शनिवार, 5 जुलाई 2025

वायु की दिशाएं रोग व निदान तय करती हैं।

 वायु की दिशाएं रोग व उनके निदान तय करती हैं।


एक भारतीय किसान हवा के दिशाओं की ओर से बहने के लाभ व हानि को सदियों से जानते हैं और उनका अपनी फसलों के लिए प्रयोग करते आए हैं ।

जैसे पश्चिमी दिशा से बहने वाली वायु मनुष्य ही नहीं सभी फ़ैसलों, वनस्पति और पृथ्वी पर सभी प्राणियों को स्वास्थ्य प्रदान करती है और वहीं पूर्व दिशा की वायु इसके विपरित रोग को,रोग पैदा करने वाले कीट को पैदा करती है।

यह सब किसान बेहतर जानते हैं और यह उन्होंने अपने अनुभवों से सीखा गया है यह प्रकृति की प्रक्रिया के साथ आत्मसात होकर सीखा जाता है यह अत्यधिक समर्पण द्वारा सिद्ध होता है। यह विज्ञान ही तो है जिसे किसान अपने जीवन में प्रयोग करते रहे हैं।

यह उनकी शिक्षा ही है तो क्या हम केवल अंग्रेजी मानसिकता से दी गई शिक्षा को सब कुछ क्यों मानते हैं वह तो पृथ्वी, प्रकृति को नष्ट-भ्रष्ट करने का ज्यादा काम करते हैं हम सनातन को समझें यह सनातन संस्कृति के कार्य प्रकृति प्रदत्त हैं जो सदैव रहेंगे।

सूबे सिंह सुजान 

#हवा #वायु #रोग #निदान 


चित्र में सूबे सिंह सुजान अपने स्कूल के बच्चों के साथ पौधा लगाते हुए।

रविवार, 29 जून 2025

लेखकों की कामुकता के किस्से बहुत प्रचलित हैं। सुशोभित

 मैं जब भी इस तरह के वाक्य सुनता हूँ तो अचरज में पड़ जाता हूँ कि "साहित्यकार होकर भी ऐसा लम्पट-कृत्य?" 


तब मेरे मन में प्रश्न उठता है कि आपसे कहा किसने था कि साहित्यकार लम्पट नहीं होगा? साहित्य और सच्चरित्र में क्या को-रिलेशन है?


साहित्यकार वह होता है, जो कल्पनाशील हो, विचारशील हो, अध्येता हो, जिसको लिखना आता हो, कहानी सुनाना, बातें बनाना आता हो। इनमें से किसी भी गुण का सम्बंध इंद्रिय-संयम या ब्रह्मचर्य या चरित्रगत-निष्ठा से नहीं है। उलटे इस बात की सम्भावना अधिक है कि साहित्यकार या कलाकार का चरित्र साधारणजन से भी क्षीण हो।


कारण, साहित्यकार की कल्पनाशीलता उसे और ऐंद्रिक बनाती है। अपनी ऐंद्रिकता से वह और निष्कवच (वल्नरेबल) हो जाता है। अगर वह चरित्रगत रूप से दृढ़ भी हो, तो सोने पर सुहागा है, और वांछनीय है! किन्तु अपेक्षित नहीं है। यह गुण किसी योगी से अपेक्षित हो सकता है, साहित्यकार से नहीं।


लेखकों की कामुकता के किस्से बहुत प्रचलित हैं। अज्ञेय की सेक्शुएलिटी बहुत विचित्र थी। अक्षय मुकुल ने उनकी जो जीवनी लिखी है उसमें उसके ब्योरे दिए हैं। 'शेखर एक जीवनी' में भी सघन कामुकता की एक अंतर्धारा सर्वत्र व्याप्त है। श्रीनरेश मेहता ने आधुनिक गीत-गोविन्द कहलाने वाला काव्य ('तुम मेरा मौन हो') केवल कल्पना से ही नहीं लिख दिया है। शमशेर के यहाँ जो तीखी सेंसुअसनेस है, वह महज़ भाषाई नहीं है। इस बारे में अधिक जानने के लिए मलयज को पढ़ें। चन्द्रकान्त देवताले ने एक बार निजी चर्चाओं में मुझे बतलाया था कि उन्होंने विदेश से भारत लौटे एक बड़े लेखक को एक स्त्री के सम्मुख अभद्र प्रस्ताव रखते देखा था। मैं यहाँ नाम नहीं लिखना चाहता, किन्तु कम से कम दो ऐसे लेखकों के बारे में मुझे ज्ञात है, जिन्होंने कन्या महाविद्यालय का संचालन कर रहे व्यक्तियों से अनुचित 'आपूर्ति' की माँग की थी। राजेन्द्र यादव, आलोक धन्वा, धर्मवीर भारती, शिवमंगल सिंह सुमन के नाम से प्रचलित किंवदंतियों के बारे में कुछ ना कहूँ तो ही बेहतर, पाठक बेहतर जानते होंगे।


यह तो मैंने हिन्दी लेखकों की बातें कहीं, विश्व में बायरन, तोलस्तोय, नेरूदा, मार्केज़, पिकासो, हिकमत, लोर्का, डाली आदि लेखकों-कलाकारों के जीवन-वृत्तांत आप पढ़ेंगे तो पाएँगे कि स्त्री-संयम के मामले में उनमें से कोई भी साधु नहीं था। उलटे सच्चाई इसके विपरीत थी। इनमें से कुछ तो दुर्निवार व्यभिचारी थे। रोमन पोलंस्की पर एक माइनर के साथ यौन-दुराचार का मुक़दमा चला था और उसके बाद भी उन्हें ऑस्कर पुरस्कार दिया गया था!


मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि लेखक-कलाकार के अपराध क्षम्य हैं। उलटे, मेरा प्रस्ताव है कि अगर कोई लेखक-कलाकार होकर भी अपराध करता है तो उसे उसी अपराध के लिए किसी साधारणजन को दी जाने वाली सज़ा से अधिक सज़ा दी जाए, क्योंकि उसमें किसी के विश्वास-भंग का नैतिक-अपराध भी सम्मिलित हो सकता है। किन्तु आपको समझना होगा कि किसी लेखक-कलाकार का अतिशय कामुक होना आपको असहज भले करता हो, वह अपराध नहीं है।


बलात्-चेष्टा अपराध है, यौन-प्रस्ताव रखना अपराध नहीं है। 


दबाव या भयादोहन से या विवशता का लाभ उठाकर बनाया गया सम्बंध अपराध है, किन्तु किसी पुरुष-लेखक का स्त्री में यौन-रुचि रखना अपराध नहीं है।


हाँ, अगर कोई श्रेष्ठ लेखक-कलाकार ऊँचे चरित्र वाला, दृढ़-प्रतिज्ञ, इंद्रिय-निरोधी भी हो तो उसकी गरिमा और बढ़ जाती है। किन्तु- दुर्भाग्य से- वैसे उदाहरण विरल ही हैं। और भला लगे या बुरा- एक कलाकार के रूप में किसी रचनाकार की श्रेष्ठता का निर्णय अन्तत: उसके कृतित्व से ही किया जाएगा, उसके चरित्र से



नहीं!


Sushobhit


गुरुवार, 26 जून 2025

प्रणय निवेदन करना पुरुष का अधिकार है। सुशोभित

 प्रणय-निवेदन करना पुरुष का स्वाभाविक अधिकार है! जब तक कि उसमें




दबाव न हो, भयादोहन न हो, विवशता का लाभ उठाने की भावना न हो, बलात्-चेष्टा न हो। वह अपने नाम के अनुरूप ही एक 'निवेदन' हो!


और उस निवेदन को स्वीकार या अस्वीकार कर देना स्त्री का अधिकार है!


ये दोनों अधिकार एक साथ अपनी गरिमा और चाहना के आवरण में अस्तित्व में रह सकते हैं, इन दोनों ही अधिकारों को उन दोनों से छीना नहीं जा सकता।


अलिखित शर्त यही है कि पुरुष की प्रणय-याचना सुघड़, सुधीर, संयत और इसके बावजूद ऐंद्रिक, काव्योक्त और तीक्ष्ण हो! 


प्रणय-निवेदन कितना सुंदर है, स्त्री की कल्पनाओं में यह भी सम्मिलित होता है, रतिकेलि और संसर्ग तो ख़ैर होते ही हैं।


स्त्री कहती है- "मैं जानती हूं तुम क्या चाहते हो। किंतु उसे ऐसे कहकर दिखलाओ कि रीझ जाऊं!"


और तब, अगर पुरुष धीरोदात्त है, नायक है, सुशील है, तो स्त्री के समर्पण को अर्जित करने का यत्न करता है, ठीक वैसे ही, जैसे किसी पुरुष को करना चाहिए।


स्त्री और पुरुष के बीच धधकती हुई कामना की यह चेष्टा इतनी सुंदर है कि यह काव्य रचती है, शिल्प रचती है, संगीत रचती है, सृष्टि की संसृति वैसे ही हुई है, ब्रह्मांड का विस्तार इसी रीति से सम्भव हुआ है।


पुरुष को स्त्री की सम्मति के प्रवेशद्वार पर खड़े होकर प्रतीक्षा करनी होती है, जितनी अनुमति वह देती है, उतना ही उसके भीतर प्रवेश करना होता है। इस नियम का उल्लंघन सम्भव नहीं।


हर वो बलात्-चेष्टा, जो इस मर्यादा को लांघती है, अपराध है। नैतिक अर्थों में ही नहीं, बल्कि सौंदर्यशास्त्रीय अर्थों में भी। 


किसी भी रीति का अनधिकार प्रवेश बलात्कार की ही पूर्वपीठिका है। 


लौकिक साधनों से अगर स्त्री के हृदय में प्रवेश की कुंजी मिल सकती तो आज हाट में बेभाव बिक रहे होते प्रेम, सघन-कामना, स्फूर्त-रतिचेष्टा और परम-संतोष की आदिम-कंदराएं!


और स्मरण रहे कि प्रणय-निवेदन या यौन-प्रस्ताव पर पुरुष का एकाधिकार नहीं है, स्त्री भी यह निःसंकोच होकर कर सकती है। करती ही है! प्रगाढ़ अनुभवों से कहता हूं!


स्त्री और पुरुष के परस्पर से ही रति-चेष्टाओं और यौन-क्रीड़ाओं का परिसर सुशोभित होता है, बलात्-चेष्टा के किसी प्रसंग से इस परस्पर को कलंकित करना स्वयं के विरुद्ध विद्रोह करना ही कहलाएगा!


Sushobhit


शनिवार, 19 अप्रैल 2025

हमाम में सब नंगे हैं।यह जुमला बड़ा झूठ है।

*हमाम में सब नंगे???
यह जुमला बहुत बड़ा झूठ है*

दरअसल यह जुमला अपने आप को बचाने के लिए ही कहा गया होगा।
कैसे सबको एक जैसा कह सकते हैं ऐसा कभी नहीं होता।
सब एक जैसे न शक्ल से,काम से,दिल से नहीं हो सकते।
यह झूठ को प्रचारित करने व अपने ग़लत काम पर पर्दा डालने के लिए बोला जाता है।
सब एक जैसे किसी जगह पर नहीं हो सकते, किसी काम में नहीं हो सकते।
लेकिन यह जुमला वही लोग ज़्यादा कहते पाए जाते हैं जो खुद ग़लत काम करते हैं और ग़लत को प्रोत्साहित करते हैं व सच को, अच्छे आदमी को दबाते हैं वह एक सच्चे व्यक्ति पर भी जानबूझकर आरोप लगाते हैं ताकि उनके जुर्म छुप सकें उनका झूठ सामने न आए और लोग आपस में बहस करते रह जाएं वह बच कर निकल जाए।
नकारात्मकता यही काम करती है वह सकारात्मकता को भी उलझन में डाल देती है और ईमानदार निष्ठावान लोग अपने आपको साबित करने में लग जाते हैं और बेईमान लोग कभी इसकी परवाह नहीं करते वह जानते हैं ईमानदार अपनी ईमानदारी के चक्कर में रह जाएंगे और उसको बचने का मौका मिल जाएगा।

जो लोग यह कहते हैं कि हमाम में सब नंगे हैं वह झूठ को छुपाने व सच को दबाने के लिए ऐसा करते हैं।

सूबे सिंह सुजान 

शुक्रवार, 18 अप्रैल 2025

सरकारी स्कूल बनिस्बत प्राईवेट स्कूल, समाज की खोखली सोच

 सरकारी संस्थाओं को सब लोग कुछ मूल्य नहीं देते और प्राईवेट को अपने जिगर निकाल कर दे देते हैं।


एक बच्चे को लेकर उसकी मां सरकारी स्कूल में आई बोली कि यह बच्चा आपके पास पहली में दाखिल करवाया था फिर हम कुछ महीने बाद प्राईवेट स्कूल में ले गए थे। मुझे भी वह वाक्या याद आ गया था आगे बोलती हैं अब हम वापिस आपके पास सरकारी स्कूल में दाखिल करवाना चाहते हैं प्राईवेट की फ़ीस देनी पड़ती है और इसको कुछ पढ़ना भी नहीं आता।


मैंने कहा ठीक है हम दाखिल कर लेंगे हां इसके लिए आपको प्राईवेट स्कूल से सर्टिफिकेट लेकर आना होगा क्योंकि अब सब बच्चे ऑनलाइन हैं उनका एक एसआरएन नंबर है वह बोली ठीक है ।

लेकिन अगले दिन स्कूल आकर बोली कि उनकी कुछ फ़ीस बकाया है आप ऐसे ही कर लीजिए, उनको फिर बताया कि ऐसे नहीं दाखिला हो सकता आपको एसएलसी लेकर आना ही होगा। 

फिर अगले दिन प्राईवेट स्कूल गई और वापिस स्कूल आकर बोली कि पहले आप यह बताइए कि मेरे बच्चे को कौन सी कक्षा में दाखिला देंगे?


मैंने कहा वह वहां कौन सी क्लास में है?

बोली उसको छोड़ो, उसकी आयु अनुसार उसको चौथी कक्षा में कर लीजिए।

मैंने उसका आधार से ऑनलाइन चैक किया तो बच्चा दूसरी कक्षा में है 

मैने कहा आपने तीन साल से बच्चे को वहां पढ़ाया और यह पता तक नहीं किया कि बच्चा कौन सी क्लास में है?

आपका बच्चा अभी भी दूसरी कक्षा में है वह बोली यह तो ठीक नहीं आप चौथी में दाखिल कर लीजिए।


मैं बोला आप वहां मोटी फीस भी दे रहे हैं और उनसे कोई सवाल नहीं?


और हमसे नियम से भी बाहर जाकर काम करने को कह रहे हैं?

यहां कोई फ़ीस भी नहीं देनी।

फिर भी यहां कंडीशन लगा रहे हैं?


हमारे आम जनमानस की सोच ऐसी बन गई है या बनाई गई है कि वह सरकारी स्कूलों, संस्थाओं को लूटने की सोचते हैं और प्राईवेट को सब कुछ सजा कर परोसते हैं।

यह मानसिक गुलामी से उपजी है इसी कारण देश में लोग काम न करके मुफ़्त खाने की फिराक में लगे रहते हैं हमें इस सोच से बाहर निकलना होगा, अपने परिश्रम से सफलता प्राप्त करनी होगी क्योंकि अच्छे, सुखद परिणाम केवल और केवल परिश्रम से ही मिलते हैं कर्म ही जीवित होने की पहचान


है।


सूबे सिंह सुजान

गुरुवार, 17 अप्रैल 2025

किसान भारत का अन्नदाता है। लेकिन स्त्री अन्नपूर्णा है।

 ख़ुद को किसानों का हमदर्द समझने वाले अपने भाई सुजान की सेवा में विनम्र निवेदन ।



बड़े ज़ोर-शोर से प्रचारित और महा-झूठ से प्रेरित अन्ध-विश्‍वास यह है; कि ‘किसान’ भारत का अन्नदाता है; इसके उलट तल्ख़ हक़ीक़त यह है; कि सर्व प्रथम वैदिक युग में आर्यों ने ही; अपने प्रभुत्व के आरम्भिक-काल में बड़े पैमाने पर जंगलों को काटकर; खेती को बढ़ावा देने वाली नीति के ज़रिये श्रेष्‍ठ पुरुष को ‘अन्न-दाता’ और श्रेष्‍ठ स्त्री को ‘अन्नपूर्णा’ कहकर गौरवान्वित किया. खेती को सर्वोत्तम व्यवसाय समझकर अपनी लौकिक आस्था के सहारे ही; हमारे समाज ने औद्योगिक और व्यापारिक सम्पन्नता के विविध सोपान चढ़कर भारत को दुनिया भर में ‘सोने की चिड़िया’ के नाम से ख्याति प्रदान करवाई...


किन्तु समूचे विश्‍व को एक कुटुम्ब मानकर सभी के सुख की कामना करते हुए; तलवार की बजाय; अध्यात्म से अपने ‘राज्य’ का विस्तार करने वाले ‘विश्‍व-गुरु’ ने ‘आत्म-रक्षा’ की उपेक्षा की क़ीमत अनेक सदियों की अनवरत ग़ुलामी का अवाञ्छित वरण करके चुकाई. मुग़लों से पहले भारत में आने वाले सभी बर्बर लुटेरों ने कभी अज्ञानतावश; धरती के वक्ष पर लहलहाती समृद्ध फ़सलों को अकारण अपने घोड़ों की टापों से रौंदा; तो कभी अहंकारवश उन्हें जलाकर; हमारे परिश्रमी किसानों को हतोत्साहित करने की भरसक चेष्‍टा की...


मुग़लों ने भी भारी-भरकम राजस्व और ‘जज़िया’ जैसे अमानुषिक करों के मारक प्रहारों से घनघोर आपदाओं में घिरी होने के बावजूद; अब तक कृषि को ही सर्वोत्तम व्यवसाय मानने वाले भारतीय किसान की कमर तोड़ने की जीजान से कोशिश की; किन्तु कर्मठता से लैस ‘अन्नदाता’ की जिजीविषा पहले की तरह अपराजेय रही और कृषि अधिकांश भारतीय नागरिकों की आजीविका का मुख्य साधन बनी रही...


भारत की खेती का सर्वाधिक विनाश पहले लुटेरी ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने; फिर मक्कार अंग्रेज़ी सरकार ने और बाद में ब्रिटिश सरकार के कुटिल उत्तराधिकारी मोती के जारज सपूत जवाहर ने अपने शासन-काल में किया. स्वतंत्र भारत में लालबहादुर शास्त्री के डेढ़ वर्षीय शासन-काल की बहुत छोटी-सी अवधि में अमरीका से अन्न के आयात को रोककर; भारतीय किसान के सहयोग से शुरू की गई ‘हरित क्रान्ति’ के सिवा कदापि कोई ईमानदार कोशिश नहीं हुई. भारतीय किसान के दुर्भाग्य से; युद्ध में हारकर बदनाम हो चुके पाकिस्तान के राष्‍ट्र-पति अयूब ख़ान, जगजीवन राम, यशवन्त राव चव्हाण, स्वर्ण सिंह, ऐलैक्सी कोसीगिन, ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो और ख़ुद को अपनी ख़ानदानी सल्तनत से महरूम समझ रही मोती की ख़ुराफ़ाती पोती इन्दिरा ने ताशकन्द में रची गई साज़िश में परमवीर लालबहादुर को मरवाकर; किसान अन्नदाता के सीने पर अपनी दिग्विजय का झण्डा गाड़ दिया और... 


लालबहादुर शास्त्री के बाद ख़ुद के किसान होने का दावा करने वाले तमाम सियासतबाज़ किसान कम और ज़मींदार ज़्यादा थे. उन्होंने किसानों के नाम पर मुफ़्त बिजली, सिंचाई-सुविधाओं, ब्याज़-मुक्‍त कर्ज़, सस्ती खाद आदि का अकूत लाभ अपने लगुओं-भगुओं को देने-दिलाने के दुष्कर्म ही अधिक किये हैं...


विश्‍व-बैंक के दुलारे, नरसिंह राव के संकट-मोचक, सोनिया के भक्‍त और अन्तर-राष्‍ट्रीय ख्याति वाले महान अर्थ-शास्त्री श्री मनमोहन सिंह के मुबारक क़दम भारत की राजनीति में पड़ते वक़्त (1991 में) खेती कर रहे लोगों में 54 प्रतिशत भूमिहीन-कृषि-मज़दूर थे. तब से अनेक छोटे और ग़रीब किसान लुट-पिटकर भूमिहीन-कृषि-मज़दूरों की बिरादरी में शामिल हो चुके होंगे. इसके बावजूद यदि आजकल भी; कुछ छोटे और ग़रीब किसान रोज़गार के किसी अन्य साधन के न होने के कारण; मजबूरी में खेती के काम में लगे हुए हैं; तो वे अपनी उपज को बेचने की बजाय; केवल अपने गुज़ारे के लिये ही खेती करते हैं. अपनी अति छोटी जोतों के चलते; उनके लिये मण्डी में बेचने के लिये; फ़सल उगाना पूरी तरह असम्भव हो चुका है...


मण्डी में बिकने के लिये आई तमाम फ़सलें सम्पन्न और धनी किसानों की होती हैं. ऐसे सभी ‘किसानों’ की खेती को पूरी तरह उजरती खेती कहना चाहिये. इसलिये आज के महान भारत के वास्तविक ‘अन्नदाता’ का पद ‘किसान’ को नहीं; बल्कि ‘भूमिहीन-कृषि-मज़दूर’ को दिया जाना चाहिये...


शायद इसीलिये मनमोहन की तरह पढ़-लिखकर ‘बड़ा आदमी’ बनने की तमन्ना करने वाले किसी वाम-पन्थी, दक्षिण-पन्थी, मध्य-पन्थी या (केजरी-छाप) लुप्‍त-पन्थी राज-नेता के मन में इस तथाकथित किसान के लिये किसी प्रकार की मानवीय संवेदना का नामो-निशान भी दिखाई नहीं देता...


बोल जमूरे जय-जय; मेरा भारत देश महान...

(मेरी प्रकाश्य पुस्तक ‘नेहरू-गाँधी-सल्तनत में सियासत की हवस’ में से उद्धृत)


भुवनेश कुमार 

(दिवंगत)

सच पत्थर होते हैं

 सारे सच होते हैं कोई पत्थर,

और पत्थर हज़म नहीं होते ।


सूबे सिंह सुजान


सोमवार, 24 मार्च 2025

चापलूसी में प्रतिस्पर्धा कवियों की।

 एक कवि सम्मेलन में एक संचालक महोदय बीच में नीचे आए और मेरे पास बैठ कर कुछ कवियों के नाम पूछे कि कौन कौन से हैं जो अभी नहीं पढ़ पाए मैं जानता नहीं हूं मैंने कुछ नाम बता दिए जिन्हें मैं जानता था।

उन्होंने स्टेज की ओर इशारा करके पूछा कि आप उनमें से कुछ नाम बता सकते हैं मैंने चारों के नाम बताए और जिन्होंने नहीं पढ़ा वह भी और जिन्होंने नहीं पढ़ा वह भी,एक वरिष्ठ कवि की पुस्तक विमोचन वहीं पर हुई थी मंच पर उनका जिक्र भी हो चुका था।

स्वाभाविक बात है वहीं कुछ देर पहले पुस्तक विमोचन किया गया था। लेकिन उन्होंने मुझसे उनका नाम जानना चाहा,तो मैंने बताया कि इनका यह नाम है और अभी उनकी पुस्तक विमोचन हुई है और पुस्तक का नाम भी यह है।


कुछ देर बाद वह मंच पर उन्हीं वरिष्ठ कवि को आमंत्रित करते हुए कहते हैं कि मैं अपने गुरु जी को आमंत्रित कर रही हूं कि मैं फलां कक्षा में उनसे पढ़ा था।


उस सभागार में मैं ही था जो उनके पांच मिनट पहले के ज्ञान और अब के ज्ञान में अति शीघ्र बढ़ोतरी को जानता था बाकी सब लोग तालियां बजा रहे थे मैं हतप्रभ देख रहा था।



सूबे सिंह सुजान

साहित्यकार भी बेहद झूठ बोलते हैं


 कविता पढ़ना और समझना आज के दौर में बहुत कठिन है क्योंकि कविता में क्या कहा गया है और क्यों कहा गया है यह समझना एक युवा के लिए ज़्यादा पेचीदा हो जाता है वह युवा सोच कर कुछ आया है और उसे वैचारिक रूप से क़ैद कर लिया जाता है और वह स्वतंत्र नहीं रह पाया, स्वतंत्र नहीं कह पाया।

साहित्य में भी इसी तरह यहीं से गुलाम बनाया जाता है।


लेखक, कवि, साहित्यकार भी बेहद झूठ बोलते हैं, राजनीति करते हैं, धर्म, अधर्म करते हैं और तो और गरीब को गरीब रखने का प्रयास करते हैं उसके अधिकारों की बात उसके मुंह पर करते हैं और सच में उसकी जड़ें काटते हैं उसे हमेशा गरीब रखना चाहते हैं और उसके समाज सुधार के नाम पर आप विदेशी ताकतों से पैसे बटोरते रहते हैं।

जो साहित्यकार हिन्दू, मुस्लिम की बात करते हैं बार बार दरअसल वह केवल दूसरों पर आरोप लगाते रहते हैं और स्वयं यह झगड़ा सदा जीवित रखना चाहते हैं वह स्वयं कट्टरपंथी हैं कट्टरता की बात कहते हैं हमें युवा समाज को ऐसे आतंकी सोच के साहित्यकारों से बचाना होगा।