रविवार, 21 नवंबर 2021

ग़ज़ल- जिन्हें खुद पे विश्वास कुछ भी नहीं है।

 ग़ज़ल 


जिन्हें खुद पे विश्वास कुछ भी नहीं है 

उन्हें रब का अहसास कुछ भी नहीं है ।


समंदर में और मरुस्थल में रहा हूँ 

मेरे सामने प्यास कुछ भी नहीं है ।


कि हम आज जैसे हैं, वैसे ही कल थे 

सिवा इसके इतिहास कुछ भी नहीं है ।


जमाने को इतना समय दे रहा हूँ 

कि खुद के लिए पास कुछ भी नहीं है ।


कि मैंने तो जीवन की दौलत लुटा दी 

मगर उनको अहसास कुछ भी नहीं है ।


सूबे सिंह "सुजान"

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