यह ग़ज़ल मैंने कुछ परिधि से हटकर लिखने की कोशिश की है हालांकि कंही-कंही पर छन्द व बहर में अडचन वगैरह का ठहराव उस्ताद को खल सकता है। लेकिन मुझे इस ग़ज़ल को लिखते समय कुछ ऐसा अनुभव हुआ कि इसे इसके कच्चेपन के साथ ही प्रस्तुत करूँ। मैं इस ग़ज़ल की धुन पर सवार रहा उस्ताद कहतें हैं कि अपनी ही रचना का दुश्मन बन कर उसे दुरूस्त किया जाना चाहिये,हालांकि यह तथ्य अपनी जगह सहीह है।
जीवन की डगर ऐसी, कठिन भी है सुगम भी
हर मोड मिलेंगे यहाँ ,सुख भी और गम भी….
दुनियाँ में अधिक लोग रहे मध्य हमेशा,
जायेंगे किनारे जो, सहेंगे वो सितम भी…..
गहरायी जमीं की कभी बादल नहीं समझा,
गरजा भी बहुत, आखि़र बरसा,छम-छम भी….
जो इनको निभा जाए कलाकार वही है,
रिश्तों की बनावट में है नफ़रत भी रहम भी…
टकराव जरूरी है मगर थोडे समय का,
टकराती रही जैसे कि पूर्व – पश्चिम भी….
मज़हब से अधिक भूख असर करती है सब पर,
मैंख़ाना भी वीराँ है,कलीसा भी हरम भी….
जो मांगे नहीं मिलता उसे पाकर खुश हैं,
इस प्यार की खातिर हम तोडेंगे क़सम भी…
सूबे सिहं सुजान
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