ग़ज़ल
ज़िन्दगी के मोड़ पर,ग़म की महक आती रही,
थी कहीं कच्ची, कहीं पक्की सड़क आती रही।
रेलगाड़ी उनकी धीरे धीरे गुजरी थी मगर,
पटरियां सब ठीक थी, फिर भी धमक आती रही।
लोग मेरी टहनियों पर पाँव रखकर चढ़ गये,
और ज्यादा मेरे चेहरे पर चमक आती रही।
टूटी फूटी सड़कें थी, और खूबसूरत पेड़ थे,
उस सफर की याद मुझको अब तलक आती रही।
मैं सफर को कार में या रेलगाड़ी में करूँ,
मुझको उसकी चूडियोँ की ही खनक आती रही।
मेरे बचपन में पिता ने एक थप्पड़ मारा था,
आज तक कानों में आवाज़ें कड़क आती रही।
सूबे सिंह सुजान
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