गजल-
मैंने स्वीकारा उसका गुलदस्ता
फूल नकली था कैसे मुरझाता
उसको अपनी ही बात अच्छी लगे
मैं भला उसको कैसे समझाता
...जबसे मंहगाई गीत गाने लगी
तबसे हर आदमी है घबराता
घोंसले ने ही लूटा चिडिया को
जुर्म हर डाल-डाल इतराता
धर्म को जानते नहीं हम सब
वरना हमको कोई न बहकाता
जुर्म को देखता रहा चुपचाप
इससे अच्छा सुजान मर जाता
सूबे सिहं सुजान
मैंने स्वीकारा उसका गुलदस्ता
फूल नकली था कैसे मुरझाता
उसको अपनी ही बात अच्छी लगे
मैं भला उसको कैसे समझाता
...जबसे मंहगाई गीत गाने लगी
तबसे हर आदमी है घबराता
घोंसले ने ही लूटा चिडिया को
जुर्म हर डाल-डाल इतराता
धर्म को जानते नहीं हम सब
वरना हमको कोई न बहकाता
जुर्म को देखता रहा चुपचाप
इससे अच्छा सुजान मर जाता
सूबे सिहं सुजान
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