग तीन लाख आदमी चित्र देखने आए हैं। इतने दर्शक आना चाहते हैं कि उनके लिए स्थान देना कठिन हो रहा है, इसलिए दर्शकों को पहले ही से छुट्टी के दिन अपना नाम रजिस्टर में लिखा देना पड़ता है।


सन 1917 में सोवियत शासन चालू होने से पहले जो दर्शक उस तरह की गैलरी में आते थे, वे थे धनी-मानी, ज्ञानी दल के लोग, जिन्हें वे 'बर्गोजी' कहते हैं अर्थात परश्रमजीवी। और अब आते हैं असंख्य स्वश्रमजीवी, जैसे राज-मिस्त्री, लुहार, बढ़ई, दर्जी, मोची आदि।


धीरे-धीरे इनके हृदय में आर्ट का ज्ञान जगाते रहना जरूरी है। इन जैसे अनाड़ियों के लिए प्रथम दृष्टि में चित्र कला का रहस्य ठीक तौर से समझ लेना कठिन है। वे घूम-फिर कर दीवालों पर टँगी हुई तसवीरें देखते फिरते हैं -- बुद्धि काम नहीं देती। इसके लिए लगभग सभी म्यूजियमों में योग्य परिचायक रखे गए हैं, ये उन्हें समझा दिया करते हैं। म्यूजियमों के शिक्षा विभाग में अथवा ऐसी ही अन्य राष्ट्रीय कार्यशालाओं में जो वैज्ञानिक कार्यकर्ता हैं, उन्हीं में से परिचायक चुने जाते हैं। जो देखने आते हैं, उनके साथ इनका लेन-देन का कोई भी संबंध नहीं रहता। परिचायकों का कर्तव्य होता है कि तसवीर में जो विषय प्रकट किया है, सिर्फ उसी को देख लेने मात्र से तसवीर देखने का उद्देश्य पूरा हो गया, दर्शकों द्वारा ऐसी भूल न होने दें।


चित्र-वस्तु का गठन, उसकी वर्ण-कल्पना, उसका अंकन, उसका 'स्पेस', अंकित वस्तुओं का पारस्परिक अंतर, उसकी उज्ज्वलता -- चित्रकला के ये जो मुख्य शिल्प कौशल हैं, जिनसे चित्रों की विशेष शैली प्रकट होती है-ये सब विषय अब भी बहुत कम लोगों को मालूम हैं। इसलिए परिचारकों में इन सब विषयों का अच्छा ज्ञान होना चाहिए, तभी वे दर्शकों की उत्सुकता और इच्छा को जगा सकते हैं। यह बात और, म्यूजियम में सिर्फ एक ही चित्र नहीं होता, इसलिए एक चित्र को समझ लेना दर्शकों का उद्देश्य नहीं होना चाहिए। म्यूजियम में जो विशेष श्रेणी के चित्र रहते हैं, उनकी श्रेणीगत रीति को समझना आवश्यक है। परिचायकों का कर्तव्य है कि किसी विशेष श्रेणी के कुछ चित्र छाँट कर दर्शकों को उनकी प्रकृति समझा दें। आलोच्य चित्रों की संख्या बहुत ज्यादा होने से काम नहीं चल सकता और समय भी बीस मिनट से ज्यादा लगाना ठीक नहीं। प्रत्येक चित्र की अपनी एक भाषा होती है, अपना एक छंद होता है, यही समझने का विषय है। चित्र के रूप के साथ उसके विषय और भाव का क्या संबंध है, इसकी व्याख्या करना आवश्यक है। चित्रों की पारस्परिक विपरीतता के द्वारा उनकी विशेषता समझा देना अकसर बहुत काम कर जाता है। परंतु यदि दर्शक का मन जरा भी कहीं थक जाए, तो उसे वहीं छुट्टी दे देना चाहिए।


अशिक्षित दर्शकों को किस तरह तसवीर देखना सिखाते हैं, उन्हीं की रिपोर्ट से उपयुक्त बातें संग्रह करके तुम्हें लिख रहा हूँ। इनमें से भारतीयों को जिस बात पर विचार करना चाहिए, वह यह है। पहले जो चिट्ठी लिखी है, उसमें मैंने कहा है कि ये लोग कृषिबल और यंत्रबल से समस्त देश को जल्दी से जल्दी शक्तिमान बनाने के लिए बड़े उद्यम के साथ कमर कस कर जुट पड़े हैं। यह बड़े ही काम की बात है। अन्य समस्त धनी देशों के साथ प्रतियोगिता करते हुए अपने बल पर जीवित रहने के लिए ही इनकी यह कठोर तपस्या है।


हमारे देश में जब इस प्रकार की देशव्यापी राष्ट्रीय तपस्या का जिक्र आता है, तब हम यही कहना शुरू कर देते हैं कि बस सिर्फ लाल मशाल जला कर देश के अन्य सभी विभागों के सब दीपकों को बुझा देना चाहिए, नहीं तो मनुष्य अन्यमनस्क हो जाएँगे। खासकर ललित कला अन्य सब तरह के कठोर संकल्पों की विरोधिनी है। अपनी जाति को पहलवान बनाने के लिए सिर्फ ताल ठुँकवा कर उसे पैंतरेबाजी सिखानी चाहिए, सरस्वती की वीणा से अगर लाठी का काम लिया जा सके, तभी वह चल सकती है, अन्यथा नैव नैव च। इन बातों से कितना नकली पौरुष प्रकट होता है, यहाँ आने से स्पष्ट समझा जा सकता है। यहाँवाले देश भर में  कल-कारखाने चलाने में जिन मजदूरों को पक्का कर देना चाहते हैं, वे ही मजदूर अपनी शिक्षित बुद्धि से तसवीरों का रस ग्रहण कर सकें, इसी के लिए इतना विराट आयोजन हो रहा है। ये लोग जानते हैं कि जो रसज्ञ नहीं हैं वे बर्बर हैं, और जो बर्बर हैं, वे बाहर से रूखे और भीतर से कमजोर होते हैं। रूस की नवीन नाट्यकला ने असाधारण उन्नति की है।1917 की क्रांति के साथ-साथ ये लोग घोरतर दुर्दिन और दुर्भिक्ष के समय नाचते रहे हैं, गाते रहे हैं, नाट्याभिनय करते रहे हैं -- इनके ऐतिहासिक विराट नाट्याभिनय के साथ उसका कहीं भी विरोध नहीं हुआ है।


मरुभूमि में शक्ति नहीं होती, शक्ति का यथार्थ रूप वहीं देखने में आता है, जहाँ पत्थर की छाती में से जल की धारा कल्लोलित हो कर निकलती है। यहाँ वसंत के रूप-हिल्लोल से हिमालय का गांभीर्य मनोहर हो उठता है। विक्रमादित्य ने भारतवर्ष से शक शत्रुओं को भगा दिया था, किंतु कालिदास को 'मेघदूत' लिखने से मना नहीं किया। यह नहीं कहा जा सकता कि जापानी लोग तलवार नहीं चला सकते, किंतु साथ ही वे समान निपुणता के साथ तूलिका भी चलाते हैं। रूस में आ कर अगर देखता कि ये केवल मजदूर बन कर कारखानों के लिए सामान ही पैदा करते हैं और हल जोतते हैं, तो समझता कि ये भूखों मरेंगे। जो वृक्ष पत्तों की मर्मर ध्वनि बंद करके खट-खट आवाज से अहंकार करता हुआ कहता रहे कि मुझे रस की जरूरत नहीं, वह जरूर बढ़ई के घर का नकली वृक्ष है, वह अत्यंत कठोर हो सकता है, पर है अत्यंत निष्फल ही। अतएव मैं वीर पुरुषों से कहे देता हूँ और तपस्वियों को सावधान किए देता हूँ कि जब मैं अपने देश को लौटूँगा, तब पुलिस की लाठियों की मूसलाधार वर्षा में भी अपना नाच-गाना बंद नहीं करूँगा।


रूस के नाट्य मंच पर कला की तपस्या का जो विकास हुआ है, वह असाधारण है, महान है। उसमें नवीन सृष्टि का साहस उत्तरोत्तर बढ़ता ही दिखाई देता है, उसकी गति अभी रुकी नहीं है। वहाँ की सामाजिक क्रांति में यह नई सृष्टि ही असीम साहस से काम कर रही है। ये लोग समाज में, राष्ट्र में, कला तत्व में, कहीं भी नवीनता से डरे नहीं हैं।


जिस पुराने धर्मतंत्र ने और जिस पुराने राजतंत्र ने शताब्दियों से इनकी बुद्धि को प्रभावित कर रखा है और प्रणशक्ति को निःशेषप्राय कर दिया है, इन सोवियत क्रांतिकारियों ने उन दोनों ही को निर्मल कर दिया है। इतनी बड़ी बंधन-जर्जरित पराधीन जाति को इतने थोड़े समय के अंदर इतनी बड़ी मुक्ति दी है कि उसे देख कर हृदय आनंद से भर जाता है। क्योंकि, जो धर्म मानव जाति को मूढ़ता का वाहन बना कर मनुष्य के चित्त की स्वाधीनता को नष्ट करता है, उससे बढ़ कर हमारा शत्रु कोई राजा भी नहीं हो सकता -- फिर वह राजा बाहर से प्रजा की स्वाधीनता को कितना ही क्यों न बेड़ियों से बाँधता हो। आज तक यही देखने में आया है कि जिस राजा ने प्रजा को दास बनाए रखना चाहा है, उस राजा का सबसे बड़ा सहायक बना है वही धर्म, जो मनुष्य को अंधा बनाए रखता है। वह धर्म विषकन्या के समान है, आलिंगन से वह मुग्ध कर लेता है और मुग्ध करके मार डालता है, क्योंकि उसकी मार आराम की मार होती है।


सोवियतों ने रूस के सम्राट द्वारा किए गए अपमान और आत्मकृत अपमान के हाथ से इस देश को बचाया है, अन्य देशों के धार्मिक चाहे उनकी कितनी ही निंदा करें, पर मैं निंदा नहीं कर सकता। धर्म मोह की अपेक्षा नास्तिकता कहीं अच्छी है। रूस की छाती पर धर्म और अत्याचारी राजा का जो पत्थर रखा हुआ था, उसके हटते ही देश को कैसी विराट मुक्ति मिली है -- अगर तुम यहाँ होते तो उसे अपनी आँखों से देखते। 


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अटलांटिक महासागर


रूस से लौट आया, अब जा रहा हूँ अमेरिका की ओर। रूस यात्रा का मेरा एकमात्र उद्देश्य था, वहाँ जनसाधारण में शिक्षा प्रचार का काम किस तरह चलाया जा रहा है और उसका फल क्या हो रहा है, थोड़े समय में यह देख लेना। मेरा मत यह है कि भारतवर्ष की छाती पर जितना दुख आज अभ्रभेदी हो कर खड़ा है, उसकी एकमात्र जड़ है अशिक्षा। जाति-भेद, धर्म-विऱोध, कर्म-जड़ता, आर्थिक दुर्बलता -- इन सबको जकड़े हुए है शिक्षा का अभाव। साइमन कमीशन ने भारत के समस्त अपराधों की सूची समाप्त करने के बाद ब्रिटिश शासन का सिर्फ एक ही अपराध कबूल किया है, वह है यथेष्ट शिक्षा प्रचार की त्रुटि। मगर और कुछ कहने की जरूरत भी न थी। मान लो, यदि कहा जाए कि गृहस्थों ने सावधान होना सीखा, एक घर से दूसरे घर में जाते हुए चौखट से ठोकर खा कर मुँह के बल गिर पड़ते हैं, हरदम उनकी चीज-वस्तु खोती ही रहती है, ढूँढने से लाचार हैँ, छाया देखते ही उसे हौआ समझ कर डरने लगते हैं, अपने भाई को देख कर 'चोर आया' 'चोर आया' कह कर लाठी ले कर मारने दौड़ते हैं और आलसी ऐसे हैं कि सिर्फ बिछौने से चिपट कर पड़े रहते हैं, उठ कर घूमने-फिरने का साहस नहीं, भूख लगती है, पर भोजन ढूँढने से लाचार,  हैं, भाग्य पर अंध-विश्वास करने के सिवा और सब रास्ते उनके लिए बंद-से हैं, अतएव अपनी घर-गृहस्थी की देख-रेख का भार उन पर नहीं छोड़ा जा सकता। इसके ऊपर सबसे अंत में बहुत धीमे स्वर से यह कहा जाए कि 'हमने उनके घर का दीया बुझा रखा है' तो कैसा मालूम पड़े?


वे लोग एक दिन डाइन कह कर निरपराध स्त्री को जलाते थे, पापी कह कर वैज्ञानिक को मारते थे, धर्ममत की स्वाधीनता को अत्यंत निष्ठुरता से कुचलते थे, अपने ही धर्म के भिन्न संप्रदायों के राष्ट्राधिकार को नष्ट-भ्रष्ट किया था, इसके सिवा कितनी अंधता थी, कितनी मूढ़ता थी, कितने कदाचार उनमें भरे थे, मध्य युग के इतिहास से उनकी सूची तैयार की जाए, तो उनका बहुत ऊँचा ढेर लग जाए -- ये सब दूर हुईं किस तरह? बाहर के किसी कोर्ट ऑफ वार्ड्स के हाथ उनकी अक्षमता के जीर्णोद्धार का भार नहीं सौंपा गया, एकमात्र शक्ति ने ही उन्हें आगे बढ़ाया है, यह शक्ति है उनकी शिक्षा। जापान ने इस शिक्षा के द्वारा ही थोड़े समय के अंदर देश की राष्ट्रशक्ति को सर्वसाधारण की इच्छा और उद्यम के साथ मिला दिया है, देश की अर्थोपार्जन की शक्ति को बहुत गुना बढ़ा दिया है। वर्तमान टर्की ने तेजी के साथ इसी शिक्षा को बढ़ा कर धर्मांधता के भारी बोझ से देश को मुक्त करने का मार्ग दिखाया है। 'भारत सिर्फ सोता ही रहता है,' क्योंकि उसने अपने घर में प्रकाश नहीं आने दिया। जिस प्रकाश से आज का संसार जागता है, शिक्षा का वह प्रकाश भारत के बंद दरवाजे के बाहर ही खड़ा है। जब रूस के लिए रवाना हुआ था, तब बहुत ज्यादा की आशा नहीं की थी। क्योंकि, कितना साध्य है और कितना असाध्य, इसका आदर्श मुझे ब्रिटिश भारत से ही मिला है। भारत की उन्नति की दुरूहता कितनी अधिक है, इस बात को स्वयं ईसाई पादरी टॉमसन ने बहुत ही करुण स्वर में सारे संसार के सामने कहा है। मुझे भी मानना पड़ा है कि दुरूहता है अवश्य, नहीं तो हमारी ऐसी दशा क्यों होती? यह बात मुझे मालूम थी कि रूस में प्रजा की उन्नति भारत से ज्यादा ही दुरूह थी, कम नहीं। पहली बात तो यह है कि हमारे देश में भद्रेतर श्रेणी के लोगों की जैसी दशा अब है, यहाँ की भद्रेतर श्रेणी की भी -- क्या बाहर से और क्या भीतर से -- वैसी ही दशा थी। इसी तरह ये लोग भी निरक्षर और निरुपाय थे। पूजा-अर्चना और पुरोहित-पंडों के दिन-रात के तकाजों के मारे इनकी भी बुद्धि बिल्कुल दबी हुई थी, ऊपरवालों के पैरों की धूल से इनका भी आत्म-सम्मान मलिन था, आधुनिक वैज्ञानिक युग की सुविधाएँ इन्हें कुछ भी नहीं मिली थीं, इनके भाग्य पर भी पुरखों के जमाने का भूत सवार हो जाता था, तब इनकी भी पाशविक निष्ठुरता का अंत नहीं रहता था। ये ऊपरवालों के हाथ से चाबुक खाने में जितना मजबूत थे, अपने समान श्रेणीवालों पर अन्याय-अत्याचार करने में भी उतने ही मुस्तैद रहते थे। यह तो इनकी दशा थी। आजकल जिनके हाथ में उनका भाग्य है, अंग्रेजों की तरह वे ऐश्वर्यशाली नहीं हैं। अभी तो कुल 1917 के बाद से अपने देश में उनका अधिकार आरंभ हुआ। राष्ट्र-व्यवस्था सब तरफ से पक्की होने योग्य समय और साधन उन्हें मिला ही नहीं। घर और बाहर सर्वत्र विरोध है। उनमें आपसी गृह कलह का समर्थन करने के लिए अंग्रेजों -- और यहाँ तक कि अमरीकियों ने भी-गुप्त और प्रकट रूप में कोशिश की है। जनसाधारण को समर्थ और शिक्षित बना डालने के लिए उन लोगों ने जो प्रतिज्ञा की है, उनकी 'डिफिकल्टी' (कठिनाई) भारी शासकों की 'डिफिकल्टी' से कई गुना बढ़ी है।


इसलिए मेरे लिए ऐसी आशा करना कि रूस जा कर बहुत कुछ देखने को मिलेगा, अनुचित होता। हमने अभी देखा ही क्या है और जानते ही कितना हैं, जिससे हमारी आशा का जोर ज्यादा हो सकता। अपने दुखी देश में पली हुई बहुत कमजोर आशा ले कर रूस गया था। वहाँ जा कर जो कुछ देखा, उससे आश्चर्य मे डूब गया। शांति और व्यवस्था की कहाँ तक रक्षा की जाती है, कहाँ तक नहीं, इस बात की जाँच करने का मुझे समय नहीं मिला। सुना जाता है कि काफी जबरदस्ती होती है, बिना विचार के शीघ्रता से दंड भी दिया जाता है। और सब विषयों में स्वाधीनता है, पर अधिकारियों के विधान के विरुद्ध बिल्कुल नहीं। यह तो हुई चंद्रमा के कलंक की दिशा, परंतु मेरा तो मुख्य लक्ष्य था प्रकाश की दिशा पर। उस दिशा में जो दीप्ति दिखी, वह आश्चर्यजनक थी -- जो एकदम अचल थे, वे सचल हो उठे हैं।


सुना जाता है कि यूरोप के किसी-किसी तीर्थ-स्थान से, दैव की कृपा से, चिरपंगु भी अपनी लाठी छोड़ कर पैदल वापस आए हैं। यहाँ भी वही हुआ, देखते-देखते ये पंगु की लाठी को दौड़नेवाला रथ बनाते चले जा रहे हैं। जो प्यादों से भी गए-बीते थे, दस ही वर्षों में वे रथी बन गए हैं। मानव समाज में वे सिर ऊँचा किए खड़े हैं, उनकी बुद्धि अपने वश में है, उनके हाथ-हथियार सब अपने वश में हैं।


हमारे सम्राट वंश के ईसाई पादरियों ने भारतवर्ष,  में बहुत वर्ष बिता दिए हैं, 'डिफिकल्टीज' कैसी अचल हैं, इस बात को वे समझ गए हैं। एक बार उन्हें मॉस्को आना चाहिए। पर आने से विशेष लाभ नहीं होगा, क्योंकि खास तौर से कलंक देखना ही उनका व्यवसायगत अभ्यास है, प्रकाश पर उनकी दृष्टि नहीं पड़ती, खासकर उन पर तो और भी नहीं पड़ती, जिनसे उन्हें विरक्ति है। वे भूल जाते हैं कि उनके शासन-चंद्र में भी कलंक ढूँढने के लिए बड़े चश्मे की जरूरत नहीं पड़ती।


लगभग सत्तर वर्ष की उमर हुई -- अब तक मेरा धैर्य नहीं गया। अपने देश की मूढ़ता के बहुत भारी बोझ की ओर देख कर मैंने अपने ही भाग्य को अधिकता से दोष दिया है, बहुत ही कम शक्ति के बूते पर थोड़े-बहुत प्रतिकार की भी कोशिश की है, परंतु जीर्ण आशा का रथ जितने कोस चला है, उससे कहीं अधिक बार उसकी रस्सी टूटी है, पहिए टूटे हैं। देश के अभागों के दुख की ओर देख कर सारे अभिमान को तिलांजलि दे चुका हूँ। सरकार से सहायता माँगी है, उसने वाहवाही भी दे दी है, जितनी भीख दी उससे ईमान गया, पर पेट नहीं भरा। सबसे बढ़ कर दुख और शर्म की बात यह है कि उनके प्रसाद से पलनेवाले हमारे स्वदेशी जीवों ने ही उसमें सबसे ज्यादा रोड़े अटकाए हैं। जो देश दूसरों के शासन पर चलता है, उस देश में सबसे भयानक व्याधि हैं ये ही लोग। जहाँ अपने ही देश के लोगों के मन में ईर्ष्या, क्षुद्रता और स्वदेश-विरुद्धता की कालिमा उत्पन्न हो जाए, उस देश के लिए इससे भयानक विष और क्या हो सकता है?


बाहर के सब कामों के ऊपर भी एक चीज होती है, वह है आत्मा की साधना। राष्ट्रीय और आर्थिक अनेक तरह की गड़बड़ियों में जब मन गँदला हो जाता है, तब उसे हम स्पष्ट नहीं देख सकते, इसलिए उसका जोर घट जाता है। मेरे अंदर वह बला मौजूद है, इसीलिए असली चीज को मैं जकड़े रखना चाहता हूँ। इसके लिए कोई मेरा मजाक उड़ाता है तो कोई मुझ पर गुस्सा होता है -- वे अपने मार्ग पर मुझे भी खींच ले जाना चाहते हैं। परंतु मालूम नहीं, कहाँ से आया हूँ मैं इस संसार-तीर्थ में, मेरा मार्ग मेरे तीर्थ देवता की वेदी के पास ही है। मेरे जीवन-देवता ने मुझे यही मंत्र दिया है कि मैं मनुष्य-देवता को स्वीकार कर उसे प्रणाम करता हुआ चलूँ। जब मैं उस देवता का निर्माल्य ललाट पर लगा कर चलता हूँ तब सभी जाति के लोग मुझे बुला कर आसन देते हैं, मेरी बात दिल लगा कर सुनते हैं। जब मैं भारतीयत्व का जामा पहन खड़ा होता हूँ, तो अनेक भाषाएँ सामने आती हैं। जब ये लोग मुझे मनुष्य रूप में देखते हैं, तब मुझ पर भारतीय रूप में ही श्रद्धा करते हैं, जब मैं खालिस भारतीय रूप में दिखाई देना चाहता हूँ, तब ये लोग मेरा मनुष्य-रूप में आदर नहीं कर पाते। अपना धर्म पालन करते हुए मेरा चलने का मार्ग गलत समझने के द्वारा ऊबड़-खाबड़ हो जाता है। मेरी पृथ्वी की मीयाद संकीर्ण होती जा रही है, इसीलिए मुझे सत्य बनने की कोशिश करनी चाहिए, प्रिय बनने की नहीं।


मेरी यहाँ की खबरें झूठ-सच नाना रूप में देश में पहुँचा करती हैं। इस विषय में मुझसे हमेशा उदासीन नहीं रहा जाता, इसके लिए मैं अपने को धिक्कारता हूँ। बार-बार ऐसा मालूम होता रहता है कि वाणप्रस्थ की अवस्था में समाजस्थ की तरह व्यवहार करने से विपत्तियों का सामना करना पड़ता है।


कुछ भी हो, इस देश की 'एनॉर्मस डिफिकल्टीज'(विराट कठिनाइयों) की बातें किताबों में पढ़ी थीं, कानों से सुनी थीं, पर आज उन 'डिफिकल्टीज' को (कठिनाइयों को) पार करने का चेहरा भी आँखों से देख लिया। बस।


4 अक्टूबर, 1930 


--9--


ब्रेमेन जहाज


हमारे देश में पॉलिटिक्स को जो लोग खालिस पहलवानी समझते हैं, उन लोगों ने सब तरह की ललित कलाओं को पौरुष का विरोधी मान रखा है। इस विषय में मैं पहले ही लिख चुका हूँ। रूस का जार किसी दिन दशानन के समान सम्राट था, उसके साम्राज्य ने पृथ्वी का अधिकांश भाग अजगर साँप की तरह निगल लिया था और पूँछ से भी जिसको उसने लपेटा, उसके भी हाड़-माँस पीस डाले।


लगभग तेरह वर्ष हुए होंगे, इसी जार के प्रताप के साथ क्रांतिकारियों की लड़ाई ठन गई थी। सम्राट जब मय अपने खानदान के लुप्त हो चुका, उसके बाद भी उसके अन्य संबंधी लोग दौड़-धूप करने लगे और अन्य साम्राज्य-भोगियों ने अस्त्र और उत्साह दे कर उनकी सहायता की। अब समझ सकते हो कि इन कठिनाइयों का सामना करना कितना कठिन था। पूँजीवादियों का -- जो एक दिन सम्राट के उपग्रह थे और किसानों पर जिनका असीम प्रभुत्व था -- सर्वनाश होने लगा। लूट-खसोट, छीना-झपटी शुरू हो गई, सारी प्रजा अपने पुराने प्रभुओं की बहुमूल्य भोग-सामग्री का सत्यानाश करने पर तुल गई। इतने उच्छृंखल उपद्रव के समय भी क्रांतिकारियों के नेताओं ने कड़ा हुक्म दिया कि आर्ट की वस्तुओं को किसी तरह भी नष्ट न होने दो। धनियों के छोड़े हुए प्रासाद-तुल्य मकानों में भी कुछ रक्षण-योग्य चीज-वस्तु थी, अध्यापक और छात्रों ने मिल,  कर, भूख और जाड़े से कष्ट पाते हुए भी, सब ला-ला कर युनिवर्सिटी के म्यूजियम में सुरक्षित रख दिया।


याद है, हम जब चीन गए थे तो वहाँ क्या देखा था? यूरोप के साम्राज्य-भोगियों ने पेकिंग (अब बेजिंग) का वसंत-प्रासाद धूल में मिला दिया, युगों से संग्रहीत अमूल्य शिल्प-सामग्री को लूट कर उसे तोड़ कर नष्ट कर दिया। वैसी चीजें अब संसार में कभी बन ही नहीं सकेंगी।


सोवियतों ने व्यक्तिगत रूप से धनिकों को वंचित किया है, परंतु जिस ऐश्वर्य पर मनुष्य मात्र का चिर अधिकार है, जंगलियों की तरह उसे नष्ट नहीं होने दिया। अब तक जो दूसरों के भोग के लिए जमीन जोतते आए हैं, इन लोगों ने उन्हें सिर्फ जमीन का स्वत्व ही नहीं दिया, बल्कि ज्ञान के लिए - आनंद के लिए -- मानव जीवन में जो कुछ मूल्यवान चीज है, सब कुछ दिया है। इस बात को उन्होंने अच्छी तरह से समझा है कि सिर्फ पेट भरने की खुराक पशु के लिए काफी है, मनुष्य के लिए नहीं, और इस बात को भी वे मानते हैं कि वास्तविक मनुष्यत्व के लिए पहलवानी की अपेक्षा आर्ट या कला का अनुशीलन बहुत बड़ी चीज है।


यह सच है कि विप्लव के समय इनकी बहुत-सी ऊपर की चीजें नीचे दी गई हैं, परंतु वे मौजूद हैं, और उनसे म्यूजियम, थियेटर, लाइब्रेरियाँ और संगीतशालाएँ भर गई हैं।


एक दिन था, जब भारत की तरह यहाँ के गुणियों के गुण भी मुख्यतः धर्म-मंदिरों में ही प्रकट होते थे। महंत लोग अपनी स्थूल रुचि के अनुसार जैसे चाहते थे, हाथ चलाया करते थे। आधुनिक शिक्षित भक्त बाबुओं ने जैसे मंदिर पर पलस्तर कराने में संकोच नहीं किया, उसी तरह यहाँ के मंदिरों के मालिकों ने अपने संस्कार के अनुसार जीर्ण-संस्कार करके प्राचीन कीर्ति को बेखटके ढक दिया है, इस बात का खयाल भी नहीं किया कि उसका ऐतिहासिक मूल्य सार्वजनिक और सार्वकालिक है, यहाँ तक कि पूजा के पुराने पात्र तक नए ढलवाए हैं। हमारे देश में भी मठों और मंदिरों में बहुत- सी चीजें ऐसी हैं, जो ऐतिहासिक दृष्टि से मूल्यवान हैं, परंतु कोई भी उसे काम में नहीं ला सकता। महंत भी गहरे मोह में डूबे हुए हैं, काम में लाने योग्य बुद्धि और विद्या से उनका कोई सरोकार ही नहीं। क्षिति बाबू से सुना था कि मठों में अनेक प्राचीन पोथियाँ कैद हुई पड़ी हैं -- जैसे दैत्यपुरी में राजकन्या रहती है, उद्धार करने का कोई रास्ता ही नहीं।


क्रांतिकारियों ने धर्म मंदिरों की चहारदीवारी को तोड़ कर उन्हें सर्वसाधारण की संपत्ति बना दिया है। पूजा की सामग्री को छोड़ कर बाकी सब समान म्यूजियम में इकट्ठा किए जा रहे हैं। इधर जबकि आत्म-विप्लव चल रहा है, चारों ओर टायफायड का प्रबल प्रकोप हो रहा है, रेल के मार्ग सब नष्ट कर दिए गए हैं। ऐसे समय में वैज्ञानिक अन्वेषकगण आसपास के क्षेत्र में जा-जा कर प्राचीन काल की शिल्प-सामग्री का उद्धार कर रहे हैं। इतनी पोथियाँ, इतने चित्र, खुदाई के काम के अलभ्य नमूने संग्रह किए हैं कि जिनकी हद नहीं।


यह तो हुआ धनिकों के मकान और धर्म मंदिरों में जो कुछ मिला, उसका वर्णन। यहाँ के मामूली किसान कारीगरों की बनाई हुई शिल्प-सामग्री, प्राचीन काल में जिसकी अवज्ञा की जाती थी, का मूल्य भी ये समझने लगे हैं, और उधर इनकी दृष्टि है। सिर्फ चित्र ही नहीं, बल्कि लोक साहित्य और लोक संगीत आदि का काम भी बड़ी तेजी से चल रहा है। यह हुआ इनका संग्रह।


इन संग्रहकों के द्वारा लोक शिक्षा की व्यवस्था की गई है। इससे पहले ही मैं इस विषय में तुम्हें लिख चुका हूँ। इतनी बातें मैं जो तुमको लिख रहा हूँ, उसका कारण यह है कि अपने देशवासियों को मैं जता देना चाहता हूँ कि आज से केवल दस वर्ष पहले रूस की साधारण जनता हमारे यहाँ की वर्तमान साधारण जनता के समान ही थी। सोवियत शासन में उसी श्रेणी के लोगों को शिक्षा के द्वारा आदमी बना देने का आदर्श कितना ऊँचा है। इसमें विज्ञान, साहित्य, संगीत, चित्र कला -- सभी कुछ है, अर्थात हमारे देश में भद्र-नामधारियों के लिए शिक्षा का जैसा कुछ आयोजन है, यहाँ की व्यवस्था उससे कहीं अधिक संपूर्ण है।


अखबारों में देखा कि फिलहाल हमारे देश में प्राथमिक शिक्षा का प्रचार करने के लिए हुक्म जारी किया गया है कि प्रजा से कान पकड़ कर शिक्षा कर वसूल किया जाए, और वसूल करने का भार दिया गया है जमींदारों पर। अर्थात जो वैसे ही अधमरे पड़े हैं, शिक्षा के बहाने उन्हीं पर बोझ लाद दिया है।


शिक्षा कर जरूर चाहिए, नहीं तो खर्चा कहाँ से चलेगा? परंतु देश के हित के लिए जो कर है, उसे सब कोई मिल कर क्यों नहीं देंगे? सिविल सर्विस है, मिलिटरी सर्विस है। गवर्नर, वायसराय और उनके सदस्यगण हैं। उनकी भरी जेबों में हाथ क्यों नहीं पड़ता? वे क्या इन किसानों की ही रोजी से तनख्वाह और पेंशन ले कर अंत में जा कर उसका भोग नहीं करते? जूट मिलों के जो बड़े-बड़े विलायती महाजन सन उपजानेवाले किसानों के खून,  से मोटा मुनाफा उठा कर देश को रवाना कर दिया करते हैं, उन पर क्या इन मृतप्राय किसानों की शिक्षा का जरा भी दायित्व नहीं है? जो मिनिस्टर वर्ग शिक्षा कानून पास करने में भर पेट उत्साह प्रकट करते हैं, उन्हें क्या अपने उत्साह की कानी-कौड़ी कीमत भी अपनी जेब से नहीं देना चाहिए?


क्या इसी का नाम है शिक्षा से सहानुभूति? मैं भी तो एक जमींदार हूँ, अपनी प्रजा की प्राथमिक शिक्षा के लिए कुछ दिया भी करता हूँ, और भी दो-तीन गुना अगर देना पड़े, तो देने के लिए तैयार हूँ, परंतु यह बात उन्हें प्रतिदिन समझा देना जरूरी है कि मैं उनका अपना आदमी हूँ, उनकी शिक्षा से मेरा ही हित है, और हम ही उन्हें देते हैं। राज्य के शासन में ऊपर से ले कर नीचे तक जिनका हाथ है उनमें से कोई भी एक पैसा अपने पास से नहीं देता।


सोवियत रूस के जनसाधारण की उन्नति का भार बहुत ही ज्यादा है, इसके लिए आहार-विहार में लोग कम कष्ट नहीं पा रहे हैं, परंतु उस कष्ट का हिस्सा ऊपर से ले कर नीचे तक सबने समान रूप से बाँट लिया है। ऐसे कष्ट को कष्ट नहीं कहूँगा, यह तो तपस्या है। प्राथमिक शिक्षा के नाम से सरसों भर शिक्षा का प्रचलन कर भारत सरकार इतने दिनों बाद दो सौ वर्षों का कलंक धोना चाहती है, और मजा यह कि उसके दाम वे ही देंगे, जो दान देने में सबसे ज्यादा असमर्थ हैं। सरकार के लाड़ले अनेकानेक वाहनों पर तो आँच तक न आने पाएगी, वे तो सिर्फ गौरव-करने के लिए हैं।


मैं अपनी आँखों से न देखता तो किसी कदर भी विश्वास न करता कि अशिक्षा और अपमान के खंदक में से निकाल कर सिर्फ दस ही वर्ष के अंदर लाखों आदमियों को इन्होंने सिर्फ क, ख, ग, घ ही नहीं सिखाया, बल्कि उन्हें मनुष्यत्व से सम्मानित किया है। केवल अपनी ही जाति के लिए नहीं, दूसरी जातियों के लिए भी उन्होंने समान उद्योग किया है। फिर भी सांप्रदायिक धर्म के लोग इन्हें अधार्मिक बता कर इनकी निंदा किया करते हैं। धर्म क्या सिर्फ पोथियों के मंत्र में है? देवता क्या केवल मंदिर की वेदी पर ही रहते हैं? मनुष्य को जो सिर्फ धोखा ही देते रहते हैं, देवता क्या उनमें कहीं पर मौजूद हैं?


बहुत-सी बातें कहनी हैं। इस तरह तथ्य संग्रह करके लिखने का मुझे अभ्यास नहीं, पर न लिखना अन्याय होगा, इसी से लिखने बैठा हूँ। रूस की शिक्षा पद्धति के बारे में क्रमशः लिखने का मैंने निश्चय कर लिया है। कितनी ही बार मेरे मन में आया है कि और कहीं नहीं, रूस में आ कर तुम लोगों को सब देख जाना चाहिए। भारत से बहुत गुप्तचर यहाँ आते हैं, क्रांतिकारियों का भी आना-जाना बना ही रहता है, मगर मैं समझता हूँ कि और किसी चीज के लिए नहीं, शिक्षा संबंधी शिक्षा प्राप्त करने के लिए यहाँ आना हमारे लिए बहुत ही आवश्यक है।


खैर, अपनी बातें लिखने में मुझे उत्साह नहीं मिलता। आशंका होती है कि कहीं अपने को कलाकार समझ कर अभिमान न करने लग जाऊँ। परंतु अब तक जो बाहर से ख्याति मिली है, वह अंतर तक नहीं पहुँची। बार-बार यही मन में आता है कि यह ख्याति दैव के गुण से मिली है, अपने गुण से नहीं।


इस समय समुद्र में बह रहा हूँ। आगे चल कर तकदीर में क्या बदा है, मालूम नहीं। शरीर थक गया है, मन में इच्छाओं का उफान नहीं है। रीते भिक्षा पात्र के समान भारी चीज दुनिया में और कुछ भी नहीं, जगन्नाथ को उसका अन्तिम अर्ध्य दे कर न जाने कब छुट्टी मिलेगी?


5 अक्टूबर, 1930।  


समाप्त।

संपादक प्रफुल्ल भारती।

सोमवार, 14 दिसंबर 2020

कंक्रीट के जंगल

 कंक्रीट के जंगल को दुर्भाग्य से बहुत लोग घर समझते हैं और मिट्टी रूपी जीवन को त्याग कर रहते हैं।

रिश्ते, संवेदनाओं को क़त्ल करके रूपयों की उड़ान पर रहते हैं।

यह स्तर मनुष्य को पशुओं, पक्षियों से भी नीचे गिरा देता है। मनुष्य जीवन बौद्धिक है, प्राणियों में श्रेष्ठ है लेकिन यह मनुष्य की भूल साबित हो रही है क्योंकि श्रेष्ठ तो मनुष्य के अतिरिक्त अन्य जीवों में बेहतर है।

मंगलवार, 8 दिसंबर 2020

दान राशि (लघुकथा)

मुझे मेरे पैसे लौटाए जाएं, अपने दोस्त को तीखे, तल्ख़ लहज़े में रणधीर ने कहा। इस बात पर समर चौंक गया। और समर ने रणधीर से पूछा भाई साहब यह क्या बात कह रहे हैं आपने अपने सबसे जिगरी दोस्त प्रमोद की पार्टी को शानदार बनाते हुए उनको, उनके जनहित के कार्यों पर उनको भेंट के लिए दान स्वरूप जो राशि दी थी वह मुझसे क्यों मांग रहे हैं? प्रमोद, रणधीर का सबसे जिगरी दोस्त था। प्रमोद का ही दोस्त समर भी था जो प्रमोद के लिए विदाई समारोह का व दफ्तर के कर्मचारियों से दान राशि लेकर कार्यक्रम को अंज़ाम दे रहा था लेकिन जैसे ही कार्यक्रम पूरा होता है तो प्रमोद का सबसे गहरा दोस्त रणधीर अपने दान दिए पाँच हजार रुपए समर से वापिस मांगता है। समर अब पैसे कहां से देता वह सकपका गया और रणधीर से बोला कि आपने सबके सामने तो प्रमोद की विदाई समारोह के लिए सबसे ज्यादा पैसे दिए थे और आप उसके सबसे गहरे दोस्त भी हैं वह आपके सबसे ज्यादा काम आया है तो आप ही ऐसा कैसे कर सकते हैं? लेकिन रणधीर बिल्कुल नहीं माना और हर रोज़ समर पर दोष मढ़ने लगा। अन्य कर्मचारियों के सामने पैसे की बात नहीं करता लेकिन समर पर लेन-देन में गड़बड़ी के आरोप लगा कर बदनाम करने लगा,हर विषय पर उससे झगड़ा करता लेकिन जब भी समर के साथ प्रमोद सामने होता तो रणधीर प्रमोद को अपने सबसे ज्यादा दान देने का अहसास करवाता और प्रमोद भी खुश हो जाता। © सूबे सिंह सुजान

मंगलवार, 10 नवंबर 2020

दोस्ती (लघुकथा)

 प्रमोद चौहान संस्था के प्रधान हैं और अधिकारियों पर प्रभाव रखते हैं समाज में छाप छोड़ते हैं लोग सम्मान करते हैं उनके दोस्त निशाना सिंह हैं जो उनके हर काम में हमेशा साथ रहे हैं और उनकी संस्था के सभी काम वही करते हैं उनके चेहरे के पीछे सब काम वही करते हैं  उनके काम से ही समाज में प्रमोद चौहान की पहचान है , निशान सिंह ही उनकी सभी योजनाएं तैयार  करते हैं जिससे वह समाज में अपना प्रभाव छोड़ पाते हैं एक तरह से निशान सिंह ने ही उनको यह पहचान दी है निशान सिंह  को अपना बच्चा  विदेश में पढ़ने भेजने के लिए  बहुत  धनराशि की आवश्यकता पड़ती है निशान सिंह प्रमोद से धन मांगता है और प्रमोद वादा करता है कि समय पर आपको जरुर मदद करेगा लेकिन वह समय भी आया निशान सिंह को पैसे की सख्त जरूरत थी लेकिन प्रमोद चौहान ने हर बार किसी ना किसी बहाने से टालता रहा और वादा करता रहा, तसल्ली देता रहा कि जरूर सहायता करूंगा आज नहीं तो कल ।

फ़िलहाल आप कहीं से काम चला लीजिए परंतु निशान सिंह समझ गया कि वह सिर्फ कहता है मेरे काम आने वाला नहीं इस तरह निशान सिंह ने अपने रिश्तेदारों व बैंक लोन लेकर अपने काम को अंजाम दिया इसी बीच प्रमोद चौहान अपने लिए बड़ा होटल खरीदता है और बैंक की किस्त में कम पैसे होने पर निशान सिंह से पैसे मांगता है कि 2 दिन के बाद लौटा दूंगा और निशान सिंह बेफिक्र होकर थोड़ी धनराशि उसको देता है वह ले लेता है वह 15 दिन बाद या एक महीने बाद लौटता है यह कई महीने होता है निशान सिंह ने इस घटना के बाद उससे पैसे मांगने बंद कर दिए लेकिन वह फिर भी मांग लेता है हर महीना किस्त के लिए पैसे मांग लेता है निशान सिंह वह भी दे देता है यह दोस्ती पैसे के मुकाम पर आती है तो दोनों दोस्तों में किस तरह का लेन देन है यह निशान सिंह सोचता है और समाज निशान सिंह को प्रमोद चौहान का सबसे पक्का दोस्त और उसकी नींव समझता है और समाज निशान सिंह की पीठ थपथपाता है लेकिन प्रमोद चौहान ने निशान सिंह के साथ क्या व्यवहार किया यह निशान सिंह का दिल जानता है।


सूबे सिंह सुजान

शुक्रवार, 17 जुलाई 2020

स्वागतम

वह घर के आंगन को साफ़ कर रहा है।  आसपास खडी़ घास के पौधों को क़रीने से साफ़ कर रहा है । कुछ फूल के पौधे लगा रहा है उनको किस जगह लगाना है यह बार बार सोचकर,समझकर निश्चित करता है। सोचता है यहां यह ग़ुलाब ठीक है, वहां पर चमेली और कहीं कुछ तो कहीं कुछ, उसके मन में उदेड़बुन चल रही है वह यहां से गुजरने पर शायद इस बात की तारीफ करे  या इस बात की, वह पौधों को लगाने से पहले सोचता है कि कौन सा पौधा कहां उसको अच्छा लगेगा,वो आएगी तो उसे मेरे घर आने के रास्ते में कोई तक़लीफ न आए दुनिया के क्या हाल हैं कौन क्या कर है सूरज कब आया,कब गया, रास्ते से कौन कौन गुज़रा, हवा कब चल रही है,कब नहीं चल रही है,कितनी गर्मी है या सर्दी है उसे अन्य कोई अहसास नहीं केवल एक उसके आने के अहसास के अलावा।

वह आए या न आए लेकिन वह उसके आने की तैयारी कर रहा है अपने अंदाज से, अपना समय गुजार रहा है वह अपने मन में उसके लिए  पूरी ुुुुुुुुुुुुुुुुुुुुुुुुुुुुुुुुुुुुुुुुुुुुदुनिया बसाए हुए
 है । 

शुक्रवार, 10 जुलाई 2020

#अनकही 1 यथार्थ कहानी। #अपना धोखा

पिता जी अनपढ़ व बहुत भोले भाले थे वे दूसरे व्यक्ति की चालबाजी को नहीं समझते थे और इस वज़ह से ज़िन्दगी में अनेक बार धोखा खाया, या यूं कहें कि धोखा खाते खाते अपनी भूख मिटाते थे।

  • भारत में जिस समय कृषि परांपरागत तरीके से की जाती थी और सबसे प्रथम समय में बिजली के ट्यूवैल से खेती की जाने लगी तो हमारे गांव में शायद केवल पहला बिजली से संचालित ट्यूबवेल लगा था और उसके सं
को ठीक प्रकार शिक्षित लोग कर पाते थे। लेकिन पिता जी यह सीखाने के बाद तो कर सकते थे लेकिन उनके बड़े भाई के तो बेटे शिक्षित थे जो अपना खेती का कार्य तकनीक को समझ कर कर लेते थे परन्तु छोटे भाई जो गांव में केवल पहले स्नातक व्यक्ति थे, वे कोई भी जानकारी न देकर हर बात में मज़ाक उड़ाते थे व धूर्तता पूर्वक व्यवहार करते थे।

जब पहले वर्ष धान के खेत में बिजली के ट्यूवैल से पानी दिया जाता था तो सबके खेत में पानी लगाने की बारी आती थी चार भाईयों के खेत में पानी देने की बारी निश्चित कर दी गई थी सब अपने समय पर पानी देने लगे व धान रोपाई हो गई थी।
जब पिता जी के खेत में सबसे बेहतर धान की फ़सल लहराने लगी तो खेत सबके आकर्षण का केन्द्र बन गया और उनकी मेहनत की तारीफ होने लगी।
अब धान की फ़सल दाना लेने की तैयारी में थी और बरसात का मौसम जा चुका था तो खेत में पानी केवल ट्यूबवेल से ही संभव था तो सब अपनी अपनी बारी पर पानी दे थे। अब जिस दिन पिता जी की पानी की बारी थी तो चाचा जी ने बिजली के फ्यूज को हटा दिया जिससे मोटर बिजली होने पर भी नहीं चली, पिता जी ने अपने भाई को कहा कि भाई देखना पानी की मोटर नहीं चल रही है जबकि बिजली है तो चाचा ने कहा कि मुझे क्या मालूम,तू खुद पता कर तेरी बारी है पिताजी ने दरख्वास्त भी कई,हाथ जोड़कर विनती की लेकिन वे अनपढ़ गंवार कहते हुए चले गए।
उसके बाद पिता जी ने अपने बड़े भाई के बेटों से निवेदन किया, लेकिन उन्होंने कहा कि तू और तेरा भाई जाने हमें क्या लेना? 
इस तरह एक बारी निकली, फिर चार दिन बाद बारी आई वह भी उसी तरह चाचा जी की मेहरबानी से निकल गई और ऐसा करते करते फ़सल उस समय सूख गई जब उसमें दाने पड़ने वाले थे।
पिताजी और मां दोनों सबकी ओर आस भरी निगाहों से देखते लेकिन कोई मदद नहीं करता मां पिताजी के बड़े भाई के बेटों का खाना बनाती थी क्योंकि ताई बहुत ज्यादा बीमार थी और उन चारों बड़े भाइयों की उद्दंडता को भी झेलती थी लेकिन जब फ़सल सूखने की बात करती तो वे खूब हंसते।
इस तरह फ़सल सूख गई और मां व पिता को रोते रोते  गांवके लोगों से खाने के लिए भी मांगना पड़ा और हम चार छोटे छोटे भाइयों का पेट भरना पड़ा था यह सब देखकर चाचा बहुत खुश था जैसे उनकी मुराद पूरी हो गई थी।

सूबे सिंह सुजान

गुरुवार, 9 जुलाई 2020

गद्य काव्य एक जटिलता पैदा करना है।

पिछले दिनों एक परिचर्चा हो रही थी, जिसमें गद्य काव्य को परिभाषित करने पर चर्चा थी। 
जब हमारे पास अनेक काव्य विधा उपलब्ध हैं तो उसके बाद भी हम ऐसी काव्य विधा को अपनाने की कोशिश कर रहे हैं जो अपने नामकरण से ही यह स्पष्ट करती है कि वह कोई एक स्पष्ट विधा नहीं है किसी विषय या विधा का स्पष्ट होना बहुत आवश्यक है यदि वह स्वयं ही स्पष्ट नहीं है तो हम उसके साथ जबरदस्ती या बलात्कार कर रहे हैं यह स्वयं स्पष्ट हो जाता है।

यह एक उदाहरण से और स्पष्ट हो जाता है यह इस प्रकार है कि जैसे कोई शराबी एक या दो पैग पीने के बाद अपने आनंद के योग्य हो जाता है (जिसे वह आनंद कहता है) अर्थात उसे आवश्यक नशा हो जाता है परन्तु वह उसके बाद भी अनेक प्याले पीता है जिसकी कोई आवश्यकता नहीं थी बस वह और परेशानी को बढ़ाने की कोशिश करता है,वह समस्याग्रस्त हो रहा होता है,उसे यहां तक चैन नहीं है वह अपने लिए व अन्यों के लिए जटिलता पैदा कर रहा होता है।
इसी प्रकार हम गद्य काव्य कहने के साथ कर रहे हैं हम अनावश्यक प्रयोग कर रहे होते हैं हम लेखन में जटिलता पैदा कर रहे होते हैं जब हमारे पास अपनी बात कहने के लिए अनेक गद्य विधा उपलब्ध हैं व अनेकों काव्य विधा उपलब्ध हैं तो उसके पश्चात भी हम काव्य विधा से छेड़छाड़ क्यों कर रहे हैं?
इसके उत्तर में हम कह सकते हैं कि यह नव प्रयोग है हां नव प्रयोग होने चाहिए लेकिन प्रयोग ऐसा भी न होना चाहिए जो स्पष्ट ही न हो और वह अनावश्यक जटिलता पैदा न करता हो।
हम मनुष्य जीवन के विकास पर एक नज़र डालें तो पाएंगे कि मनुष्य में पुरुष, पुरुष ही है और स्त्री, स्त्री ही है। दोनों का मिश्रण नहीं हुआ है हां कुछ अपवादों को छोड़कर, लेकिन अपवाद जो हुआ है वह फलित नहीं हो सकता उसका कोई उद्देश्य नहीं हो पाया वह प्राकृतिक नहीं हो पाया।
मनुष्य के कर्मिक विकास प्रक्रिया के प्रमाण हजारों वर्षों तक के उपलक्ष्य हैं हमारे पास रामायण, महाभारत व वैदिक संस्कृति का साहित्य उपलब्ध है जिससे हजारों वर्षों का मनुष्य का जीवन व विकास का पता चलता है जिससे हम यह अनायास जान सकते हैं कि मनुष्य मौलिक रूप से आज भी वही है। लेकिन मनुष्य ने जीवन के साथ अनेक प्रयोग किए हैं जिनमें कुछ प्रयोग सफल हैं और मनुष्य के लिए बहुत कार्यों को सुगम बनाया है परन्तु कुछ प्रयोग मनुष्य जीवन को जटिल भी बनाते हैं जो उसके अस्तित्व पर ख़तरा पैदा करते हैं जैसे पुरुष को स्त्री व स्त्री को पुरुष में परिवर्तित करना या परमाणु जैसे घातक हथियारों का निर्माण करना आदि।
तो कुल मिलाकर यह एक जटिलता पैदा करना है। बहुत चीजें आवश्यक होती हैं लेकिन कुछ चीजें अनावश्यक भी होती हैं लेकिन प्रकृति ने हर चीज आवश्यक बनाई है सभी वस्तुएं, सभी के लिए आवश्यक नहीं हैं।

रविवार, 21 जून 2020

Those winter Sunday's

Those Winter Sundays

Robert Hayden

“Sundays too my father got up early

and put his clothes on in the blueblack cold,

then with cracked hands that ached

from labor in the weekday weather made

banked fires blaze. No one ever thanked him.”

(Full poem unable to be reproduced due to copyright)

VOCABULARY

Blueblack — a mixture of a blue and black colour

Austere — harsh, serious, strict, emotionally cold, no comfort or luxury.

Chronic — something that happens all the time, can relate to pain or suffering

Indifferently — not caring or being emotional about something, neither good or bad.

STORY/SUMMARY

Stanza 1: The speaker’s father woke up early on cold Sunday mornings. The father is a physical labourer as he works outside and has sore hands. The persona remarks that nobody was grateful for his effort.

Stanza 2: The persona would hear his father wake up and as the father woke up he would heat the house for the speaker and presumably the rest of the family. The persona also feels the constant pain his father is in, and the house seems to reflect this pain.

Stanza 3: The persona speaks unemotionally to the father, despite the fact that the father put so much effort in to get the house warm and also polished the boy’s shoes. He says he didn’t understand at the time that the father’s behaviour was an act of love because he seemed cold and distant.


Robert Haydon की नज़्म Those Winter Sundays.

का तर्जिमा (on Father's Day)


कड़कती ठंड में इतवार को भी बर्फ़बारी में

सहर होने से पहले बाप मेरा जाग उठता है

पहन लेता है पोशाके-मशक़्क़त रोज़ की अपनी

फटे महनतज़दा हाथों से सुलगाता है आतशदां

कि  हों महफ़ूज़ घर के लोग मौसम की अज़ीयत से,

ग़ज़ब है कोई उसका शुक्रिया तक भी नहीं करता!


मैं उस दम जागता होता हूं और महसूस करता हू़

कि कैसे सर्द रुत का टूटता है क़हर हर जानिब,

मगर जब गर्म हो जाते हैं कमरे आग से  आख़िर

तो वो मुझ को जगाने के लिए आवाज़ देता है

मैं आहिस्ता से उठता हूं, पहनता हूं क़मीज़ अपनी

मुझे इस घर के ग़ुस्से का हमेशा ख़ौफ़ रहता है,


बड़ी ही बेख़्याली से मैं उस से बात करता हूं

वो जिस ने घर से सर्दी को अभी बाहर निकाला है

मिरे जूते भी चमकाए हैं जिस ने अपने  हाथों से!

मैैं क्या जानूं मैं क्या समझूं मैं क्या समझूं मैं क्या जानूं

महब्बत के भी क्या क्या फ़र्ज़ होते हैं निभाने को!!

(मुतरज्जम डा़ के  के रिषि)

ओरहान पमुक पिता के बारे में, अनुवाद-गीत चतुर्वेदी


पिता के बारे में : ओरहान पमुक
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उस रात मैं देर से घर पहुंचा था। पता चला, पिताजी की मृत्यु हो गई है। क़रीब दो बजे रात मैं उनके कमरे में गया, ताकि उन्हें आख़िरी बार देख सकूं। सुबह से फोन आ रहे थे, लोग आ रहे थे, मैं अंत्येष्टि की तैयारियों में लगा हुआ था। लोगों की बातें सुनते हुए, पिताजी के कुछ पुराने हिसाब चुकता करते हुए, मृत्यु के काग़ज़ात पर हस्ताक्षर करते हुए बार-बार मेरे भीतर यही ख़याल आ रहा था, हर क़िस्म की मौत में, मरने वाले से ज़्यादा महत्वपूर्ण, रस्में हो जाती हैं।

एक दिन मैं किसी को बता रहा था, मेरे पिताजी ने मुझे कभी डांटा नहीं, कभी ज़ोर से नहीं बोला, मुझे कभी नहीं मारा। उस समय मुझे उनकी दयालुता के कितने क़िस्से याद आए। जब मैं छोटा था, जो भी चित्र बनाता था, मेरे पिताजी कितनी प्रशंसा के भाव में भरकर उन्हें देखते थे। जब मैं उनकी राय पूछता था, तब वे मेरे लिखे हर वाक्य को इस तरह पढ़ते, जैसे मैंने मास्टरपीस लिख दिया हो। मेरे बेस्वाद और नीरस चुटकुलों पर वह ठहाके लगाकर हंसते थे। अगर बचपन में उन्होंने मेरे भीतर वह विश्वास न भरा होता, मैं कभी लेखक नहीं बन पाता। हम दोनों भाइयों में उन्होंने बचपन से ही यह विश्वास रोपा कि हम होनहार और दूसरों से अलग हैं। वह ख़ुद के बारे में यही सोचते थे कि वह सबसे अलग हैं और उनका मानना था कि हम उनके बेटे हैं, इसलिए हमें भी वैसा ही होना है।

उन्होंने कई किताबें पढ़ी थीं, वह कवि बनना चाहते थे, वैलरी की कविताओं का अनुवाद भी किया था। जवानी में उन्होंने कई किताबें जुटाई थीं और जब मैंने उन्हें पढऩा शुरू किया, तो उन्हें ख़ुशी हुई। वह किताबों को मेरी तरह उत्तेजना में भरकर नहीं पढ़ते थे, बल्कि वह दिमाग़ में चल रहे विचारों को हटा देने और आनंद के लिए पढ़ते थे और ज़्यादातर किताबों को बीच में छोड़ देते थे। दूसरे पिता अपने बच्चों से सेनापतियों की तरह बात करते थे, लेकिन मेरे पिता बताते थे कि कैसे उन्होंने पेरिस की गलियों में सार्त्र और कामू को चलते हुए देखा है। अठारह साल बाद जब मेरा पहला उपन्यास प्रकाशित हुआ, उन्होंने मुझे एक सूटकेस दिया। उसमें उनकी डायरी, कविता, नोट्स और साहित्यिक लेखन था। उन्हें पढक़र मैं बहुत असहज हो गया। वह सब उनके भीतर के जीवन के दस्तावेज़ थे। हम अपने पिता को एक आम इंसान की तरह कभी नहीं देख पाते, हम चाहते हैं कि वह हमेशा हमारे आदर्श के रूप में रहें, जैसा हम उन्हें अपने भीतर बनाते आए हैं।

कॉलेज के दिनों में जब मैं बहुत अवसाद में था, मैं सिर्फ़ उनकी प्रतीक्षा करता था कि वे आएं, डिनर टेबल पर हमारे साथ बैठें और ऐसी बातें बोलें कि हमारा मन खिल उठे। छुटपन में मेरा पसंदीदा शौक़ था कि उन्हें देखते ही मैं उनकी गोद में चढ़ जाऊं, उनकी गंध महसूस करूं और उनका स्पर्श करूं। मैं चाहता था कि मेरे पिता मुझसे कभी दूर न जाएं, फिर भी वह दूर गए।

जब वह सोफ़ा पर बैठकर किताबें पढ़ते थे, कभी-कभी उनकी आंखें पन्ने पर से हटकर कहीं दूर देखने लग जातीं, वह अपने में खो जाते। तब मुझे लगता, मेरे पिता के भीतर कोई और शख़्स भी रहता है, जिस तक मेरी पहुंच नहीं है और वह किसी और ही जीवन के स्वप्न देखता है, तब मुझे बुरा लगता। कभी-कभी वह कहते, मैं उस गोली की तरह महसूस करता हूं, जिसे बिना किसी कारण दाग़ दिया गया है। जाने क्यों मुझे इस बात पर ग़ुस्सा आता था। शायद भीतर ही भीतर मैं उनके इन पहलुओं से दूर भागना चाहता था।

बरसों बाद, जब मेरे भीतर से यह ग़ुस्सा निकल चुका था, मैंने अपने पिता को उस तरह देखना शुरू किया कि उन्होंने कभी हमें डांटा तक नहीं, मारना तो दूर है, मैंने पाना शुरू किया कि हम दोनों के बीच गहरी समानताएं हैं। जब मैं किसी मूर्ख पर गुर्राने लगता हूं, या वेटर से शिकायत करता हूं, या अपने ऊपरी होंठ काटता हूं, या किसी किताब को आधा ही पढक़र छोड़ देता हूं या अपनी बेटी का चुंबन लेता हूं, या जब जेब से पैसे निकालता हूं या किसी अजनबी के स्वागत में हल्की-फुल्की बातें करता हूं, मुझे लगता है, मैं अपने पिता की नक़ल कर रहा हूं। यह नहीं कि मेरे हाथ, पैर, कलाई या मेरी पीठ पर बना तिल उनके जैसा है, बल्कि यह ख़याल ही कई बार मुझे डरा देता है कि मैं तो बचपन से ही उनके जैसा बन जाने की प्रतीक्षा कर रहा था। इंसान की मौत उसी दिन से शुरू हो जाती है, जिस दिन उसके पिता नहीं रहते।

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पिता पर लिखे पमुक के दो निबंधों से चुनिंदा अंश. अनुवाद : गीत चतुर्वेदी, 2014 में नवभारत टाइम्स में प्रकाशित.

सोमवार, 8 जून 2020

ख़ामोशी संतोष पैदा करती है

बहुत दिनों की ख़ामोशी के बाद जब कुछ भी कह नहीं पाया तो महसूस हुआ कि कहना तो होता ही नहीं सब कहा गया है सब लिखा है सब दिख रहा है ।

ख़ामोशी में रहने के बाद एक इत्मिनान पैदा होता है एक संतोष जन्म लेता है और यदि यह महसूस न हो तो समझें आप ख़ामोश नहीं रहे ।
यदि ख़ामोशी के बाद तूफ़ान आने की बात करें यह पागलपन है झुंझलाहट है एक भीतरी भीड़ है जो नकारात्मक विचारों से ठूंस रखी है जो निकलने को बेताब है यह किसी दूसरे ने नहीं भरी थी यह आपने ही भरी थी आपके भीतर कोई ओर कुछ नहीं भर सकता जब तक आपकी इजाजत न हो।।

आकाश में हर तरह का विचार, विरोध, प्रेम सब मौजूद है हमें क्या चाहिए यह हमें निर्धारित करना होता है।

शुक्रवार, 29 मई 2020

बच्चा एक बेतरतीबी पहाड़ होता है उसे उम्र भर कटना होता है ।

मनुष्य का बच्चा जब जन्म लेता है तो वह एक बेढ़ंगा,बेतरतीब सा पहाड़ होता है । उसको आदमी बनने के लिए उम्र के बढ़ते बढ़ते कटना होता है ,घिसना होता है जो जो जितना घिसता है वह उतना ही आदमी बनता रहता है । उसको बहुत शिल्पकारों के हाथों से गुजरना होता है लेकिन यह उस पर निर्भर करता है वह कम या ज्यादा शिल्पकारों के हाथों में जाता है । जो जितने ज्यादा शिल्पकारों के हाथों में जाएगा वह उतना ज्यादा प्रतिशत आदमी बन पाएगा । आदमी बनने के लिए बच्चे को शारीरिक आकार बढ़ाना जरूरी नहीं है हाँ उसको आदमीयत का पहाड़ घिस घिस कर छोटे छोटे टुकड़ों में बदलना होता है जितने छोटे टुकड़े अपने कर पाएगा उतना ही आदमी बनकर काम आएगा । तुम्हें हमेशा घिसते रहना चाहिए टूटना ही बौद्धिक है टूटना काम आना होता है दर्द जीने को खूबसूरत बनाता है दर्द आदमीयत में रंग भरता है उसको चित्रित करता है और आकाश में किरण बनाकर फैला देता है जो कभी न कभी इंद्रधनुष बनकर चमकता है । सूबे सिंह सुजान

मंगलवार, 5 मई 2020

केवल पाँच तत्व ही क्रिया करते हैं मनुष्य कुछ नहीं करते मनुष्य क्रिया में प्रयुक्त सामग्री मात्र है

पुरानी बातों को ढूँढ कर फिर से देखो,जाँच करो,परख करो, उठा कर,इधर -उधर से, प्यार से देखना । यदि ऐसा कर पाये तो आप पायेंगे ये पुरानी बातें भी नयी जैसी ही हैं आपको थोड़ा बहुत अंतर दिखाई देगा जबकि अंतर कुछ भी नहीं होता है यह हमारा पूरी तत्लीनता के साथ,ध्यान के साथ वहाँ तक न पहुँचना होता है यदि पूरा पहुँचा जाये तो कोई भी अंतर न पाओगे । सूरज उसी क्रिया में, धरती उसी क्रिया में ,हवा,जल,आकाश सब उसी क्रिया में लगातार व्यस्त रहते हैं आप कहेंगे वे बदलते हैं? नहीं? वे नहीं बदलते ।वे अपने मन को लगाये रखने के लिए ही अपनी करवटें लेते रहते हैं , कभी इधर तो कभी उधर नजरें घुमा कर देखते हैं , आने जाने वालों को देखते रहते हैं बस यही करते हैं लेकिन बदलते नहीं हैं । क्या हम कपड़े बदलने से बदल जाते हैं ? नहीं न रहते तो वही हैं क्या हम नहाने से बदल जाते हैं नहीं बदलते हैं । हाँ हम कपड़े बदलने के बाद या नहाने के बाद तरोताजा या बहुत स्वस्थ होने का अनुभव करते हैं । यही अनुभव वे पाँचों तत्व करते हैं जिनसे जीवन निर्मित हुआ है जब तक हैं तो सर्वकालिक तो जीवन तत्व ही हैं उन्हीं का रूप जीवन में परिवर्तित होता है वही सत्य हैं । मनुष्य कभी बदलता नहीं है या कोई भी जीव,जैसे सदियों पहले चरित्र थे वैसे ही आज भी हैं,वही भावनायें, क्रोध, मुस्कुराहट, संवेदनशीलता आज भी हैं जो सदियों पहले थी, सबसे सटीक व सबसे पुरानी संस्कृति रामायण,महाभारत में रचित चरित्र या संवेदन भी ऐसे ही थे जैसे आज हैं जिससे यह सिद्ध होता है बदलता कुछ नहीं है केवल भौतिक परिवर्तन होते हैं केवल कपड़े बदलने व नहाने का काम ही होता है और वह भी केवल पाँच तत्वों द्वारा होता है यदि हम कपड़े बदल रहे हैं या नहा रहे हैं वह भी पाँच तत्व ही क्रिया कर रहे हैं । सूबे सिंह सुजान

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2020

नेहरू -"गाँधी सियासत की हवस" नामक पुस्तक का अंश_ लेखक भुवनेश कुमार

ख़ुद को किसानों का हमदर्द समझने वाले अपने भाई सुजान की सेवा में विनम्र निवेदन बड़े ज़ोर-शोर से प्रचारित और महा-झूठ से प्रेरित अन्ध-विश्‍वास यह है; कि ‘किसान’ भारत का अन्नदाता है; इसके उलट तल्ख़ हक़ीक़त यह है; कि सर्व प्रथम वैदिक युग में आर्यों ने ही; अपने प्रभुत्व के आरम्भिक-काल में बड़े पैमाने पर जंगलों को काटकर; खेती को बढ़ावा देने वाली नीति के ज़रिये श्रेष्‍ठ पुरुष को ‘अन्न-दाता’ और श्रेष्‍ठ स्त्री को ‘अन्नपूर्णा’ कहकर गौरवान्वित किया. खेती को सर्वोत्तम व्यवसाय समझकर अपनी लौकिक आस्था के सहारे ही; हमारे समाज ने औद्योगिक और व्यापारिक सम्पन्नता के विविध सोपान चढ़कर भारत को दुनिया भर में ‘सोने की चिड़िया’ के नाम से ख्याति प्रदान करवाई... किन्तु समूचे विश्‍व को एक कुटुम्ब मानकर सभी के सुख की कामना करते हुए; तलवार की बजाय; अध्यात्म से अपने ‘राज्य’ का विस्तार करने वाले ‘विश्‍व-गुरु’ ने ‘आत्म-रक्षा’ की उपेक्षा की क़ीमत अनेक सदियों की अनवरत ग़ुलामी का अवाञ्छित वरण करके चुकाई. मुग़लों से पहले भारत में आने वाले सभी बर्बर लुटेरों ने कभी अज्ञानतावश; धरती के वक्ष पर लहलहाती समृद्ध फ़सलों को अकारण अपने घोड़ों की टापों से रौंदा; तो कभी अहंकारवश उन्हें जलाकर; हमारे परिश्रमी किसानों को हतोत्साहित करने की भरसक चेष्‍टा की... मुग़लों ने भी भारी-भरकम राजस्व और ‘जज़िया’ जैसे अमानुषिक करों के मारक प्रहारों से घनघोर आपदाओं में घिरी होने के बावजूद; अब तक कृषि को ही सर्वोत्तम व्यवसाय मानने वाले भारतीय किसान की कमर तोड़ने की जीजान से कोशिश की; किन्तु कर्मठता से लैस ‘अन्नदाता’ की जिजीविषा पहले की तरह अपराजेय रही और कृषि अधिकांश भारतीय नागरिकों की आजीविका का मुख्य साधन बनी रही... भारत की खेती का सर्वाधिक विनाश पहले लुटेरी ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने; फिर मक्कार अंग्रेज़ी सरकार ने और बाद में ब्रिटिश सरकार के कुटिल उत्तराधिकारी मोती के जारज सपूत जवाहर ने अपने शासन-काल में किया. स्वतंत्र भारत में लालबहादुर शास्त्री के डेढ़ वर्षीय शासन-काल की बहुत छोटी-सी अवधि में अमरीका से अन्न के आयात को रोककर; भारतीय किसान के सहयोग से शुरू की गई ‘हरित क्रान्ति’ के सिवा कदापि कोई ईमानदार कोशिश नहीं हुई. भारतीय किसान के दुर्भाग्य से; युद्ध में हारकर बदनाम हो चुके पाकिस्तान के राष्‍ट्र-पति अयूब ख़ान, जगजीवन राम, यशवन्त राव चव्हाण, स्वर्ण सिंह, ऐलैक्सी कोसीगिन, ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो और ख़ुद को अपनी ख़ानदानी सल्तनत से महरूम समझ रही मोती की ख़ुराफ़ाती पोती इन्दिरा ने ताशकन्द में रची गई साज़िश में परमवीर लालबहादुर को मरवाकर; किसान अन्नदाता के सीने पर अपनी दिग्विजय का झण्डा गाड़ दिया और... लालबहादुर शास्त्री के बाद ख़ुद के किसान होने का दावा करने वाले तमाम सियासतबाज़ किसान कम और ज़मींदार ज़्यादा थे. उन्होंने किसानों के नाम पर मुफ़्त बिजली, सिंचाई-सुविधाओं, ब्याज़-मुक्‍त कर्ज़, सस्ती खाद आदि का अकूत लाभ अपने लगुओं-भगुओं को देने-दिलाने के दुष्कर्म ही अधिक किये हैं... विश्‍व-बैंक के दुलारे, नरसिंह राव के संकट-मोचक, सोनिया के भक्‍त और अन्तर-राष्‍ट्रीय ख्याति वाले महान अर्थ-शास्त्री श्री मनमोहन सिंह के मुबारक क़दम भारत की राजनीति में पड़ते वक़्त (1991 में) खेती कर रहे लोगों में 54 प्रतिशत भूमिहीन-कृषि-मज़दूर थे. तब से अनेक छोटे और ग़रीब किसान लुट-पिटकर भूमिहीन-कृषि-मज़दूरों की बिरादरी में शामिल हो चुके होंगे. इसके बावजूद यदि आजकल भी; कुछ छोटे और ग़रीब किसान रोज़गार के किसी अन्य साधन के न होने के कारण; मजबूरी में खेती के काम में लगे हुए हैं; तो वे अपनी उपज को बेचने की बजाय; केवल अपने गुज़ारे के लिये ही खेती करते हैं. अपनी अति छोटी जोतों के चलते; उनके लिये मण्डी में बेचने के लिये; फ़सल उगाना पूरी तरह असम्भव हो चुका है... मण्डी में बिकने के लिये आई तमाम फ़सलें सम्पन्न और धनी किसानों की होती हैं. ऐसे सभी ‘किसानों’ की खेती को पूरी तरह उजरती खेती कहना चाहिये. इसलिये आज के महान भारत के वास्तविक ‘अन्नदाता’ का पद ‘किसान’ को नहीं; बल्कि ‘भूमिहीन-कृषि-मज़दूर’ को दिया जाना चाहिये... शायद इसीलिये मनमोहन की तरह पढ़-लिखकर ‘बड़ा आदमी’ बनने की तमन्ना करने वाले किसी वाम-पन्थी, दक्षिण-पन्थी, मध्य-पन्थी या (केजरी-छाप) लुप्‍त-पन्थी राज-नेता के मन में इस तथाकथित किसान के लिये किसी प्रकार की मानवीय संवेदना का नामो-निशान भी दिखाई नहीं देता... बोल जमूरे जय-जय; मेरा भारत देश महान... (मेरी प्रकाश्य पुस्तक ‘नेहरू-गाँधी-सल्तनत में सियासत की हवस’ में से उद्धृत) *भुवनेश कुमार* फरीदाबाद

बुधवार, 15 अप्रैल 2020

मनुष्य व उसकी धारणायें

हम पूरे जीवन कुदरत को समझते रहते हैं लेकिन जरूरी नहीं कि फिर भी पूरी तरह समझ जायें । हम जीवन भर भगवान,प्रकृति,धर्म,अधर्म के विषय में अपनी धारणाओं को निर्मित करते रहते हैं लेकिन पूर्णतः नहीं समझ पाते । कुदरत ही शाश्वत है । हम चले जाते हैं लेकिन कुदरत अपने आप में परिवर्तन करती रहती है और शाश्वत बनी रहती है । मनुष्य का यही कर्तव्य होना चाहिए कि कुदरत के बहाव के अनुसार उसके हर कण,संवेदना को समझ कर जीवन को,शाश्वत सत्य समझ कर ,सबके साथ जिये ।

कविता -- असहमतियाँ

असहमतियाँ हमेशा प्रकृति के खिलाफ होती हैं जो हमारी इच्छाओं का पुलिंदा हैं बरसात नहीं आई तो असहमति आई तो असहमति । गर्मी हुई तो असहमति नहीं हुई तो असहमति धूप, हवा, के साथ भी ऐसा ही व्यवहार प्रकट करते हैं । नदियों को मोड़ना मनुष्य की आसानी है किन्तु प्रकृति से छेड़छाड़ है । असहमतियाँ मनुष्य का विस्तार बढ़ाती हैं और प्रकृति को सीमित करती हैं । एक इंजन मनुष्य के काम आसान करता है लेकिन प्रकृति का शोषण करता है । प्रेम के लिए प्रथम भाव में असहमति सहन करना सबसे कठिन है लेकिन सत्य प्रेम ही असहमति सहन करता है जैसे प्रकृति बहुत सहन करती है लेकिन हद से ज्यादा तो प्रकृति भी सहन नहीं करती है वह सीमाओं को लांघने पर रूदन करती है तांडव करती है ।

गुरुवार, 19 मार्च 2020

भारतीय संस्कृति के तत्व व मानव कल्याण की उपयोगिता

भारतीय संस्कृति के मूल तत्वों में कुछ तत्व बहुत गहन चिंतन का विषय आजकल बन रहे हैं यह नयी महामारी करोना वॉयरस के संदर्भ में देखा जा सकता है । 1 झूठा न खाना व पीना -- हमारी संस्कृति में बुजुर्गों को कहते व करते देखा गया है कि कभी किसी दूसरे का झूठा न खायें व पीयें । इसके तात्पर्य यही रहे थे कि हमें दूसरे व्यक्ति से संक्रमण न फैले । यही बात विज्ञान कहता है । 2 नमस्ते व आदर सत्कार का तरीका -- भारतीय समाज व संस्कृति में अतिथि व आगंतुक का स्वागत दोनों हाथ जोड़कर नमस्ते करते हुए किया जाता रहा है । जिसका तात्पर्य यह रहा है कि सामने वाले का पूर्ण आदर किया जा रहा है अपने शरीर के दोनों हाथों को जोड़कर व अमुक व्यक्ति से संक्रमण न फैले इस तथ्य को ध्यान में रखकर हाथ भी न मिलाना पड़े । 3 राम राम कह कर बोलना प्रारंभ करना -- अपरिचित व्यक्ति से राम राम कह कर बोलना प्रारंभ करते थे जिससे सामने वाले अपरिचित व्यक्ति का प्रत्युतर मिलता था व उसके बोलने से ही उसकी भाषा,शैक्षणिक स्तर एवं हावभाव का आभास हो जाता था जिसे परमात्मा से जोड़ दिया था । निष्कर्ष -:- भारतीय संस्कृति के आचार व्यवहार के सिद्धांत मनुष्य की भलाई पर आधारित हैं वे मनुष्य जीवन की पद्धति को विज्ञान की कसौटी पर खरा उतारते हुए जीवन में प्रयुक्त करने को बल देती है एवं प्रत्येक पक्ष विज्ञान पर निर्भर है व उच्च मनुष्यता के गुणों को ग्रहण करके संप्रेषित करती है ।

मंगलवार, 17 मार्च 2020

करोना नई बात नहीं है यह मनुष्य के अप्राकृतिक होने का उदाहरण है ।

मनुष्य प्रकृति का अभिन्न अंग है आप ऐसे समझें कि जैसे कोई भी जीव,पेड़ -पौधा या तिनका मात्र यहाँ पृथ्वी पर उपस्थित है वैसे ही मनुष्य भी उपस्थित है । मनुष्य की कठिनाई यहाँ से शुरू होती है जब मनुष्य स्वयं को पृथ्वी पर उपस्थित अन्य वस्तुओं से भिन्न व विशेष समझने लगता है यही वह स्थिति है जिसे अहंकार भी कहा गया है मनुष्य जीवन के प्रारब्ध से बहुत विशाल शरीर का मालिक रहा है और शरीर को स्वस्थ रखने के लिए वैसे ही इसका प्रयोग करता रहा है जैसे कोई भी पशु या पक्षी अपने शरीर का इस्तेमाल करते हुए आप देखते होंगे । लेकिन आजकल जबसे मनुष्य ने पशुओं का अपने बाजारीकरण के लिए प्रयोग करना शुरू किया है तबसे मनुष्य के कब्जे में पशुओं की दशा भी मनुष्यों जैसी हो गई है । परंतु वर्तमान समय में मनुष्य शरीर का प्रयोग करना बंद कर चुका है और इसकी अपेक्षा बीमारियों से बचने के लिए दवाईयों का बेतहाशा प्रयोग मजबूरी वश करता है मनुष्य अपने प्राकृतिक कार्यों को न करके अप्राकृतिक, अमानवीय कार्यों को कर रहा है जिसके परिणामस्वरूप मनुष्य को स्वस्थ रहने के लिए प्रकृति से सहयोग कम मिल रहा है क्योंकि मनुष्य प्रकृति से बाहर जा रहा है अलग थलग हो रहा है प्रकृति से आत्मसात ही जीवन है वह पृथ्वी से घुल मिल कर ही सजग रह सकता है वरना खंडित हो जाएगा । मनुष्य की आयु, आकार, मन मस्तिष्क, स्मरण शक्ति, व खान पान सब कम हो रहा है । यह सब मनुष्य की प्रकृति में बदलाव के कारण ही संभव हो रहा है । करोना जैसी महामारी मनुष्य की अप्राकृतिक छेड़छाड़ का परिणाम ही तो है ।मनुष्य को करोना पर जीत पाने के लिए सजग होकर प्रकृति से सहजता बनाकर उसका अंग बनकर ही रहना होगा ।