बुधवार, 16 जनवरी 2019

तफ़्ता जी का ख़त महर्षि जी के नाम A letter to mahrish by S.P.TAFTA

आदरणीय तफ़्ता जी ने महर्षि जी को लिखा पत्र।
महरिषः” एक अज़ीम शायर,सिक़ा अरूज़ी और एक हमःजिह्त शख़सीयत ।
                    जिनसे मिलकर ज़िन्दग़ी से इश्क हो जाये,वो लोग
                    आपने शायद न देखे  हों  मगर ऐसे  भी हैं।
मुझे संयोग साहित्य (सहमाही हिन्दी डाइजेस्ट)के सम्पादक श्री मुरलीधर पाण्डेय जी का हुक्म हुआ है कि मैं क़िब्ला “महरिष”, जो इल्मे-अरूज़ और छन्द शास्त्र के प्रकांड विद्वान हैं,की शख़्सियत और अदबी ख़िदमात(व्यक्तित्व एंव कृतित्व)के बारे में कुछ लिखूं । श्री पाण्डेय जी के ख़त ने मुझे सख़्त तज़बज़ुब में डाल दिया और मैं सोचने लगा कि मुझ जैसा मामूली क़तरा, समन्दर के उमुक़ और वुसअत के बारे में आख़िर क्या लिख सकता है ।
             यादश बख़ैर। किब्ला “महरिष” से मेरा क़लमी राब्ता 25 से 30 साल पुराना है लेकिन मज़े की बात ये है, कि आज तक हमने एक दूसरे की शक़्ल तक नहीं देखी। हाँ, ख़तो-किताबत जोरों पर रही और मैं उनसे ग़ायत दर्जे फैज़ियाब भी हुआ और मरते दम तक होता रहूँगा। अरूज़ी बारीकियों के अलावा, मैंने उनसे बहुत से दीग़र मज़ामीन के बारे में दरयाफ़्त किया और माक़ूल जवाबात पाये। उम्मीद है कि ये सिलसिला ताहयात चलता रहेगा।
                             क़िब्ला “महरिष,” डा. “ज़ार” अल्लामी, माहिरे-अरूज़,के तीन जानशीनों (उत्तराधिकारियों) में से एक हैं और इस वक़्त वो ख़ानदाने सह्र- इश्काबादी ( हमारे दादा गुरू) और डा. “ज़ार” अल्लामी के तलामज़ा में न सिर्फ सबसे सीनियर ,बल्कि सबसे मोतबर शायर नीज़ अरूज़ी भी हैं। अगर मैं साफ़ ही कहूँ, क़िब्ला “महरिष,” ख़ानवाद-ए- सह्र इश्काबादी की आबरू हैं। मैं एलानिया कहता हूँ कि क़िब्ला “महरिष” शायरी और अरूज़ नीज़ पिंगल में एक ज़बरदस्त हस्ताक्षर हैं।इनके बहुत से शागिर्द हैं । हालांकि इनकी उम्र नब्बे वर्ष की है, फिर भी वो दिन-रात अदब, ख़ुसूसन इल्मे-अरूज़ के चमन की आबयारी में और अपने शागिर्दों के मार्गदर्शन में, हमःतन मसरूफ़ रहते हैं। इनके दर पर आया हुआ सवाली कभी ख़ाली नहीं जाता! इल्मे-अरूज़ का कोई ऐसा राज़ नहीं है जो इनसे पोशीदा हो। छन्द शास्त्र पर इनकी लिखी हुई छह किताबें हैं, जिनमें इन्होने अरूज़ जैसे दक़ीक़ इल्म को ग़ायत दर्जे रोचक बना दिया है । अरूज़ में ज़िहाफ़ात को रीढ की हड्डी समझा जाता है लेकिन “महरिष” साहब ने ज़िहाफ़ों के पचडे में ज़्यादा न पडते हुये अरूज़ को क़ारईन ( पाठकों) के ज़ह्नों तक पहुंचा दिया है। यूं तो “महरिष” साहब ने क़ितआ,रूबाई,तज़मीन वगैरः की विधाओं(techniques) को सरल तरीके से पाठकों तक बख़ूबी पहुंचाया है, फिर भी इन्होंने ग़ज़ल को ही शायरी की मुख़्तलिफ़ विधाओं में से सबसे अफ़ज़ल माना है और भरपूर कोशिश की है कि दिलों में उतर जाने वाली ग़ज़ल कहने के लिये, शायरों को किन-किन बातों का ख़्याल रखना चाहिये। यूँ भी ग़ज़ल को उम्मुलअसनाफ़ (कविता की सब विधाओं की माँ) कहा गया है। क़िब्ला “महरिष” ने अपनी छह की छह क़ाबिले सताइश क़िताबों में ग़ज़ल के हर पहलू पर अपने आलिमाना विचार क़ारईन(पाठकों) तक पहुंचाये हैं। क़िब्ला महरिष हर ज़ाविये (दृष्टिकोण) से एक मुकम्मल फ़नकार हैं। उस्तादे मोहतरम के ओजस्वी शब्दों में---
                 अनवार-असर बनना बहुत मुश्किल है
                 बेदार  नज़र  बनना बहुत मुश्किल  है।
                 शायर तो कोई शख़्स भी हो सकता है,
                 फ़नकार मगर बनना बहुत मुश्किल है।
            “महरिष” साहब की बेशुमार अदबी खूबियों में उनकी सबसे बडी ख़ूबी यः है कि उनके कलाम में सादगी यानि सलासत बदर्ज-ए-अतम मौजूद है। ज़माने को देखते हुये वो अपने शागिर्दों को आसान और आम फ़ह्म जब़ान में कलाम तख़्लीक़ करने की तलक़ीन फ़रमाते हैं। उन्हें ये इल्म है कि इस ऊर्दू दुश्मन दौर में सक़ील(भारी) फ़ारिसी और अरबी अल्फ़ाज़ नीज़ तराकीब को कौन समझेगा।
            उनका (latest) ख़त मेरे सामने है।मेरे इसरार पर उन्होंने मुझे अपनी एक ग़ज़ल भेजी। मैंने ग़ज़ल के पहले मिसरे (उसका द्वार ही सब कुछ है) को तो यूँ ही रहने दिया , लेकिन  दूसरा मिसरा इस तरह बना दिया यानि “ईशाधार ही सब कुछ है”! हालांकि पूरी ग़ज़ल हिन्दी का लबादा ओढे हुऐ थी,फिर भी क़िब्ला महरिष ने ईशाधार के बारे में यूँ लिखा, “ईशाधार में हिन्दी कुछ ज़्यादा ही है, हिन्दी वाले ऐसा कहेंगे, मैं नहीं !”जिस शख़्स को ईशाधार तक में भरीपन महसूस हुआ हो और जिसको हिन्दी शोरा के मिज़ाज का गहराई से ज्ञान हो, वो भला भारी अल्फ़ाज़ क्योंकर बर्दाशत करेगा।उन्होने दूसरा मिसरा कुछ यूं बनाया, “पालनहार ही सब कुछ है!” और ग़ज़ल को चार चाँद लगा दिये!
अंग्रेज़ी ज़बान में किसी ने ख़ूब कहा है कि-“Brevity is the soul of wit”  इस कहावत को “महरिष” साहब ने अपनी हर किताब में और हर किताब के हर मज़मून में अमली तौर पर साकार कर दिखाया है। इनके कलम से निकला हुआ हर फ़िक़रा अंग्रेज़ी की ऊपर लिखी गई कहावत को पूरी तरह निभाता हुआ नज़र आता है।उनके हर फ़िक़रे की एक ठोस value है जिसमें कुछ न कुछ नया, प्रभावशाली एंव अर्थपूर्ण होता है।  कारी(पाठक) अगर  उनकी रचनाओं और अरूज़ी किताबों को ध्यान से नहीं पढता तो समझ लीजिये कि वो किसी महत्वपूर्ण कथन से वंचित हुआ है।
        महरिष साहब ने अरूज़ी दायरों का ज़िक्र न करते हुये भी हर बहर और उसके मुख़्तलिफ़ औज़ान को क़ारईन (पाठकों) तक बख़ूबी पहुंचाया है।इसे कहते हैं गागर में सागर भरने का हुनर।
        कुछ लोग अरूज़ को बेकार समझ कर उसकी आलोचना करते हैं, येः जानते हुये भी कि छन्दशास्त्र वेदों में वर्णित छह अंगों में से एक है अर्थात शिक्षा, कल्प,निरूक्त,व्याकरण,छन्द तथा ज्योतिष। जब पवित्र वेदों तक ने छन्द शास्त्र को पूर्ण महत्व दिया है तो इसकी अवहेलना करना न्यायसंगत नहीं है। अगरचे, शायरी एक ईश्वरदत्त प्रतिभा है जिसका अरूज़ से कुछ सरोकार नहीं है । यदि हम छन्दोबद्द कविता का सृजन करना चाहते हैं तो अरूज़/पिंगल का ज्ञान होना नितांत आवश्यक है। दरअसल, अरूज़, शायर को केवल स्टैंडर्ड बाट फ़राहम करता है।अगर शेर वज़्न से आरी है तो कविता नीरस।  शायर की मुश्किलें तब और भी अधिक बढ जाती हैं जब हिन्दी अल्फ़ाज़ को सही वज़न के साँचे में ढालना होता है। अगर कविता हिन्दी में कही गई है तब भी हर हिन्दी लफ़्ज़ के सही वज़न का सही तअयुन बहुत जरूरी है, वरना शेर वज़्न से ख़ारिज हो जाएगा। मिसाल के तौर पर “प्रसाद” को अगर हम “परसाद” तथा “प्रकाश” को “परकाश” बाँधते हैं तो शेरः का वज़्न गडबडा जाएगा। अगर हम मृत्यु को “मरतू”, “कृपा” को “किरपा”, “प्रक़ति” को “पकति” बाधँते हैं तो शेरः वज़्न से ख़ारिज हो जाएगा।“प्रक़ति” को “पकति”, “प्रसाद” को “पसाद”, “प्रकाश” को “पकाश” तथा “क़पा” को “कपा” बाँधना ही सही है।हाँ कुछ अपवाद (Exceptions) भी हो सकते हैं “पयाला” फ़ारिसी लफ़्ज़ है और इसका सही वज़्न “फ़ऊलुन” होगा न कि “फ़ेलुन” । और तो और ख़ुदाए सुख़न जनाब़ मीर तकी “मीर” भी “प्यारे” के सही वज़्न “फ़ेलुन” की बज़ाए “फ़ऊलुन” के वज़्न पर बाँध गये जो सरासर ग़लत है।“मीर” का शेर मुलाहिज़ा फ़रमायेः-
        “शिकवए-आबला अभी से “मीर”
        है “पियारे” हनोज़ दिल्ली दूर” ।
ये भी मुमकिन है कि “मीर” ने “प्यारे” को बरवज़्न ‘फऊलुन’ बाँध कर (poetic license)से काम लिया हो जो हर शायर को करना पडता है।
              अरूज़ एक ऐसा ख़ौफ़नाक जंगल है कि जिसमें बडे-बडे दिग्गज भी भटक गये हैं, लेकिन महरिष साहब ने अरूज़ का इस ढंग से सरलीकरण कर दिया है और इसे इस क़दर दिलचस्प बना दिया है कि वो लोहे के चनों की बज़ाए स्वादिष्ट हल्वा बन गया है । उन्होने अरबी बहूर के मुनासिब और रोचक हिन्दी समानार्थ शब्द(Equivalents)देकर साहित्य जगत पर एक लाज़वाल एहसान किया है । अरूज़ में बहूर की कुल तादाद इकत्तीस(31) है। मिसाल के तौर पर उन्होने बहरे-मुतक़ारिब को अभिसार छन्द,बहरे-मुतदारिक को मिलनयामिनी छन्द,बहरे- कामिल को पूर्णिमा छन्द,बहरे-वाफ़िर को सुमन छन्द, बहरे और बहरे-रजज़ को गर्विता छन्द, बहरे रमल को मरूकणिका छन्द, बहरे तवील को विकसित लता छन्द,बहरे मदीद को बहूचर्चिता छन्द,बहरे-मुन्सरिह् को सरला छन्द और मुक़्तज़ब को विरहणी छन्द आदि-आदि। उन्होने बाक़ी बहूर को भी मनोहारी हिन्दी नाम प्रदान किये हैं। शब्द विभाजन और तक़ती (मात्रा गणना) के नियम भी व्यापक तौर पर समझाये हैं। हर्फ़े- वस्ल क्या है और इससे शायर किस प्रकार से लाभान्वित हो सकता है, “महरिष” साहब ने बडे ही रोचक एंव सरल ढंग से समझाया है। उन्होने “तपोवन” शब्द तथा इसकी मक़लूब (उल्टी) सूरतों के ज़रिये इक्त्तीस(31) बहूर के घटकों की सही तरतीब को सरल ढंग से समझाया है। सालिम अरकान (प्राथमिक घटक) और उनके मुज़ाहिफ़ अरकान(परिवर्तित रूप) कहाँ-कहाँ आ सकते हैं, को भी स्पष्ट रूपेण समझाया है।
                 रूबाई की विधा को अरूज़ की दुनिया में आज भी एक डरावनी विधा समझा जाता है। “जोश” मलीहाबादी जैसे अज़ीम शायर और उच्च कोटि के विद्वान ने तो रूबाई के बारे में यहाँ तक कह दिया कि ये कम्बख़्त किसी शायर को पचास साल से कम की उम्र में आ ही नहीं सकती। “रौदकी” को रूबाई की विधा का  मूजिद (अविष्कारक) माना गया है। उसने रूबाई के मूल वज़्न मफ़ऊलु मफ़ाइलुन मफ़ाईलु फ़अल/फ़उल पर समायोजन विधा अर्थात तख़्नीक के अमल से कुल 24 औज़ान निकाले। फिर हमारे दादा ज़नाब सह्र इश्क़ाबादी ने इनमें 12 औज़ान का इज़ाफ़ा किया। उसके बाद उस्तादे-मोहतरम क़िब्ला “ज़ार” अल्लामी ने 18 औज़ान का मज़ीद इज़ाफ़ा किया। इस तरह रूबाई के कुल औज़ान 54 हो गये। उस्तादे मोहतरम ने ये फ़तवा ज़ारी कर दिया कि “अब रूबाई के औज़ान में किसी किस्म के इज़ाफ़े की कोई गुंज़ाइश नहीं है”।क़िब्ला “महरिष” ने रूबाई के औज़ान को ऐसे रोचक ढंग से समझाया है कि लगता है कि रूबाई हव्वा नहीं बल्कि शौरा की दोस्त है। उन्होंने यह भी समझाया कि- जो अक्षर स्पष्ट रूप से पढनें में नहीं आते उन्हें अक्षर गणना करते समय छोड दिया जाता है।  वस्तुतः “महरिष” साहब ने अपने उस्तादे मोहतरम की नादिर तस्नीफ़ “कलीदे-अरूज़”को पढने की तरह पढा तथा समझने की तरह समझा। वो “कलीदे-अरूज़” से प्रभावित ज़रूर हुए लेकिन उनकी ज़ुमला अरूज़ी काविशें उनकी अपनी हैं।
                    ‘ग़ज़ल के विभिन्न स्वरूप नामक’ शीर्षक के अन्तर्गत महरिष साहब ने ग्यारह(11) प्रकार की ग़ज़लों का मिसालों समेत खुलकर बख़ान किया है ये ग्यारह प्रकार की ग़ज़लें जो आजकल प्रचलित हैं, यूँ हैः-  1.स्वतन्त्र अश्आर वाली ग़ज़लें 2. मुसलसल ग़ज़ल 3. नई ग़ज़ल 4. पारम्परिक ग़ज़ल 5. आज़ाद ग़ज़ल 6. यक क़ाफ़िया ग़ज़ल 7. मुस्तज़ाद ग़ज़ल 8. मुसम्मत ग़ज़ल 9. क़ितआ युक्त ग़ज़ल 10. मुरस्सा ग़ज़ल 11. ग़ज़ल सनअते मुतलव्विन में ।
     क़ाफ़िया एक टेढी खीर है ।कोह्नामश्क (स्थापित) शायर,(कवि) भी भारी ग़लतियों का शिकार होकर रह जाते हैं। “महरिष” साहब ने क़ाफ़ियों के दोष ( सिनाद,इक्फ़ा एंव ईता) को मिसालों के ज़रिये पाठकों को समझाया है। इसके अलावा उन्होने बहरे मुतकारिब में अमले- तख़्नीक ( समायोजन विधि) तथा बहरे मुतदारिक में अमले- तस्कीन ( स्थिर विधि ) को भी सरलता के साथ समझाया है। पंजाबी (Folk lore) से आये हुये माहिया एंव माहिया ग़ज़ल नीज़ दोहा एंव दोहा ग़ज़ल के बारे में भी “महरिष” साहब ने खुलकर बहस की है। अपनी अब तक की अन्तिम क़िताब “व्यवहारिक छन्द” शास्त्र में तो क़िब्ला “महरिष” ने  क़लम ही तोड डाला । जैसा कि हम ऊपर लिख चुके हैं उन्होने ऊर्दू और हिन्दी शायरी के किसी पहलू को नहीं छोडा।चाहे  वो चौपाई हो या सवैया हो या फिर दोहा हो। यच तो ये है महरिष साहब की एक-एक किताब पर बेशुमार सेर-हासिल मज़ामीन क़लम बंद किये जा सकते हैं। यूं तो उनकी सभी किताबें एक से बढकर एक हैं फिर भी हम ये कहेंगे कि उनकी किताब ‘व्यवहारिक छन्द शास्त्र’ पढने और मनन करने से तआल्लुक़ रखती है।
             जबकि “महरिष” साहब की छः किताबें अरूज़ के बारे में हैं, मेरी नज़र से उनकी सिर्फ़ एक किताब “नागफ़नियों ने सजाई महफ़िलें” अभी तक गुजरी हैं। मैं समझता हूँ कि उनके पास ग़ज़लियात, क़ित्आत , रूबाईयात और तज़ामीन का एक ख़जाना मौजूद है, जिसको वो जनता के सामने अब तक इसलिये न ला सके कि उन्होने अपनी तव्ज्जो अरूज़ की तरफ़ ज़्यादा दी है।  अपने सैंकडों शागिर्दों के कलाम पर इस्लाह देने और उनका उचित मार्गदर्शन करने के कार्य में व्यस्त रहने के कारण भी वो अभी तक अपने कलामे-बलाग़त निज़ाम को मन्ज़रे-आम तक लाने में असमर्थ रहे।
    हमें उम्मीद है कि “महरिष” साहब हमारी प्रार्थना पर गौर फ़रमा कर अपनी रचनाओं का संग्रह जल्द से जल्द मन्ज़रे-आम पर लायेंगे। हालांकि उनकी कविताओं की पुस्तक “नागफ़नियों ने सजाई महफ़िलें ” में केवल 43 ग़ज़लें एंव 23 तज़मीन ही हैं लेकिन गुणवत्ता की दृष्टि से उनका कलाम और लोगों के कंई –कंई दीवानों पर भारी पडता है। उनके उक्त ग़ज़ल संग्रह में उन्होने “साहिर लुधियानवी” की तरह कडे चयन से काम लिया है। उनकी प्रत्येक ग़ज़ल का एक-एक शेर “मीर”के 72 शेरी निशतरों की बराबरी करता हुआ प्रतीत होता है। बानग़ी के लिये चंद अश्आर मुलाहिज़ा फ़रमायें:-
      “चटपटी है बात लछमन- सी मगर
      अर्थ में  रघुवीर सी  गंभीर  है”।
      “जब चली वात्सल्य रस की बात,
      आ गये  सूरदास  होठों  पर”।
     “ हज़ार ग़जलें कहीं तुमने नाज़नीनों पर,
      कहो कुछ इसपे, ये रोटी का एक टुकडा है”।
     “ इक तरफ दावत ख़िज़ाँ को दे रहा है आदमी,
      फिर बहारों से भी कहता है ठहरने के लिये”।
     “ द्रौपदी दाँव  पर  लगी  “महरिष”
      हार भी किस मुक़ाम तक पहुँची”।
मौलाना “हाली” के लाजवाब मर्सिये के नीचे दिये गये दो अश्आर ज़नाब महरिष पर पूरे उतरते हैं । अश्आर यूँ हैः-
     हमने सबका कलाम देखा है
     हैं अदब शर्त,मुंह न खुलवायें
     ग़ालिबे नुक्तादां से क्या निस्बत
     ख़ाक को आसमां से क्या निस्बत।
अब आगर हम ग़ालिब की जगह “महरिष” ( substitute) करके दूसरे शेर को पढें, तो न तो हक़ीक़त ही कम होगी और न ही ऐसा करना अतिश्योक्ति में शुमार होगा । वाक़ई क़िब्ला “महरिष” जैसी हस्तियाँ युगों में जन्म लेती हैं। उनके बारे में जितना भी लिखा जाये कम है।
       “सफ़ीना चाहिये इस बह्रे-बेकरां के लिये”
       कुछ और चाहिये वुसअत मेरे बयां के लिये”!
“महरिष” साहब हर लिहाज़ से मुजतहिदुल अस्र (Trail blazer) की हैसीयत के अलम बरदार हैं। वो जितने अच्छे इन्सान हैं उतने ही अच्छे मोतबर शायर एंव सिक़ा अरूज़ी भी हैं।उनकी तो आवाज़ भी निहायत खुश आईन्द है। लगता है फ़ोन पर बात करते हुये मुंह से फूल झड रहे हों। ये बातें किसी और के लिये लिखना कद्रे मुश्किल है। हक़ बः हक़दार रसीद ।
 खानदाने-अल्लाम  “सह्र” इश्काबादी मरहूमो मग़फूर कोई बहुत बडा ख़ानदान नहीं है। इसके डाण्डे ऊर्दू के मायानाज़ मर्सिया गो ज़नाब  “दबीर”लख़नवी से मिलते हैं। इस ख़ानदान के हर फ़र्द की एक इम्तियाज़ी हैसीयत ये है कि वो जनता के सामने एक नया तजरिबा रखता है। ख़्वाह वो ग़ज़ल का मैदान हो कि नज़्म का, ख़्वाह वो रूबाई का क्षेत्र हो कि तज़मीन का, हर फ़र्द कुछ न कुछ हट कर पेश करने का हुनर रखता है तथा यही असली फ़नकारी है।
               “हम सुख़न फ़हम हैं “ग़ालिब” के तरफ़दार नहीं”
                                      मज़मून पहले ही काफ़ी तवील हो गया है। इसको मज़ीद तवालत न देते हुये इस फ़क़ीरे-गोशागीर की तहे दिल से बारगाहे- एज़दी में यही दुआ है कि वो क़िब्ला “महरिष” को रहती दुनियां तक सलामत रखे ताकि समन ज़ारे-शायरी और अरूज़ की आबयारी होती रहे। मैं इस मज़मून को हाली के ज़ैलदर्ज शेर पर ख़त्म किया चाहता हूँ।
  > बहुत जी खुश हुआ “हाली” से मिलकर
   अभी कुछ लोग बाक़ी है जहाँ में ।
                                 आमीन सुमआमीन
                                प्रो.सत्य प्रकाश शर्मा “तफ़्ता” “ज़ारी”
                                ज़ानशीन डा. “ज़ार” अल्लामी
                                कुरूक्षेत्र (हरियाणा)
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tafta

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