ज़िन्दगी से बड़ी सज़ा ही नहीं
और क्या जुर्म है पता ही नहीं
इतने हिस्सों में बँट गया हूँ मैं
मेरे हिस्से में कुछ बचा ही नहीं ।
ज़िन्दगी मौत तेरी मंज़िल है
दूसरा कोई रास्ता ही नहीं ।
सच घटे या बढ़े,तो सच न रहे
झूठ की कोई इन्तिहा ही नहीं ।
जिसके कारण फ़साद होते हैं
उसका कोई अता -पता ही नहीं ।
कैसे अवतार,कैसे पैग़म्बर,
ऐसा लगता है अब ख़ुदा ही नहीं ।
अपनी रचनाओं में वो ज़िन्दा है
'नूर' संसार से गया ही नहीं ।
कृष्ण बिहारी 'नूर'
और क्या जुर्म है पता ही नहीं
इतने हिस्सों में बँट गया हूँ मैं
मेरे हिस्से में कुछ बचा ही नहीं ।
ज़िन्दगी मौत तेरी मंज़िल है
दूसरा कोई रास्ता ही नहीं ।
सच घटे या बढ़े,तो सच न रहे
झूठ की कोई इन्तिहा ही नहीं ।
जिसके कारण फ़साद होते हैं
उसका कोई अता -पता ही नहीं ।
कैसे अवतार,कैसे पैग़म्बर,
ऐसा लगता है अब ख़ुदा ही नहीं ।
अपनी रचनाओं में वो ज़िन्दा है
'नूर' संसार से गया ही नहीं ।
कृष्ण बिहारी 'नूर'
कैसे अवतार,कैसे पैग़म्बर,
जवाब देंहटाएंऐसा लगता है अब ख़ुदा ही नहीं ।----------
बहुत अच्छी गजल सुजान जी | शेयर करने के लिए आभार |