मंगलवार, 22 अक्तूबर 2019

सरकारी तंत्र व निजीकरण एक विश्लेषण

निजीकरण एक ऐसा सच बनता जा रहा है जिसका कोई इलाज नहीं है अगर इसका इलाज है तो वो खुद निजीकरण है क्योंकि सरकारों में कोई हिम्मत नहीं रही कि वे सिस्टम्स को ठीक कर सकें और सरकार में पहली भूमिका नेताओं की है तो दूसरी उच्च अधिकारियों की है और तीसरी सामान्य कर्मचारी की जो हर वक्त काम करता है जिस पर सारा बोझ लदा रहता है लेकिन अफसोस इस बात का है कि ऊपरी दोनों श्रेणी के लोग सारे देश की मलाई खाते हैं और तीसरी श्रेणी के लोग सारा बोझ उठाते हुए भी काम करते रहते हैं अब मनोवैज्ञानिक आधार की बात बुद्धिजीवी करते रहते हैं लेकिन उस पर अमल कोई नहीं लाता है अब ऐसा लगता है लोग मोबाइल जैसी भयंकर बीमारी के वशीभूत हो चुके हैं यह टेक्नोलॉजी है जिसे सब अच्छा ही कहते रहे हैं और काम करने,सही उत्पादन,सही मूल्य,सही शुद्धता को कोई नहीं जानता बस मोबाइल में व्यस्त हैं बच्चों को जन्म होते ही पकड़ा दिया जाता है ताकि बहुत जल्दी से मर सके तो बात यह हुई कि हम जैसा करते हैं वैसा ही परिणाम मिलता है यह सच है गीता में हजारों वर्षों से कह दिया गया है और यही नियम है तो हम सब कुछ करना ही नहीं चाहते बच्चों को किसी काम को हाथ ही नहीं लगाने दे रहे हैं तो वो क्या सीखेंगे?जो सीखा रहे हैं वही न तो अर्थ यह निकलता है कि निजीकरण में हम मजबूरी वश काम सही करने लगते हैं व सरकारी में मनोवैज्ञानिक रूप से लूट करने का प्रयास ऊपर से नीचे तक चलता है इसलिए सरकार कोई भी आये यह निजीकरण तो होगा ही प्रजातंत्र में यदि सरकारी तंत्र में सार्वजनिक सेवाओं को जिंदा रखना चाहते हैं तो इसके लिए सरकारी तंत्र में काम करने वाले लोगों को ज़मीर से जिंदा होना पड़ेगा हाल फिलहाल वहाँ ज़मीर मरा हुआ है

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