सोमवार, 31 अक्तूबर 2022

वायु प्रदूषण और दिल्ली के लोग

 दिल्ली में प्रदूषण बढ़ रहा है सोशल मीडिया पर लोगों को चिंता हो रही है ।


यह वास्तव में बढ़िया मजाक है ।


हम कितने भोले बनते हैं कमाल है ।

प्रकृति का नियम है कि जैसा करोगे वैसा ही परिणाम मिलेगा 

क्या हमने अब तक यह भी नहीं सीखा?


डिग्रियाँ तो बहुत हैं हमारे पास??


व्यवहार बिल्कुल नहीं है?


दिल्ली जैसे बड़े शहर के लोगों का प्रकृति से कोई वास्ता ही नहीं है तो उन्हें कैसे पर्यावरण की जरूरत महसूस हो गई जब पूरा दिन रात आप सब लोग मशीनों में रहते हैं आपको गाँवों से बदबू आती है आपको जंगल अच्छे नहीं लगते आपको खेतों में काम करने वाले किसानों से दिक्कत है आप किसानों को मूर्ख मानते हैं तो आपको मुफ्त में मिलने वाली हवा ही क्यों चाहिए?

जब आप कार,ए सी, गैसा सब कुछ पैसे से ले सकते हैं तो हवा भी लीजिए न????


प्रकृति के साथ रहने वाले लोग आपको गंवार लगते हैं तो आप शुद्ध वायु किससे माँगते हैं?

जब आप रहते ही ऐसी जगह पर हैं जहाँ आप केवल कार्बनडाई आक्साइड पैदा करते हैं आपका लेश मात्र भी सहयोग नहीं है ऑक्सीजन के लिए तो आप किस हक से माँगते हैं?

आप जब केवल प्रकृति को नष्ट करने के कार्य करते हैं तो आप किस हक से शुद्ध वायु माँगते हैं और दोष किसान को देते हैं जो आपके पेट भरने के लिए अनाज पैदा करता है और वो भी आप उसको उसकी मेहनत का पूरा दाम नहीं देते जबकि कंपनियों को आप हर चीज का पूरा दाम देते हैं ??

और वह कंपनी आपको खाद्य पदार्थों में मिलावट करके भी दे तो आपको उस कंपनी पर भरोसा है लेकिन किसान पर नहीं होता ??


हमें अपने व्यवहार में बदलाव की जरूरत है न कि दूसरों से शिकायत की ।

घूमती रहती है अपने इश्क में वो हर घड़ी

ग़ज़ल 

वो तो कहते हैं,ये दरवाजा कभी खुलता नहीं।

और सच ये है, कि उसने खोल कर देखा नहीं।।


घूमती रहती है अपने इश्क में,वो हर घड़ी

इस ज़मीं की आदतें सूरज कभी समझा नहीं।


आँख से आँसू का बहना है जरूरी दोस्तों,

जो कभी बहता नहीं,कहते उसे दरिया नहीं ।


हर ग़ज़ल कविता में उसकी बात गहरी होती है,

उसको ये लगता है, मैं उसको कभी लिखता नहीं।


बोलता तो है वो अब, मैं इसलिए ख़ामोश हूं,

जब तलक मैं बोलता हूं,वो मेरी सुनता नहीं।


ज़िन्दगी भर जैसा चलता है,सफर चलता रहे,

सब मुसाफिर मारे जाते हैं,सफर मरता नहीं।



©®सूबे सिंह सुजान, कुरूक्षेत्र हरियाणा


सोमवार, 24 अक्तूबर 2022

राम रोज़ जन्म नहीं लेते, हां रावण रोज़ जन्म ले लेता है।

 पतन तो सहज है।उत्थान सहज नहीं है।

रावण रोज़ जन्म लेता है,राम रोज़ जन्म नहीं लेता।

राम के लिए हमें क्षण क्षण परिश्रम करना करना होगा। लेकिन हम तत्परता से,तत्लीनता से, निरंतर परिश्रम नहीं कर सकते, ध्यान से, भक्ति से, इसलिए राम जन्म नहीं ले पाते,रावण हमारे आराम, सुविधा से जन्म लेता है और हम हर रोज़ सुविधा बढ़ाने में लगे हैं अर्थात रावण को जन्म लगातार दे रहे हैं । ध्यान से, भक्ति से , चिंतन से, ज्ञान व सहजता आती है।


पतन के लिए हम कोई विशेष अभ्यास नहीं करते, कोर्स नहीं करते लेकिन वह फिर भी हमें आता है।


जैसे रोशनी हर तरफ बिखरती है वैसे जिन्दगी हर तरफ बिखरती है। जिन्दगी को जितना बिखराओ उतना बिखर जाती है। और उतना ही मजा जिन्दगी देती है। लेकिन ये उस मजा लेने वाले को ही पता है। हर किसी को नहीं।  और लोग यही सोचते रहते हैं कि हम समझदार हैं जबकि दुनिया में जितना देखा जाये दुनिया को उतना ही मजा है। जिसने दरवाजे के भीतर ही दुनिया देखी है उसे बाहर की दुनिया का क्या पता है।


सूबे सिंह सुजान 

मंगलवार, 18 अक्तूबर 2022

मेरे बचपन मे पिता ने एक थप्पड़ मारा था।

 ग़ज़ल 

ज़िन्दगी के मोड़ पर,ग़म की महक आती रही,

थी कहीं कच्ची, कहीं पक्की सड़क आती रही।


रेलगाड़ी उनकी धीरे धीरे गुजरी थी मगर,

पटरियां सब ठीक थी, फिर भी धमक आती रही।


लोग मेरी टहनियों पर पाँव रखकर चढ़ गये,

और ज्यादा मेरे चेहरे पर चमक आती रही।


टूटी फूटी सड़कें थी, और खूबसूरत पेड़ थे,

उस सफर की याद मुझको अब तलक आती रही।


मैं सफर को कार में या रेलगाड़ी में करूँ,

मुझको उसकी चूडियोँ की ही खनक आती रही।


मेरे बचपन में पिता ने एक थप्पड़ मारा था,

आज तक कानों में आवाज़ें कड़क आती रही।


सूबे सिंह सुजान 

गुरुवार, 13 अक्तूबर 2022

नज़र नज़र से मिला रहे हो

 नज़र नज़र से मिला रहे हो।

के दिल में क्या है बता रहे हो।


हथेलियों को सजा रहे हो 

जनाब किसको लुभा रहे हो।


बहुत चढ़ावा चढ़ा रहे हो?

 ख़ुदा को रिश्वत खिला रहे हो।


नज़र हटा लीजिए ज़रा सी, 

क्यों मेरी धड़कन बढ़ा रहे हो।


 अदा तुम्हारी है खूबसूरत,

 तुम आँखों से मुस्कुरा रहे हो।


 ये गीत तो वक्त ने लिखा है,

 कि तुम जिसे गुनगुना रहे हो।


ये वक्त कैसे गुजर रहा है,

तुम आज चल कर दिखा रहे हो।


वही तो खड्ड़े हैं जिंदगी में, 

जिसे तरक्की बता रहे हो।


सूबे सिंह सुजान