बुधवार, 23 मई 2018

कविता में शहर (छंदमुक्त कविता)

शहर में कविता हो न हो
लेकिन अभी बचा है कविता में शहर ।

इस गली से लेकर
उस सड़क तक
घरों की नीवों से लेकर छतों तक
गरीब घरों तक जाते
कच्चे रास्तों की खुशबू
संभाले हुए है कविता में शहर ।

यह शहर केवल मेरी कविता में नहीं रहता
यह बहुत से कवियों और यहाँ से दूर,परदेस
में बसे कवियों के साथ विदेशों में भी जीवत रहते
हुए है कविता में शहर ।


कुछ मोड़ों पर अपना नाम सेक्टर रखवा कर
बहुत खुशी से हँसते हुए इठलाने वाला
अगले मोड़ पर दर्द से कहराता हुआ
जब दिखाई देता है और
जब मैं पूछ लेता हूँ उसका हाल चाल
तो मुझे रोते हुए दिखाई देता है कविता में शहर ।

बेटी बचाने के नारों वाले इश्तहारों की चकाचौंध
सरकारी कार्यालयों,इमारतों से लेकर
पक्की सड़कों,चौराहों पर
बेटियों की लुटती इज्जत को अपनी ओट देते हुए
ढक लेते हैं । 
जबकि थे उन्हीं के बेटे,उन्हीं की बेटियाँ
लेकिन पता नहीं क्यों
 लोग फिर से सड़कों पर चिल्लाते हैं शहर को बंद करते हुए ,अपनी ही सम्पत्ति को जलाते हुए, कैंडल मार्च निकालते हुए
और फिर से जिंदा रखते हैं कविता में शहर ।

हर काम करती बेटियों के साथ
भेदभाव करते हुए
और निकम्मे होते बेटों का साथ देते हुए
उन्नति करता है
मजदूरों से काम लेते हुए
और दिहाड़ी में से पैसे कम करवाते हुए
शराब पी लेता है
किसानों से
अनाज लेकर पेट भरते हुए
उनके कर्ज पर कटाक्ष करते हुए
किसानों को गाली देकर
गंदी हंसी हँसता है कविता में शहर ।


         सूबे सिंह सुजान, कुरूक्षेत्र,हरियाणा