रविवार, 21 जून 2020

Those winter Sunday's

Those Winter Sundays

Robert Hayden

“Sundays too my father got up early

and put his clothes on in the blueblack cold,

then with cracked hands that ached

from labor in the weekday weather made

banked fires blaze. No one ever thanked him.”

(Full poem unable to be reproduced due to copyright)

VOCABULARY

Blueblack — a mixture of a blue and black colour

Austere — harsh, serious, strict, emotionally cold, no comfort or luxury.

Chronic — something that happens all the time, can relate to pain or suffering

Indifferently — not caring or being emotional about something, neither good or bad.

STORY/SUMMARY

Stanza 1: The speaker’s father woke up early on cold Sunday mornings. The father is a physical labourer as he works outside and has sore hands. The persona remarks that nobody was grateful for his effort.

Stanza 2: The persona would hear his father wake up and as the father woke up he would heat the house for the speaker and presumably the rest of the family. The persona also feels the constant pain his father is in, and the house seems to reflect this pain.

Stanza 3: The persona speaks unemotionally to the father, despite the fact that the father put so much effort in to get the house warm and also polished the boy’s shoes. He says he didn’t understand at the time that the father’s behaviour was an act of love because he seemed cold and distant.


Robert Haydon की नज़्म Those Winter Sundays.

का तर्जिमा (on Father's Day)


कड़कती ठंड में इतवार को भी बर्फ़बारी में

सहर होने से पहले बाप मेरा जाग उठता है

पहन लेता है पोशाके-मशक़्क़त रोज़ की अपनी

फटे महनतज़दा हाथों से सुलगाता है आतशदां

कि  हों महफ़ूज़ घर के लोग मौसम की अज़ीयत से,

ग़ज़ब है कोई उसका शुक्रिया तक भी नहीं करता!


मैं उस दम जागता होता हूं और महसूस करता हू़

कि कैसे सर्द रुत का टूटता है क़हर हर जानिब,

मगर जब गर्म हो जाते हैं कमरे आग से  आख़िर

तो वो मुझ को जगाने के लिए आवाज़ देता है

मैं आहिस्ता से उठता हूं, पहनता हूं क़मीज़ अपनी

मुझे इस घर के ग़ुस्से का हमेशा ख़ौफ़ रहता है,


बड़ी ही बेख़्याली से मैं उस से बात करता हूं

वो जिस ने घर से सर्दी को अभी बाहर निकाला है

मिरे जूते भी चमकाए हैं जिस ने अपने  हाथों से!

मैैं क्या जानूं मैं क्या समझूं मैं क्या समझूं मैं क्या जानूं

महब्बत के भी क्या क्या फ़र्ज़ होते हैं निभाने को!!

(मुतरज्जम डा़ के  के रिषि)

ओरहान पमुक पिता के बारे में, अनुवाद-गीत चतुर्वेदी


पिता के बारे में : ओरहान पमुक
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उस रात मैं देर से घर पहुंचा था। पता चला, पिताजी की मृत्यु हो गई है। क़रीब दो बजे रात मैं उनके कमरे में गया, ताकि उन्हें आख़िरी बार देख सकूं। सुबह से फोन आ रहे थे, लोग आ रहे थे, मैं अंत्येष्टि की तैयारियों में लगा हुआ था। लोगों की बातें सुनते हुए, पिताजी के कुछ पुराने हिसाब चुकता करते हुए, मृत्यु के काग़ज़ात पर हस्ताक्षर करते हुए बार-बार मेरे भीतर यही ख़याल आ रहा था, हर क़िस्म की मौत में, मरने वाले से ज़्यादा महत्वपूर्ण, रस्में हो जाती हैं।

एक दिन मैं किसी को बता रहा था, मेरे पिताजी ने मुझे कभी डांटा नहीं, कभी ज़ोर से नहीं बोला, मुझे कभी नहीं मारा। उस समय मुझे उनकी दयालुता के कितने क़िस्से याद आए। जब मैं छोटा था, जो भी चित्र बनाता था, मेरे पिताजी कितनी प्रशंसा के भाव में भरकर उन्हें देखते थे। जब मैं उनकी राय पूछता था, तब वे मेरे लिखे हर वाक्य को इस तरह पढ़ते, जैसे मैंने मास्टरपीस लिख दिया हो। मेरे बेस्वाद और नीरस चुटकुलों पर वह ठहाके लगाकर हंसते थे। अगर बचपन में उन्होंने मेरे भीतर वह विश्वास न भरा होता, मैं कभी लेखक नहीं बन पाता। हम दोनों भाइयों में उन्होंने बचपन से ही यह विश्वास रोपा कि हम होनहार और दूसरों से अलग हैं। वह ख़ुद के बारे में यही सोचते थे कि वह सबसे अलग हैं और उनका मानना था कि हम उनके बेटे हैं, इसलिए हमें भी वैसा ही होना है।

उन्होंने कई किताबें पढ़ी थीं, वह कवि बनना चाहते थे, वैलरी की कविताओं का अनुवाद भी किया था। जवानी में उन्होंने कई किताबें जुटाई थीं और जब मैंने उन्हें पढऩा शुरू किया, तो उन्हें ख़ुशी हुई। वह किताबों को मेरी तरह उत्तेजना में भरकर नहीं पढ़ते थे, बल्कि वह दिमाग़ में चल रहे विचारों को हटा देने और आनंद के लिए पढ़ते थे और ज़्यादातर किताबों को बीच में छोड़ देते थे। दूसरे पिता अपने बच्चों से सेनापतियों की तरह बात करते थे, लेकिन मेरे पिता बताते थे कि कैसे उन्होंने पेरिस की गलियों में सार्त्र और कामू को चलते हुए देखा है। अठारह साल बाद जब मेरा पहला उपन्यास प्रकाशित हुआ, उन्होंने मुझे एक सूटकेस दिया। उसमें उनकी डायरी, कविता, नोट्स और साहित्यिक लेखन था। उन्हें पढक़र मैं बहुत असहज हो गया। वह सब उनके भीतर के जीवन के दस्तावेज़ थे। हम अपने पिता को एक आम इंसान की तरह कभी नहीं देख पाते, हम चाहते हैं कि वह हमेशा हमारे आदर्श के रूप में रहें, जैसा हम उन्हें अपने भीतर बनाते आए हैं।

कॉलेज के दिनों में जब मैं बहुत अवसाद में था, मैं सिर्फ़ उनकी प्रतीक्षा करता था कि वे आएं, डिनर टेबल पर हमारे साथ बैठें और ऐसी बातें बोलें कि हमारा मन खिल उठे। छुटपन में मेरा पसंदीदा शौक़ था कि उन्हें देखते ही मैं उनकी गोद में चढ़ जाऊं, उनकी गंध महसूस करूं और उनका स्पर्श करूं। मैं चाहता था कि मेरे पिता मुझसे कभी दूर न जाएं, फिर भी वह दूर गए।

जब वह सोफ़ा पर बैठकर किताबें पढ़ते थे, कभी-कभी उनकी आंखें पन्ने पर से हटकर कहीं दूर देखने लग जातीं, वह अपने में खो जाते। तब मुझे लगता, मेरे पिता के भीतर कोई और शख़्स भी रहता है, जिस तक मेरी पहुंच नहीं है और वह किसी और ही जीवन के स्वप्न देखता है, तब मुझे बुरा लगता। कभी-कभी वह कहते, मैं उस गोली की तरह महसूस करता हूं, जिसे बिना किसी कारण दाग़ दिया गया है। जाने क्यों मुझे इस बात पर ग़ुस्सा आता था। शायद भीतर ही भीतर मैं उनके इन पहलुओं से दूर भागना चाहता था।

बरसों बाद, जब मेरे भीतर से यह ग़ुस्सा निकल चुका था, मैंने अपने पिता को उस तरह देखना शुरू किया कि उन्होंने कभी हमें डांटा तक नहीं, मारना तो दूर है, मैंने पाना शुरू किया कि हम दोनों के बीच गहरी समानताएं हैं। जब मैं किसी मूर्ख पर गुर्राने लगता हूं, या वेटर से शिकायत करता हूं, या अपने ऊपरी होंठ काटता हूं, या किसी किताब को आधा ही पढक़र छोड़ देता हूं या अपनी बेटी का चुंबन लेता हूं, या जब जेब से पैसे निकालता हूं या किसी अजनबी के स्वागत में हल्की-फुल्की बातें करता हूं, मुझे लगता है, मैं अपने पिता की नक़ल कर रहा हूं। यह नहीं कि मेरे हाथ, पैर, कलाई या मेरी पीठ पर बना तिल उनके जैसा है, बल्कि यह ख़याल ही कई बार मुझे डरा देता है कि मैं तो बचपन से ही उनके जैसा बन जाने की प्रतीक्षा कर रहा था। इंसान की मौत उसी दिन से शुरू हो जाती है, जिस दिन उसके पिता नहीं रहते।

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पिता पर लिखे पमुक के दो निबंधों से चुनिंदा अंश. अनुवाद : गीत चतुर्वेदी, 2014 में नवभारत टाइम्स में प्रकाशित.

सोमवार, 8 जून 2020

ख़ामोशी संतोष पैदा करती है

बहुत दिनों की ख़ामोशी के बाद जब कुछ भी कह नहीं पाया तो महसूस हुआ कि कहना तो होता ही नहीं सब कहा गया है सब लिखा है सब दिख रहा है ।

ख़ामोशी में रहने के बाद एक इत्मिनान पैदा होता है एक संतोष जन्म लेता है और यदि यह महसूस न हो तो समझें आप ख़ामोश नहीं रहे ।
यदि ख़ामोशी के बाद तूफ़ान आने की बात करें यह पागलपन है झुंझलाहट है एक भीतरी भीड़ है जो नकारात्मक विचारों से ठूंस रखी है जो निकलने को बेताब है यह किसी दूसरे ने नहीं भरी थी यह आपने ही भरी थी आपके भीतर कोई ओर कुछ नहीं भर सकता जब तक आपकी इजाजत न हो।।

आकाश में हर तरह का विचार, विरोध, प्रेम सब मौजूद है हमें क्या चाहिए यह हमें निर्धारित करना होता है।