रविवार, 9 दिसंबर 2018

रोड़ जाति का प्रामाणिक इतिहास । जो कि आनुवांशिक रूप से बेहद दुर्लभ व व्यावहारिक विज्ञान पर आधारित है

सिंधु घाटी में पश्चिम से आए थे रोड़ समुदाय के लोग                                                                  

 
यूनिवर्सिटी ऑफ तारतू के शोधकर्ताओं की टीम
सिंधु घाटी सभ्यता वर्षों से इतिहासकारों और पुरातत्वविदों के शोध का विषय रही है। कुछ वर्षों से आनुवांशिक शोधकर्ता भी इस पर काम कर रहे हैं। एक नये शोध से पता चला है कि सिंधु घाटी की आनुवांशिक विविधता में रोड़ समुदाय की मुख्य भूमिका रही है।
रोड़ समुदाय राजस्थान और हरियाणा के विभिन्न क्षेत्रों में फैला हुआ है और ऐसा माना जाता है कि वैदिक काल से यह समुदाय इसी क्षेत्र में रह रहा है। इसीलिए वैज्ञानिकों का मानना है कि रोड़ समुदाय की आनुवांशिक बनावट में एक निरंतरता है।
अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिकों द्वारा किए गए शोध से पता चला है कि रोड़ समुदाय सिंधु घाटी में कांस्य युग के दौरान यूरोपीय क्षेत्रों से आया था। इनके आने से सिंधु घाटी में पहले से रह रहे गुज्जर, जाट, काम्बोज और खत्री समुदाय की आनुवांशिक विविधता में बदलाव आया। यही कारण है कि सिंधु घाटी में रहने वाले विभिन्न समुदायों के आनुवांशिक फलक पर रोड़ अपनी यूरेशियन आनुवांशिक विशेषताओं के कारण आज भी अलग दिखाई देते हैं।
इस शोध में यह भी पाया गया है कि सिंधु घाटी और गंगा के मैदानी भागों में रहने वाले समुदायों के बीच एक आनुवांशिक संबंध है। इसका कारण सिंधु घाटी के पतन के बाद वहां रहने वाले समुदायों के गंगा के मैदानी इलाकों में पलायन को माना गया है।

डॉ अजय कुमार पाठक (बाएं) और डॉ ज्ञानेश्वर चौबे (दाएं)
" वैज्ञानिकों ने वर्तमान में यहां रह रहे गुज्जर, जाट, काम्बोज और खत्री जैसे सिंधु घाटी के समुदायों के डीएनए की तुलना यूरोपीय मूल के प्राचीन काल के डीएनए नमूनों से की है। रोड़ समुदाय के डीएनए के नमूने कुरुक्षेत्र के आसपास के इलाकों से लिए गए हैं।"
रोड़ समुदाय की उत्पत्ति गुजरात और राजस्थान के सीमवर्ती क्षेत्रों में मानी जाती है और ऐतिहासिक रूप से सिंध के रोड़ इलाके में इस समुदाय की आबादी अधिक रही है। वर्तमान में भारत में रोड़ समुदाय की कुल जनसंख्या 7.5 लाख मानी जाती है।
भारत में ऐतिहासिक डीएनए नमूनों की कमी है, इसीलिए वैज्ञानिकों ने वर्तमान में यहां रह रहे गुज्जर, जाट, काम्बोज और खत्री जैसे सिंधु घाटी के समुदायों के डीएनए की तुलना यूरोपीय मूल के प्राचीन काल के डीएनए नमूनों से की है। रोड़ समुदाय के डीएनए के नमूने कुरुक्षेत्र के आसपास के इलाकों से लिए गए हैं। इस अध्ययन के नतीजे अमेरिकन जर्नल ऑफ ह्यूमन जेनेटिक्स में प्रकाशित किए गए हैं।
प्रमुख शोधकर्ता डॉ अजय कुमार पाठक ने इंडिया साइंस वायर को बताया कि “इस अध्ययन के लिए एकत्रित किए गए डीएनए आंकड़े और पूर्व अध्ययनों से मिली जानकारियों से यह साफ हो जाता है कि रोड़ समुदाय उत्तर भारतीय वंशावली को समझने की महत्वपूर्ण कड़ी है।”
इस अध्ययन से जुड़े एक अन्य शोधकर्ता डॉ ज्ञानेश्वर चौबे के अनुसार, “अभी चल रहे आनुवांशिक अध्ययनों से यह स्पष्ट हो जाएगा कि सिंधु घाटी में रहने वाले समुदाय कहां से आए थे और कैसे वे भारत के अन्य क्षेत्रों में फैल गए।”
इस अध्ययन में वाराणसी स्थित बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय, लखनऊ स्थित बीरबल साहनी पुराविज्ञान संस्थान और एस्टोनिया स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ तारतू के वैज्ञानिक शामिल थे। शोधकर्ताओं में डॉ पाठक तथा डॉ चौबे के अलावा, मानवेंद्र सिंह, प्रमोद कुमार, नीरज राय, मयंक मंडल, लिंडा ओंगारो, जूरी पारिक, एनी मेत्सपालु, सिरी रूत्सी, मेत मेत्सपालु, एलिना कुश्निआरेविच, फ्रैंसेस्को मॉन्टिनारो, लुका पागानी, टूम्स किविसिल्ड और रिचर्ड विलेम्स शामिल थे। इंडिया साइंस वायर

http://vigyanprasar.gov.in/isw/haryanas-rors-brought-western-flavour-to-indus-valley-hindi.html 

मंगलवार, 4 दिसंबर 2018

ASHARA UL HAQ MAJAJ LAKHNVI  ....

हिजाबे फतना परवर अब उठा लेती तो अच्छा था।
 खुद अपने हुस्न को परदा बना लेती तो अच्छा था

 तेरी नीची नजर खुद तेरी अस्मत की मुहाफज है।
 तू इस नश्तर की तेजी आजमा लेती तो अच्छा था

 यह तेरा जर्द रुख, यह खुश्क लब, यह वहम, यह वहशत।
 तू अपने सर से यह बादल हटा लेती तो अच्छा था

 दिले मजरुह को मजरुहतर करने से क्या हासिल? 
तू आँसू पोंछ कर अब मुस्कुरा लेती तो अच्छा था

 तेर माथे का टीका मर्द की किस्मत का तारा है। 
अगर तू साजे बेदारी उठा लेती तो अच्छा था

 तेरे माथे पे यह आँचल बहुत ही खूब है लेकिन।
 तू इस आँचल से एक परचम बना लेती तो अच्छा था।


- मजाज़ लखनवी   >
MAJAJ LAKHNVI  sahb ko suniye    jagjit singh ki aawaj men...
                                  शहर की रात और मैं, नाशाद-ओ-नाकारा फिरूँ 
जगमगाती जागती, सड़कों पे आवारा फिरूँ 
ग़ैर की बस्ती है, कब तक दर-ब-दर मारा फिरूँ 
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ 

झिलमिलाते कुमकुमों की, राह में ज़ंजीर सी 
रात के हाथों में, दिन की मोहिनी तस्वीर सी 
मेरे सीने पर मगर, चलती हुई शमशीर सी 
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ 

ये रुपहली छाँव, ये आकाश पर तारों का जाल 
जैसे सूफ़ी का तसव्वुर, जैसे आशिक़ का ख़याल 
आह लेकिन कौन समझे, कौन जाने जी का हाल 
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ 

फिर वो टूटा एक सितारा, फिर वो छूटी फुलझड़ी 
जाने किसकी गोद में, आई ये मोती की लड़ी 
हूक सी सीने में उठी, चोट सी दिल पर पड़ी 
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ 

रात हँस – हँस कर ये कहती है, कि मयखाने में चल 
फिर किसी शहनाज़-ए-लालारुख के, काशाने में चल 
ये नहीं मुमकिन तो फिर, ऐ दोस्त वीराने में चल 
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ 

हर तरफ़ बिखरी हुई, रंगीनियाँ रानाइयाँ 
हर क़दम पर इशरतें, लेती हुई अंगड़ाइयां 
बढ़ रही हैं गोद फैलाये हुये रुस्वाइयाँ 
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ 

रास्ते में रुक के दम लूँ, ये मेरी आदत नहीं 
लौट कर वापस चला जाऊँ, मेरी फ़ितरत नहीं 
और कोई हमनवा मिल जाये, ये क़िस्मत नहीं 
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ 

मुंतज़िर है एक, तूफ़ान-ए-बला मेरे लिये 
अब भी जाने कितने, दरवाज़े है वहां मेरे लिये 
पर मुसीबत है मेरा, अहद-ए-वफ़ा मेरे लिए 
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ 

जी में आता है कि अब, अहद-ए-वफ़ा भी तोड़ दूँ 
उनको पा सकता हूँ मैं ये, आसरा भी छोड़ दूँ 
हाँ मुनासिब है ये, ज़ंजीर-ए-हवा भी तोड़ दूँ 
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ 

एक महल की आड़ से, निकला वो पीला माहताब 
जैसे मुल्ला का अमामा, जैसे बनिये की किताब 
जैसे मुफलिस की जवानी, जैसे बेवा का शबाब 
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

दिल में एक शोला भड़क उठा है, आख़िर क्या करूँ 
मेरा पैमाना छलक उठा है, आख़िर क्या करूँ 
ज़ख्म सीने का महक उठा है, आख़िर क्या करूँ 
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ 

मुफ़लिसी और ये मज़ाहिर, हैं नज़र के सामने 
सैकड़ों चंगेज़-ओ-नादिर, हैं नज़र के सामने 
सैकड़ों सुल्तान-ओ-ज़बर, हैं नज़र के सामने 
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ 

ले के एक चंगेज़ के, हाथों से खंज़र तोड़ दूँ 
ताज पर उसके दमकता, है जो पत्थर तोड़ दूँ 
कोई तोड़े या न तोड़े, मैं ही बढ़कर तोड़ दूँ 
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ 

बढ़ के इस इंदर-सभा का, साज़-ओ-सामाँ फूँक दूँ 
इस का गुलशन फूँक दूँ, उस का शबिस्ताँ फूँक दूँ 
तख्त-ए-सुल्ताँ क्या, मैं सारा क़स्र-ए-सुल्ताँ फूँक दूँ 
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ 

जी में आता है, ये मुर्दा चाँद-तारे नोंच लूँ 
इस किनारे नोंच लूँ, और उस किनारे नोंच लूँ 
एक दो का ज़िक्र क्या, सारे के सारे नोंच लूँ 
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ  

https://www.youtube.com/watch?v=BMzTmp97F6E

What budhha wanted to know महात्मा बुद्ध ने क्या जाना

After seeing the four great ills Young Prince Gautum was perplexed,anxious and frustrated.I will refrain from saying afraid but I know that it is horryfying to realize that you crumble into nothingness after suffering all the while.He asked himself :
If all powerful and lets it so, then he is not good
and if he is not good then he is not God.
Being a deeply spiritual and religous individual it is perhaps the most stressfull Query I am faced with everytime there is a tragedy that leaves hundreds,thousands and sometimes lakhs suffering for no apparent folly.It can be explained by Karma but if  we look at it rationally it is impossible that all the fishermen,women and children who died in the tsunami comitted the same quantum of error to deserve a similiar fate.Such an act when committed by nature instills in us all the same emotions as one would feel when people are shot at or bombed in a terror episode but the subsequent feelings are quite different.While people thank their stars and God for saving them from a Tsunami they would never do the same if a terrorist let them be.An explanation that I have is quite simplistic – if a Human cannot give life he also does not have the right to take it.But then it is not quite simple when you say by the same logic that if God gives us life he can take it at the time and place of his choosing.Is it some sort of a cosmic sport ?
I really do not know what the answer is but each time I look at a new born I am convinced of the existence a loving power that smiles at me as if teasing me to scratch my head a little more and saying “keep looking,you will know”.
I promise myself that I will do exactly that.I will keep looking . 

taged philoshphy

Madhushala by dr. haivansh rai bachchan

Apne yug mein sabko anupam gyaat hui apni haala,
Apne Yug mein sabko adbhut gyaat hua apna pyaala,
Phir bhi vridhon se jab poocha ek yehi uttar paya,
ab na rahe woh peenewale ab na rahi woh Madhushala.
Kitini Jaldi rang badalti hai apna chanchal haala,
Kitni Jaldi Ghisne Lagta haathon mein aakar pyaala,
Kitni Jaldi saki ka aakarshan ghatne lagta hai,
Praat nahin thi vaisi jaisi raat lagi thi madhushala.
Uss pyaale se pyaar mujhe jo dur hatheli se pyaala,
Uss haala ka chaav mujhe jo dur adhar mukh se haala,
Pyaar nahin pa jaane mein hai,Paane ke armanon mein,
Pa jaata tab haay na itni pyaari lagti madhushala.
Beautiful lines from one of my favourite poets Dr Bachchan.What I love about these lines is that they represent the true nature of our mindplay.We exist at multiple levels and the surprise is we ourselves do not know how many.This nature exibits itself very early when you are a child.As soon as you get the cycle it ceases to fire your imagination anymore.In fact you do not even wish to look at it after a couple of months.But sadly fail to recognise this fleeting aspect of our feelings……Kitni jaldi saki ka aakarshan ghatne lagta hai.When you are young you woo a girl and it feels like heaven when you are actually able to be freindly with her.But as the relation ship gets stronger and more intimate you recognize that your desire is diminishing by the minute.Blaming it on your wrong judgement you compromise and start living as if a stranger in your own home and start chasing another rainbow.If only I was the CEO of a MNC ……..If only I was the wealthiest and most influential man …..if only my children would love me…….If only I would die a peaceful death ! And then you ask yourself :
Praapya nahin hai to ho jaati lupt nahin phir kyun haala,
Praapya nahin hain to ho jaata lupt nahin phir kyun pyaala,
Dur na itni himmat haaroon Paas na itni Pa jaoon,
Vyarth mujhe daudati maru main mrig jal bankar madhushala.
To Listen to the recital of Madhushala By Amitabh Bachchan Pls copy and paste below link on your browser.Press enter :
http://www.esnips.com/doc/01a8dac9-0dce-42cd-b5bc-2c72586f4daa/madhushala
http://in.youtube.com/watch?v=cr7kLxTPjG0&feature=relatet , , , 

Going far means returning

I had always heard the words Yin and Yang knowing that they had something do with the Chinese philosophy and they represented the opposites.But today while reading the Tao of Physics I understood the meaning in depth and was overwhelmed by the profoundness of thought and its representation in our everyday life.The principle characterstic of the Tao is the cyclic nature of its ceaseless motion and change.”returning is the motion of Tao”says LaoTzu,and “Going far means returning”.
The idea is that all developments in nature,those in physical world as well as those of human situations,show cyclic patterns of coming and going,of expansion and contraction.It is deduced from the movement of sun and moon,change in seasons to be ultimately taken as a rule of life.Whenever a situation develops to its extreme ,it is bound to turn around and become its opposite.Thus it is better to have too little than to have too much,and better to leave things undone than to overdo them.Just as the man who travels farther in the east will end up in the west,those who accumulate more and more money will end up being poor – not necessarily in the same dimension.Modern industrial society which has continously aimed at improving the standard of life for all its members has finally ended up in leaving us all at the brink of an environmental disaster.
The idea of cyclic patterns in the motion of Tao( the energy flow)was given a definite structure by the introduction of polar opposites yin and yang.The original meaning of the words yin and yang was that of the shady and sunny side of a mountain.Thus :
That which lets now the dark,now the light appear is Tao.
In the realm of thought yin is the complex,female,intuitive mind,yang the clear and rational male intellect.Yin is the quite,contemplative stillness of a sage,yang the strong,creative action of the king.
Linking it with my personal experience I found the premise to be true in almost all that one experiences during a lifetime.There is joy and sorrow,success and failure,love and hate,agony and ecstasy,ignorance and knowledge,hope and despair…………Life and death.
And if you examine it carefully it is one that lets us appreciate the other.If there was no sorrow in failure we would not know the joy of success.If we did not go through the agony of hate we would not know the ecstasy of love.If we did not feel the despair of death we would not hope for a life well lived.

Is there a God ?

An atheist professor of philosophy speaks to his class on the problem science has with God, The Almighty.He asks one of his new students to stand and …..
Prof: So you believe in God?
Student: Absolutely, sir.
 Prof: Is God good?
Student: Sure. 
Prof: Is God all-powerful?
 Student: Yes. 
Prof: My brother died of cancer even though he prayed to God to heal him. 
Most of us would attempt to help others who are ill. But God didn’t. How is this God good then? Hmm?
 (Student is silent.)
 Prof: You can’t answer, can you? Let’s start again, young fellow. Is God good?
 Student: Yes.
 Prof: Is Satan good?
 Student: No.
 Prof: Where does Satan come from?
 Student: From…God…
 Prof: That’s right. Tell me son, is there evil in this world?
 Student: Yes.
 Prof: Evil is everywhere, isn’t it? And God did make everything.Correct?
 Student: Yes.
 Prof: So who created evil?
 Student does not answer.
 Prof: Is there sickness? Immorality? Hatred? Ugliness? All these terrible things exist in the world, don’t they?
Student: Yes, sir.
 Prof: So, who created them?
 Student has no answer.
 Prof: Science says you have 5 senses you use to identify and observe the world around you. Tell me, son…Have you ever seen God?
 Student: No, sir.
 Prof: Tell us if you have ever heard your God?
 Student: No, sir.
 Prof: Have you ever felt your God, tasted your God, smelt your God? Have you ever had any sensory perception of God for that matter?
 Student: No, sir. I’m afraid I haven’t.
 Prof: Yet you still believe in Him?
 Student: Yes.
 Prof: According to empirical, testable, demonstrable protocol, science says your GOD doesn’t exist. What do you say to that, son?
 Student: Nothing. I only have my faith.
 Prof: Yes. Faith. And that is the problem science has.
 Student: Professor, is there such a thing as heat?
 Prof: Yes.
 Student: And is there such a thing as cold?
 Prof: Yes.
 Student: No sir. There isn’t.
 (The lecture theatre becomes very quiet with this turn of events.)
 Student: Sir, you can have lots of heat, even more heat, superheat, mega heat, white heat, a little heat or no heat. But we don’t have anything called cold. We can hit 458 degrees below zero which is no heat, but we can’t go any further after that. There is no such thing as cold. Cold is only a word we use to describe the absence of heat. We cannot measure cold. Heat is energy. Cold is not the opposite of heat, sir, just the absence of it.
 (There is pin-drop silence in the lecture theatre.)
 Student: What about darkness, Professor? Is there such a thing as darkness?
 Prof: Yes. What is night if there isn’t darkness?
 Student: You’re wrong again, sir. Darkness is the absence of something.
You can have low light, normal light, bright light, flashing light….But if you have no light constantly, you have nothing and it’s called darkness, isn’t it? In reality, darkness isn’t. If it were you would be able to make darkness darker, wouldn’t you?
 Prof: So what is the point you are making, young man?
 Student: Sir, my point is your philosophical premise is flawed.
 Prof: Flawed? Can you explain how?
 Student: Sir, you are working on the premise of duality. You argue there is life and then there is death, a good God and a bad God. You are viewing the concept of God as something finite, something we can measure. Sir, science can’t even explain a thought. It uses electricity and magnetism, but has never seen, much less fully understood either one. To view death as the opposite of life is to be ignorant of the fact that death cannot exist as a substantive thing. Death is not the opposite of life: just the absence of it. Now tell me, Professor. Do you teach your students that they evolved from a monkey?
 Prof: If you are referring to the natural evolutionary process, yes, of course, I do.
 Student: Have you ever observed evolution with your own eyes, sir?
 (The Professor shakes his head with a smile, beginning to realize where the argument is going.)
 Student: Since no one has ever observed the process of evolution at work and cannot even prove that this process is an on-going endeavor, are you not teaching your opinion, sir? Are you not a scientist but a preacher?
(The class is in uproar.)
 Student: Is there anyone in the class who has ever seen the Professor’s brain? (The class breaks out into laughter.)
 Student: Is there anyone here who has ever heard the Professor’s brain, felt it, touched or smelt it? No one appears to have done so. So, according to the established rules of empirical, stable, demonstrable protocol, science says that you have no brain, sir. With all due respect,
Sir, how do we then trust your lectures, sir?
 (The room is silent. The professor stares at the student, his face unfathomable.)
 Prof: I guess you’ll have to take them on faith, son.
 Student: That is it sir… The link between man & god is FAITH. That is all that keeps things moving & alive.
 WANT TO KNOW WHO THAT STUDENT WAS ?
 This is a true story, and the student was none other than………
 Dr. APJ Abdul Kalam, the Ex president of India

गुरुवार, 29 नवंबर 2018


अंबेडकर और गाँधी समाज के नायक हैं ।

भारतीय समाज के वर्तमान परिदृश्य में अंबेडकर व गाँधी की आवश्यकता शिद्दत से महसूस की जा रही है पिछले कुछ समय से यह मसहूस किया जा रहा कि महात्मा गाँधी ने भारत के बंटवारे व अन्य देशभक्तों के साथ जो जो अन्याय में  उन्होने अनदेखा किया है वह भारतीय जनमानस में एक पक्ष सहन नहीं कर पा रहा है वास्तव में जिस के साथ गुजरती है वह जानता है कि उसने अपना सब कुछ परिवार आदि देश के लिये खो दिया लेकिन गाँधी जी उस समय ऐसे मकाम पर थे कि उनके कहे को सुना जाता था लेकिन कुछ ऐसे निर्णय उन्होंने उस समय में लिये जो सबको हैरान करने वाले रहे हैं उस सब कुछ के बाद भी उनका दर्शन बहुत महत्वपूर्ण है विश्व उनके सिद्धांतों से परिचित है और उनकी आवश्यकता को महसूस करता है हम यह भी मान कर चलते हैं कि गाँधी की चुप्पी गलत रही है लेकिन उनके अनेकों कार्य ऐसे रहे हैं जिनके आगे उनकी कमियाँ छोटी पड़ जाती हैं और उनके दर्शन को मान कर हम वर्तमान भारतीय समाज को नई राह दिखाने में जितना भी सहायक हो सकता है उसकी भरपूर सहायता को स्वीकार किया जाये और उनको कहा व सुना जाने की आवश्यकता है भारतीय समाज को विभिन्न विदेशी सरकारी ताकतें, धार्मिक,उग्रवाद आदि विखंड़ित करने में पूरजोर कोशिशें कर रही हैं और वे कामयाब भी हो रही हैं हमें अपने समाज को एक करने में महात्मा गाँधी की भूमिका का लाभ लेना होगा जो कि आज भी भारतीय समाजिक दायरे पर प्रभाव रखता है समाज को नई दिशा देने में उनकी शिक्षाओं को पुनः प्रचारित किया जाना चाहिये।  
                          दूसरे बड़े कद में डाँ बी आर अंबेडकर साहब आते हैं इनका योगदान भारतीय संविधान के अलावा अनेकों समाजिक कुरीतियों को दूर करने में सहयोगी रहा है यह वर्तमान समाज को एक करने में, देश की प्रगति को उच्च स्तर तक पहुँचानें में सहयोगी रहेगा उनके कहने से , उनके पढ़ने से , उनकी शिक्षाओं को प्रचारित करके हम समाज को पुनः एकिकृत कर सकते हैं जो समाज आज के समय में विखंड़ित हो रहा है जिसे बाहरी शक्तियाँ नष्ट करने में लगी हुऊ हैं जिसमें कुछ राजनीतिक शक्तियाँ बढ़ावा देती आई हैं उनसे बचने की आवश्यकता है व अंबेड़कर के भारतीय सिद्धांतों को अपना कर पूरा किया जा सकता है इनको भी समाज के एक पक्ष को ग्रहण करना होगा जो कि बहुत ही जरूरी है समाज के सभी पक्षों को दोनों महापुरूषों को वर्तमान के परिदृश्य में स्वीकार करना होगा ।
                                                                 सूबे सिंह सुजान    

गुरुवार, 22 नवंबर 2018

उनके कहने से जो हर बात सही होती है ... ग़ज़ल सूबे सिंह सुजान

                                 ग़ज़ल     

उनके कहने से जो हर बात सही होती है  
तो मैं ये समझूँ के सब उनकी कही होती है 

हम जिसे जाँच परख़ देख रहे होते हैं 
बाद उसके भी परख़ बाक़ी रही होती है 

ज़िन्दगी मुझसे यूँ तो रूठ गई है बेशक  
दिल की इन धड़कनों में फिर भी वही होती है 

अपनी नाक़मी का इल्ज़ाम जो ओरों को दे 
सच में उसने कोई कोशिश की नहीं होती है 

मुँह से जो बोलते हैं सच वो नहीं होता है 
दिल में जो बात है चेहरे पे वही होती है    


    शायर                                सूबे सिंह "सुजान"  

शिक्षा दिवस मनाया जाने के दिन नजदीक आ रहे हैं


सच में एक दिन बहुत जल्द ही *शिक्षा दिवस* मनाने की आवश्यकता पड़ने वाली है ।
क्योंकि शिक्षा तो गायब ही हो रही है हर रोज शिक्षकों को शैक्षणिक कार्यों से दूर किया जा रहा है ।
गोया जो जो भाषा,संस्कृति,गुरू गुजरने या अंतिम समय में लगते हैं हम उन्हें बचाने की मुहिम को दिवस के रूप में मनाते आये हैं और मनाने का अर्थ बहुत ज्यादा यह लगता है कि हम अपनी कोशिशों को तिलांजलि दे देते हैं ।
सरकार व विभागीय अधिकारियों की कोशिश ही जिम्मेदार होती है लेकिन हम शिक्षक लोग बड़े आराम से अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लेते हैं जबकि समाज में किसी भी रीति रिवाज़ या संस्कृति को मारने में सब हिस्सेदारी में होते हैं  खैर कुछ तो मकसद दिवस मनाने के अच्छे भी होते हैं यदि सकारात्मक रूप से हर जगह इस्तेमाल किये जायें तो ।
मुझे लगता है हमारे नेताओं से ज्यादा हमारे विभागीय अधिकारियों की कमियाँ ज्यादा होती हैं किसी भी परिपाटी को शुरू करने या बंद करने में और ये परिपाटी या आदेश ही अच्छा या बुरा मोड़ देते हैं ।
नेतागण तो चंद रोज होते हैं बदल जाते हैं ।
और हमारे कर्मचारी,संस्था,समाज सारा फोकस सरकार व नेताओं को देते हैं जिस कारण दोष समाज में पनपते ही रहते हैं और बीमारियाँ लाइलाज हो जाती हैं । हम समाज के जो जागरूू लोग हैं हम भी नेेेता के ही पीीछे पड़ कर तक गये हैैं हम बहुुुत बार स्वयं को ही समझदार 
समझ बैठते हैं और निशाना चूक हो रही होती है अब हमें ये निशाना चूक ठीक करनी होगी तभी कुछ हालात बदलेंगें।

सूबे सिंह सुजान

रविवार, 14 अक्तूबर 2018

ग़ज़ल - सपने हैं काँच के जरा रखना संभाल कर

सपने हैं काँच के जरा रखना संभाल कर 
जीना पड़ेगा,दिल से,महब्बत निकला कर 

मैंने कहा था इतना कि चलना संभाल कर 
वो देखने लगे मुझे आँखें निकाल कर 

मुझसे जो दोस्ती करो तो ध्यान रखना ये 
किस्मत को आँकना मेरी सिक्का उछाल कर 

कीटाणु दिल के पानी में इतने पनप गये 
पीने दे अब मुझे भी महब्बत उबाल कर 

अपनी ग़ज़ल में मैं तेरी बातें भी करता हूँ 
ग़ज़लों को सुन मेरी, और खुद को निहाल कर 

अपनी कहानी कहनी है तो कहना अपने आप 
लेखक नहीं कहे तो न इसका मलाल कर 

चालाकियाँ पहुँच गई ऐसे मुकाम पे 
सब खेलते हैं ताश से पत्ते निकाल कर 

क्या प्यार है कि दोस्त भी पहचानते नहीं 
चेहरे पे मेरे कौन गया रंग डाल कर 

ऐ आने वाली नस्लों तुम्हें हैं संभालने 
हम दे रहे तुम्हें नये रस्ते निकाल कर 

    *सूबे सिंह "सुजान"*
*कुरूक्षेत्र हरियाणा*
  *मोबाइल*  *9416334841*
*email* *subesujan21@gmail.com*

https://youtu.be/Tz_4M72uJ-M 

https://youtu.be/Tz_4M72uJ-M



मंगलवार, 18 सितंबर 2018

रविवार, 26 अगस्त 2018

प्रेमिकाओं की यादें

मैं जब सोने को लेटता हूँ नींद का इंतजार करता हूँ और नींद आने में देर लगाती है तो मुझे उस वक्त प्रेमिकाओं की यादें आने लगती हैं पहले तो पहली प्रेमिका यादों में आती है वो ऐसी प्रेमिका रही है जैसे कभी उससे कुछ भी लेने की इच्छा आज तक नहीं पैदा हुई ,बस सारी कोशिश उसे खुद को समझाने में लगा दी लेकिन जिन्दगी के महत्वपूर्ण दिनों में भी मैं उसे समझा ही नहीं पाया क्योंकि उसने मुझे समझने की तरफ कदम ही नहीं बढ़ाया और ये पागल दिल मेरा आज भी सबसे पहले,नींद से भी पहले उसी को याद करता है और वो याद आती है तो दुनिया की खबर आने लगती है और नींद गायब हो जाती है ।
उसको केवल देखा ही है और यही बहुत है बहुत यूँ कि अब तक वही तो है सबकुछ, जो यादों में भी,कविताओं में भी, जीवन दर्शन में भी है ।

सोचता हूँ कि लोग कौन सी प्रेमिका को पसंद करते होंगे यथार्थ जो अधिकतर देखने को मिलता है वह तो ऐसा नहीं लगता जैसा मेरा है लेकिन मैं सबको समझने की कोशिश क्यों करता हूँ ?मालूम नहीं ।
हो सकता है मुझे भी बहुतों ने समझा हो या समझने की कोशिश की हो ।
खैर आगे चलिये ।

फिर दूसरी प्रेमिका याद आती है जो मुझे चाहती थी लेकिन मैं उसे यही नहीं समझा सका कि मैं किसी को प्यार करता हूँ और वो मुझे प्यार नहीं करती लेकिन उसे मेरी बातों से कोई मतलब नहीं था वो मुझे प्यार देना चाहती थी और ये समझाना चाहती थी कि तुम उसके पीछे मत दौड़ो जो तुम्हारा नहीं है और मैं उसकी यही बात नहीं समझ सका और उसे नाराज कर दिया ।

बरसों बाद मुझे सोने से पहले सारी बातें याद आ रही हैं तो पता चलता है कि दूसरी प्रेमिका यथार्थ थी और उसे नाराज करना मेरी मूर्खता थी खैर कहीं न कहीं मूर्ख एक समय में सब होते हैं जो यह सोचते हैं कि उन्होंने प्रेमिकाओं को खूब भोगा है वे भी बाद में पश्चाताप करते रहे होंगे और अपनी मूर्खता पर गुस्सा होते रहे होंगे ।
लेकिन ये प्रेमिकाएँ ही दुनिया बनाती हैं ऐसा तो नहीं है हाँ दुनिया को मनोरंजक तो जरूर बनाती हैं मुझे पेड़ों से भी प्यार हो जाता है तो उनको भी मैं दुनिया को खूबसूरत बनाने के लिए प्रेमिका से ज्यादा धन्यवाद करता हूँ बेल जब पेड़ों पर चढ़ती है तो बहुत खूबसूरत गहना बनकर पेड़ को सजा देती है मैं ऐसे दृश्य को देखकर मंत्रमुग्ध होता रहता हूँ लेकिन जब यह देखता हूँ कि लोग इस दृश्य को और इस दृष्टिकोण से नहीं देख रहे हैं तो दुनिया पर हँसते हुए आगे चलता हूँ ।


सोमवार, 23 जुलाई 2018

अदबी संगम कुरूक्षेत्र ने गोपालदास नीरज को दी श्रद्धांजलि

कुरूक्षेत्र - आज दिनांक 22 जुलाई को अदबी संगम कुरूक्षेत्र की मासिक काव्य गोष्ठी श्री दीदार सिंह कीरती जी की अध्यक्षता में अखंड गीता धाम सेक्टर आठ, कुरूक्षेत्र में हुई जिसमें सर्वप्रथम साहित्य जगत के चितेरे गीतकार गोपालदास नीरज को भावभीनी श्रद्धांजलि दी गई श्री गुलशन कुमार ग्रोवर जी ने यह पंक्तियाँ गायी ।

 "अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाये,
जिसमें इनसान को इनसान बनाया जाये ।"

श्री आर के शर्मा ने गोपालदास नीरज की कविताओं व गीतों को सुनाकर महफ़िल को मदमस्त करते हुए गीतों में श्रद्धांजलि दी ।

 आज की काव्य गोष्ठी में डॉ बलवान सिंह ने वर्तमान परिदृश्य पर कविता में कहा -
 "वो बोले मगर संसद में भूचाल नहीं आया ।
गुनगुनाने की कोशिश की पर सुरताल नहीं आया।।

 इधर गले पड़े और आंख मारी उधर जाकर ।
तनिक भी संसद की गरिमा का ख्याल नहीं आया।।"
                       डॉ बलवान सिंह

"सारी दुनिया की दौलत कम है मां के हाथों की रोटी के सामने ।
सारी दुनिया की खुशियां मिली उसे जिसने भी मां के हाथों की खाई रोटी"

  गुलशन कुमार ग्रोवर जी ने हिंदी के महान कवि गीतकार ग़ज़लकार पदम विभूषण दिवंगत श्री गोपालदास नीरज को श्रद्धांजलि देते हुए उनका यह शेर ही गोष्ठी में पढ़ा 
"अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाए ।
 जिसमें इंसान को इंसान बनाया जाए ।। "

मोती राम तुर्क ने दोहे पढ़े
 पानी आंखो में मरा , मरी शर्म और लाज ।
कहे बहू अब सास से,घर में मेरा राज ।।
भाई भी भाई भी करता नहीं,भाई पर विश्वास ।
बहन पराई हो गई , साली खासमखास ।।
मोती राम तुर्क

मैं मजबूर हूं तभी तो मजदूर हूं दिल मेरा भी है दिल में धड़कती ख्वाहिशें हैं 
   संजय मित्तल   

सुमन प्रजापत युवा कवियित्री ने अपनी कविता इस तरह पढ़ी ।
हकीकत है सच्चाई है खुद पर बीती औरों ने भी बताई है अपने हाथों हमने खुद आग लगाई है ।

सुमन प्रजापत   

प्रकाश कुमार कश्यप ने अपनी रचना पेश करते हुए कहा
      "सुना है इरादे क़त्ल में तलवार जरूरी नहीं 
वो नज़र भी किसी खंज़र से कम नहीं रखते ।
  प्रकाश 
 अन्नपूर्णा शर्मा ने भी गीतकार गोपालदास नीरज को श्रद्धांजलि के रूप में अपनी कविता कही

चला गया है वह गीतों का चितेरा
 दुखा गया वह दिल तेरा
  वह सूरज सा दीप्तिमान था ।
चमकता उसमें आसमान था ।
प्यार के गीतों को जिसने टेरा ।
चला गया है वह गीतों का चितेरा ।।

और गंगा मलिक जी ने गीत तरन्नुम में पेश करते हुए कहा  -
अब तो होने लगी बरसात केहि विधि आन मिलो आज बस में नहीं जज्बात केहि विधि आन मिलो नींद नैनों की गलियों में आती नहीं
बूंद बरखा कि तुम बिन सुहाती नहीं
मोहे बैरन लगे है बरसात केहि विधि आन मिलो ।

छूट गए सब संगी-साथी सागर साकी और शराब कालचक्र सा बदल रही है अपना भी दस्तूर गजल ।
   कस्तूरी लाल शाद

कोई अर्ज़ी कोई दरख्वास्त अब मंजूर नहीं होती
क्यों कहीं पूरी अब कोई फरियाद नहीं होती 
   करनैल खेड़ी साहब 

 ओम प्रकाश राही ने कवि सम्मेलन का संचालन करते हुए अपनी राष्ट्र के नाम कविता में कहा राही क़फन तिरंगे वाला चूम चूम कर गाती माँ 
और अगर एक बेटा हो तो वतन पे उसे लुटाती माँ । 

दीदार सिंह कीरती जी जिन्होंने आज की गोष्ठी की अध्यक्षता की उनका अंदाज पंजाबी कविता में देखिए -
 "रिश्वत मेरे देश दे अन्दर, लाउंदी हर काम नूं पहिये ।
  अनहोनी नूं होणी करदे, रखो तली दे जदों रुपिये ।।

डॉ राकेश भास्कर जी ने काव्य गोष्ठी की मेजबानी भी की और उनकी हास्य व्यंग्य कविता की कुछ पंक्तियाँ देखिए -

 मित्रों आप भी अपनी सुख सुविधा हेतु
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आज की काव्य गोष्ठी में कविता व ग़ज़ल सुनाने वाले कवियों व शायरों में श्रीमती शकुंतला शर्मा, श्री दीदार सिंह कीरती, डॉ राकेश भास्कर ,श्री कस्तूरी लाल शाद, श्री ओमप्रकाश राही, श्री आर के शर्मा, श्रीमती गंगा मलिक, श्रीमती अन्नपूर्णा शर्मा, गुलशन कुमार ग्रोवर, सूबे सिंह सुजान, सुमन प्रजापत, डॉ बलवान सिंह, संजय मित्तल, सुधीर ढांढा,करनैल खेड़ी, प्रकाश कुमार, मोती राम तुर्क, नीलम,अमित,राजेश आदि नये कवियों ने भी कविताएँ सुनाई ।

सूबे सिंह सुजान
सचिव -अदबी संगम कुरूक्षेत


शनिवार, 7 जुलाई 2018

शोध लेख *कवितालयों की आवश्यकता*


*कवितालयों की तीव्र आवश्यकता है*
जिस तरह अस्पताल व पुलिस स्टेशनो की जरूरत है
उसी तरह से समाज को कवि व कविताओं की की जरूरत है। 
कविता समाज की जुबान होती है कविता के माध्यम से समाज अपनी बात कह पाता है अपनी भावनाओं को मासूमियत व नाजुकी से  कह व सुन पाता है ।
अपनी बात कहने को तो हम सारा दिन आपस में न जाने कितना बोलते हैं और किसी समय बोलने के कारण ही आपस में प्यार करते हैं या लड़ाई कर बैठते हैं हर प्रकार के व्यक्ति होते हैं कुछ व्यक्ति बहुत कम बोलना पसंद करते हैं तो कुछ बोलने से रोके नहीं रुकते, अर्थात मनुष्य बिना बोले या बातें किये रह नहीं सकता हर काम करने के लिए मनुष्यों को एक दूसरे पर निर्भर होना पड़ता है यही प्रक्रिया समाज का निर्माण करती है ।
*अब बात करते हैं समाज व कविता का संबंध पर और उसकी आवश्यकता पर*
मनुष्यों को जितनी जरूरत स्वास्थ्य के लिए डॉक्टर,अस्पतालों की पड़ती है उसके पीछे बीमारियाँ कारण होती हैं लेकिन बीमारियाँ होती ही क्यों हैं इनके होने के कारण को पता तो करना चाहिए कुछ बीमारियाँ वायरस आदि से होती हैं लेकिन वर्तमान टेक्नोलॉजी के युग में मनुष्य का भी मशीनीकरण हो गया है जिसकी वजह से अधिकतर बीमारियाँ मनुष्य द्वारा अपने शारीरिक अंगों का समुचित प्रयोग न करना या विपरीत दिशाओं में प्रयोग करना जो प्राकृतिक नहीं होता जिससे अनेकानेक बीमारियाँ पैदा होती हैं  इन बीमारियों से निजात पाने के लिए हमें बहुत सी क्रियाओं को करना पड़ता है जो हमारे मन मस्तिष्क पर असर डालती हैं कविता भी उन्हीं क्रियाओं में से सबसे मुख्य होती है  तो क्यों नहीं हम इन कारणों के लिये कविता,कहानी जैसी सार्थक क्रियाओं को प्रभावी बनायें और जिस प्रकार सरकार अस्पताल,पुलिस स्टेशन पर बजट खर्च करती है उसी प्रकार "कवितालय" बनाये जायें जहाँ पर लोगों को कविता सुनाकर उनके तनाव,मानसिकता रोगों को,काम के बोझ से पैदा हुए रोगों से निराकरण किया जा सके तथा साथ ही साथ मोबाइल वैन की तरह कवि उपलब्ध करवाये जायें जो समाज की आवश्यकता को वहीं जाकर पूरी करें ।
कविता मानव मन मस्तिष्क पर प्राकृतिक रूप से प्रभाव डालती है और मनुष्य की गलत आदतों में सुधार लाती है तथा अप्राकृतिक कार्य करने से रोकती है और मनुष्य को प्राकृतिक बनाती है प्राकृतिक रूप से बहने वाली हर वस्तु,मनुष्य,समाज स्वयं स्वस्थ हो जाता है कविता मनुष्य को परिभाषित करती है जिससे वह रूकता नहीं,समाज में बाधा नहीं आती और मनुष्य सकारात्मक होता जाता है ।
कवितालयों का निर्माण करके उनमें सार्थक व सकारात्मक कवियों को उपलब्ध करवाया जाना चाहिए यह कवि,शायर कविता,ग़ज़ल स्वयं कहेंगे व इतना ही नहीं समाज के लोगों को कविता कहने के लिए प्रोत्साहित करेंगे जैसे मानसिक डॉक्टर इलाज करता है उसी प्रकार बिना प्रयोगशाला के मानसिक रूप से कमजोर व्यक्तियों का इलाज तो होगा ।
जिस मनुष्य को परिभाषित किया जायेगा वह स्वस्थ हो जाएगा हमें कविता के माध्यम से मनुष्यों को और समाज को परिभाषित करना होगा ।
"*कवितालयों का निर्माण करने की बात बेशक आपको प्रारंभ में अटपटी लगे लेकिन यह वर्तमान समाज की के लिए बेहद जरूरी है*"
*सूबे सिंह सुजान*
*कुरूक्षेत्र हरियाणा*
@यह शोध लेख सर्वाधिकार सुरक्षित है सूबे सिंह सुजान के ब्लॉग पर ।

गुरुवार, 5 जुलाई 2018

एक शेर - मुझे बर्बाद करना है

मुझे बर्बाद करना है तो फिर बर्बाद कर दो ना
मुझे तुम याद आओ, और तुम भी याद कर दो ना ।।

कभी पानी पिलाते हो,कभी तुम घास रखते हो,
तुम्हें प्यारी हैं इतनी बकरियाँ,आजाद कर दो ना ।।

 सूबे सिंह सुजान 

बुधवार, 27 जून 2018

प्रेम तरल

मैं इस तरह तरल होकर प्रेम में गुजरता रहता हूँ कि जैसे
मोटर ने पानी को पाइप में तीव्र गति से मोड़ देते हुए टंकी तक पहुँचा दिया और पानी ने आह तक न की जैसे जैसे धक्का मिला आगे चलता रहा ।

शुक्रवार, 22 जून 2018

ग़ज़ल -ठीक ठाक तो हो

तन्हा से छत पे बैठे हो, ठीक ठाक तो हो ?
क्या बात?खुद से लड़ते हो ठीक ठाक तो हो?

जगजीत सिंह को सुनते हो ,ठीक ठाक तो हो ?
ग़ालिब के शेर पढ़ते हो ठीक ठाक तो हो?

क्यों खुद ही हँसने लगते हो ठीक ठाक तो हो ?
बिन बात रोने लगते हो ठीक ठाक तो हो ?

दुनिया की बातें करना,दुनिया की बातें सुनना,
तुम किससे बात करते हो ठीक ठाक तो हो?

सुजान $μj@n

गुरुवार, 7 जून 2018

मंचीय कविता और साहित्य की दुर्दशा

      कवि सम्मेलन और मुशायरों की दुर्दशा
कविता के बाजारीकरण होने पर चुटकले,अश्लीलता बिकती है यही सत्य है वर्तमान मुशायरों,कवि सम्मेलन के मंचों का ।
                                                                                     लेकिन इस प्रायोजित अश्लीलता के विरोध में अबल तो कोई कुछ चाहकर भी कुछ कह नहीं पाता और यदि कभी कोई दिलेरी से यह बात कह देता है तो नव कवियों की फौज पीछे पड़ जाती है ।मंच पर जहाँ वास्तविक कविता होती है वहाँ से श्रोता गायब होते हैं प्रायोजित करने वाले तो दूर दूर तक दिखाई ही नहीं देते ।
                                 
लेकिन जहाँ पर चुटकले,अश्लीलता होती है वहाँ पर प्रायोजक दौड़ते हुए और श्रोता,दर्शक औंधे मुँह पड़े मिलते हैं ।
महिला कवियत्रीयों के साथ वैसे तो मंचों पर भी यही हाल है कि वो बोल भी नहीं पाती कि उससे पहले वाह वाह की बरसात बिना बात के बादलों की तरह होने लगती है बात या कोई संदेह क्या कहा गया होता है यह कभी किसी को पूछना कवि सम्मेलन के बाद , तो पता चलेगा यार पता नहीं क्या कहा लेकिन  क्या बात है वाह वाह भाई सबसे बढ़िया उसी ने कहा है यह आवाजें सुनाई पड़ती हैं ।
लेकिन फेसबकीय साहित्य व मंचों पर तो महिला कवियत्रीयों को बेशुमार मान सम्मान, वाह वाह , हजारों लाइक व टिप्पणियों से नवाज़ा जाता है ।
मैं इस लेख में यह बिल्कुल नहीं कहना चाहता कि मैं महिला कवियत्रीयों से ख़ैर खाता हूँ या कोई जलन करता हूँ कृपा करके यह तो मन से निकाल दीजिए ।
मैं किसी महिला का मन भी नहीं दुखाना चाहता हूँ ।
लेकिन मैं अपनी माँ,बहन समान सभी महिला कवियत्रीयों को यह ध्यान दिलाना चाहता हूँ कि आप मंचों की इस तरह के व्यवहार को ध्यान से परख़ने की कोशिश कीजिए और ऐसे वाक़्यों पर अपनी बेबाक बात कहने से न हिचकें ।
अगर आप अश्लीलता, द्वियअर्थी चुटकलों का मंच पर विरोध करेंगी और सही सभ्य ढंग से इस तरह अपनी बात रखेंगी तो इसमें आपका ज्यादा सम्मान होगा और कविता व साहित्य का सम्मान के साथ साथ भविष्य उज्ज्वल होगा जिससे सार्थक समाज का विकास होगा और हम साहित्य के उद्देश्य को हासिल करने में सक्षम होंगे ।

                             आज के समय में जहाँ बेमकसद ,बेमतलब की कविता भी हो रही है वहीं कविता का राजनीतिक पार्टियों के द्वारा दोहन भी किया जा रहा है हम कवि लोग राजनीतिक पार्टियों के द्वारा प्रायोजित कवि सम्मेलन को समझ नहीं पाते हैं नये रचनाकार तो जब तक कविता को सीख भी नहीं पाते तब तक उन पर राजनीतिक सोच को थोप कर दूषित कर दिया जाता है और वे जीवन भर कविता व साहित्य को ही नहीं समझ पाते और राजनीति पार्टियों के क़ैद होकर रह जाते हैं और समाज को गहरा आघात पहुँचाते हैं ।

हमारे सामने कविता को बचाये रखने के लिए नये नये खतरे हैं इन खतरों से बचाने के लिए पुस्तकीय कविता,साहित्य ही बेहतरीन है और हमें फेसबुक जैसे नये सोशल मीडिया साहित्यिक गतिविधियों के अंदर जाकर साहित्य को सही दिशा देनी होगी ।

         
                       सूबे सिंह सुजान
               साहित्यिक खतरों पर बातचीत
            दिनांक 7जून 2018
                    कुरूक्षेत्र 

मंगलवार, 5 जून 2018

ग़ज़ल के महान सितारा कृष्ण बिहारी नूर साहब की एक उत्कृष्ट ग़ज़ल पेश है

ज़िन्दगी से बड़ी सज़ा ही नहीं
और क्या जुर्म है पता ही नहीं

इतने हिस्सों में बँट गया हूँ मैं 
मेरे हिस्से में कुछ बचा ही नहीं ।

ज़िन्दगी मौत तेरी मंज़िल है
दूसरा कोई रास्ता ही नहीं ।

सच घटे या बढ़े,तो सच न रहे
झूठ की कोई इन्तिहा ही नहीं ।


जिसके कारण फ़साद होते हैं
उसका कोई अता -पता ही नहीं ।

कैसे अवतार,कैसे पैग़म्बर,
ऐसा लगता है अब ख़ुदा ही नहीं ।


अपनी रचनाओं में वो ज़िन्दा है
'नूर' संसार से गया ही नहीं ।


कृष्ण बिहारी 'नूर'

बुधवार, 23 मई 2018

कविता में शहर (छंदमुक्त कविता)

शहर में कविता हो न हो
लेकिन अभी बचा है कविता में शहर ।

इस गली से लेकर
उस सड़क तक
घरों की नीवों से लेकर छतों तक
गरीब घरों तक जाते
कच्चे रास्तों की खुशबू
संभाले हुए है कविता में शहर ।

यह शहर केवल मेरी कविता में नहीं रहता
यह बहुत से कवियों और यहाँ से दूर,परदेस
में बसे कवियों के साथ विदेशों में भी जीवत रहते
हुए है कविता में शहर ।


कुछ मोड़ों पर अपना नाम सेक्टर रखवा कर
बहुत खुशी से हँसते हुए इठलाने वाला
अगले मोड़ पर दर्द से कहराता हुआ
जब दिखाई देता है और
जब मैं पूछ लेता हूँ उसका हाल चाल
तो मुझे रोते हुए दिखाई देता है कविता में शहर ।

बेटी बचाने के नारों वाले इश्तहारों की चकाचौंध
सरकारी कार्यालयों,इमारतों से लेकर
पक्की सड़कों,चौराहों पर
बेटियों की लुटती इज्जत को अपनी ओट देते हुए
ढक लेते हैं । 
जबकि थे उन्हीं के बेटे,उन्हीं की बेटियाँ
लेकिन पता नहीं क्यों
 लोग फिर से सड़कों पर चिल्लाते हैं शहर को बंद करते हुए ,अपनी ही सम्पत्ति को जलाते हुए, कैंडल मार्च निकालते हुए
और फिर से जिंदा रखते हैं कविता में शहर ।

हर काम करती बेटियों के साथ
भेदभाव करते हुए
और निकम्मे होते बेटों का साथ देते हुए
उन्नति करता है
मजदूरों से काम लेते हुए
और दिहाड़ी में से पैसे कम करवाते हुए
शराब पी लेता है
किसानों से
अनाज लेकर पेट भरते हुए
उनके कर्ज पर कटाक्ष करते हुए
किसानों को गाली देकर
गंदी हंसी हँसता है कविता में शहर ।


         सूबे सिंह सुजान, कुरूक्षेत्र,हरियाणा 

मंगलवार, 20 मार्च 2018

अपनी नादानी पर

अपनी नादानी पे नादान अड़ा रहता है
सिर्फ़ अपनी ही नज़र में वो बड़ा रहता है ।

क्या इरादा है समझ खुद नहीं पाता अक्सर,
इसलिए दूर, अकेला ही खड़ा रहता है ।
   सूबे सिंह सुजान

रविवार, 18 मार्च 2018

ग़ज़ल,कविता को मुकाबला करना होगा बच्चों में बढ़ती नशे,व्यसनों के बढ़ते दुराचारों के साथ । अदबी संगम कुरूक्षेत्र की काव्य गोष्ठी में उपस्थित शायर कवि ।

आज दिनांक 18 मार्च 2018को नवसवंत्सर वर्ष के शुभ अवसर पर अदबी संगम कुरूक्षेत्र की मासिक काव्य गोष्ठी डॉ बृजेश कठिल जी की मेजबानी में और प्रो महेन्द्र पाल माथुर जी की अध्यक्षता में हुई ।

काव्य गोष्ठी में कवियों ने नव वर्ष पर व सामयिक मुद्दों पर रचनाओं का पाठ किया ।
जिनमें सर्वप्रथम करनैल खेड़ी ने कहा ये ग़ज़लें,ये नज़्में मेरा तजुर्बा हैं,ये मैंने कोई सपनों में नहीं देखी ।

डॉ शकुंतला शर्मा ने हरियाणवी गीत में हरियाणवी संस्कृति का कुछ यूँ बयान किया  ध्यान लगा कै सुणियो रै, सै बात या ध्यान लगाणे की ।
देसी खाणा,देसी बाणा  , मैं छोरी सूँ हरियाणे की ।

रत्न चंद सरदाना जी ने वर्तमान व्यस्त व मशीनी जीवन पर तंज कसते हुए एक पिता के दर्द को बयान करते हुए कहा - ख़प गई जवानियाँ बच्चों के नाम पर ।
अँधेरे में चल रहे लाठियों को थाम कर ।।

पंजाबी कवि दीदार सिंह कीरती ने वर्तमान संदर्भों पर अपनी कविता में करारा व्यंग्य कसते हुए कहा - डंगर बहुत आवारा फिरदे,जिधर देखो गाँ ही गाँ,  और सरकारी लोग गाँ नहीं कहते,कहते भाषण विच माँ ही माँ ।

कस्तूरी लाल शाद जी ने कहा -अपनों का ही भरोसा देता रहा है धोखा, सीमा का हर प्रहरी लगता ठगा ठगा है ।

ओम प्रकाश राही जी ने देश भक्ति पर रचना पढ़ते हुए गीत गाया - राही कफ़न तिरंगे वाला,चूम चूम कर गाती माँ ।
अगर और इक बेटा होता वतन पे उसे लुटाती माँ ।

संजय कुमार मित्तल ने कविता में कहा -

हे भारत माँ नमस्ते,नमस्ते नमस्ते
और मैं तुमको क्या दूँ,देने को है ही क्या मेरे पास
स्वीकार करो मेरी नमस्ते नमस्ते नमस्ते ।

उर्दू शायर जनाब शमीम हयात ने ग़ज़ल के खूबसूरत शेर पढ़ते हुए कहा - एक दिन उसको देखा संवरते हुए
जितने चेहरे थे सब आइने हो गए ।

डॉ संजीव अंजुम ने जिंदगी की सादगी और हकीकत पर शेर पढ़ते हुए कहा -

दिल से होकर ज़ीस्त की जागीर में शामिल हुआ
क़िस्सा ए ग़म यूँ मेरी तक़दीर में शामिल हुआ ।

डॉ बृजेश कठिल जी ने अपनी वस्तुस्थिति कविता में एक कर्मचारी के रिटायर्ड होने पर घर बनाने की व्यथा पर ,उसके बुढ़ापे के संघर्ष की कहानी को कविता में पिरोते हुए कहा -

साठ बरस की उम्र में घर बनाना,
दुस्साहस तो है , मगर उसने बनाया ।

अपनी नई ग़ज़ल में सूबे सिंह सुजान ने कहा -

उनके कहने से जो हर बात सही होती है
तो मैं ये समझूँ के सब उनकी कही होती है

हम जिसे जाँच परख़ देख रहे होते हैं
बाद उसके भी परख़ बाक़ी रही होती है ।

इसके अलावा अन्य शायर,कवियों में डॉ श्रेणिक लुंकड़ बिम्बसार, गंगा मलिक ने भी काव्य पाठ किया ।




शुक्रवार, 16 मार्च 2018

आओ बदलें मुशायरों से माहौल व समाज को दें सही दिशा

हमारे अभी कुछ पुराने समय में , ज्यादा दिनों की बात नहीं है हमारे शहरों कुरूक्षेत्र,अम्बाला,पानीपत हिसार और उधर पंजाब के साथ साथ पूरे देश में भी बहुत ऐसे शहर रहे हैं जहाँ साहित्य क्षेत्र में बहुत नामी काम होता रहा था
इन शहरों की  जमीन ने बहुत अच्छे शायर,लेखक,कलाकार,गायक दिये हैं ।
क्या हमें नहीं लगता कि इन शहरों ,देश में पुनः साहित्यिक गतिविधियों का परचम लहराये व समाज को विचारक बनाया जाए न कि वाजिब बात पर भी मखौल किया जाए ।

वरना आजकल के दौर में कवि सम्मेलन में बाज़ लोग चुटकले सुनाकर शायर कहलाते हैं और मोटी रकम ले उड़ते हैं वे गिरोह के रूप में काम करते हैं जबकि हमारे शुद्ध साहित्यिक लोग पाई पाई को तरसते रहते हैं ।

तो आइये आगे बढ़कर बनाइये अच्छा माहौल ।
बच्चों को नशे के बढ़ते कारोबार से बचाकर कविता,ग़ज़ल,कहानियों की तरफ ले चलें ।

इधर कुरूक्षेत्र में अदबी संगम कुरूक्षेत्र पिछले 40 बरसों से साहित्यिक गतिविधियों में काम करता आ रहा है अनेकों शायर,कवि लेखक,कलाकार इस माहौल ने पैदा किए अदबी संगम समाज की चहल पहल से,चकाचौंध से दूर रहकर अपनी हाथी की मदमस्त चाल से चलता रहा न किसी सरकारी मदद का मोहताज रहा न कभी किसी सरकारी अधिकारी, अकादमी ने वाजिब मदद दी बस कवि लोग स्वयं का खर्च करते रहे और साहित्य को रचते रहे,लगातार संगोष्ठी करते रहे ।
 इस संस्था की जड़ों को रोपने व वृक्ष बनाकर फलों तक लाने की फेहरिस्त में कुछ चुनिंदा नाम ध्यान में आते हैं जैसे कृष्ण चंद्र पागल, दोस्त भारद्वाज,डॉ एस पी शर्मा "तफ़्ता " "ज़ारी " डॉ हिम्मत सिंह सिन्हा "नाज़िम " डॉ के के ऋषि, डॉ दिनेश दधीचि, बाल कृष्ण बेज़ार, कस्तूरी लाल शाद,डॉ बृजेश कठिल , डॉ लुंकड़,आदि अनेकों नाम हैं

शुक्रवार, 2 मार्च 2018

होली में हुडदंग किसी को करे तंग, किसी को करें रंग रंगीन।

होली खेलने के सबके अपने अपने मज़े हैं  यह मौसम परिवर्तन का र्योंहार है हम मौसम के परिवर्तन को प्रकट करने, आत्मसात करने के लिये हर अवसर पर त्योंहार के रूप में मनाते आये हैं यही संस्कृति का निर्माण करते हैं हमारी भारतीय संस्कृति इन्हीं त्योंहारों की परिपाटी रही है ।

                                                                                   लेकिन वर्तमान समय में होली खेतने से बहुत लोगों को डर भी लगने लगा है ऐसा क्यों हो रहा है यह हमें सोचने को विवश करता है और यदि हम मनुष्य हैं तो हमें सोचना भी चाहिये, वर्तमान समय में परेशानी का सबब यह होता जा रहा है कि हमने सोचना ही बंद कर दिया है यह सबसे खतरनाक़ है ।

                                              ताजा घटना दिल्ली में लड़कियों पर होली के बहाने वीर्य के गुब्बारे फेंकना किस सोच को दर्शाता है औकर क्या ये लड़के हमारे उन्हीं घरों के नहीं हैं , जिन घरों की वे लड़कियां हैं क्या इन लड़कों की बहनें नहीं हैं, क्या इन लड़कों के माता पिता नहीं हैं क्या ये लड़कियां जो शिकायत कर रहीं हैं ये अपने भाइयों को टोकती हैं ऐसी वारदातों के समय,  बहुत से और भी प्रश्न हैं जिनके जवाब हमें स्वयं से पूछने हैं और बार बार पूछने चाहियें ।

दूसरी बात मैं यह कहना चाहता हूँ कि हमारे समाज की सोच में लड़कियों में हो या पुरूषों में अमीर की सोच अलग व गरीब की सोच अलग हो जाती है दिल्ली की बहुतायत लड़कियों को मैट्रो में देखता हूँ कि वे सामाजिक मुद्दों पर विरोध करने वाली लड़कियों का बहुत कम साथ देती हैं  क्योंकि वे सोचती हैं की यह विरोध करना,सामाजिक मुद्दों पर बात करना मिडिल क्लास का काम है। उनकी जिंदगी में ऐसे मुद्दों को सहजता से अपना लिया जाता है और विरोध करने वालों को मिडिल क्लास का दर्जा देकर उन्हें ही नीचा दिखाया जाता है अमीरों द्वारा जिस कारण जिन मुद्दों पर सार्थक बातचीत होनी चाहिये वह हो नहीं पाती ।हमें समाज को एक सोच का बनाना होगा। सबसे पहले शिक्षा को एक करना होगा हर वर्ग के बच्चों हर प्रकार के स्कूलों में प्रवेश देना होगा महंगी शिक्षा का समूल निपटान जरूरी है।
                                                                                      सूबे सिंह सुजान