मैं जब भी इस तरह के वाक्य सुनता हूँ तो अचरज में पड़ जाता हूँ कि "साहित्यकार होकर भी ऐसा लम्पट-कृत्य?"
तब मेरे मन में प्रश्न उठता है कि आपसे कहा किसने था कि साहित्यकार लम्पट नहीं होगा? साहित्य और सच्चरित्र में क्या को-रिलेशन है?
साहित्यकार वह होता है, जो कल्पनाशील हो, विचारशील हो, अध्येता हो, जिसको लिखना आता हो, कहानी सुनाना, बातें बनाना आता हो। इनमें से किसी भी गुण का सम्बंध इंद्रिय-संयम या ब्रह्मचर्य या चरित्रगत-निष्ठा से नहीं है। उलटे इस बात की सम्भावना अधिक है कि साहित्यकार या कलाकार का चरित्र साधारणजन से भी क्षीण हो।
कारण, साहित्यकार की कल्पनाशीलता उसे और ऐंद्रिक बनाती है। अपनी ऐंद्रिकता से वह और निष्कवच (वल्नरेबल) हो जाता है। अगर वह चरित्रगत रूप से दृढ़ भी हो, तो सोने पर सुहागा है, और वांछनीय है! किन्तु अपेक्षित नहीं है। यह गुण किसी योगी से अपेक्षित हो सकता है, साहित्यकार से नहीं।
लेखकों की कामुकता के किस्से बहुत प्रचलित हैं। अज्ञेय की सेक्शुएलिटी बहुत विचित्र थी। अक्षय मुकुल ने उनकी जो जीवनी लिखी है उसमें उसके ब्योरे दिए हैं। 'शेखर एक जीवनी' में भी सघन कामुकता की एक अंतर्धारा सर्वत्र व्याप्त है। श्रीनरेश मेहता ने आधुनिक गीत-गोविन्द कहलाने वाला काव्य ('तुम मेरा मौन हो') केवल कल्पना से ही नहीं लिख दिया है। शमशेर के यहाँ जो तीखी सेंसुअसनेस है, वह महज़ भाषाई नहीं है। इस बारे में अधिक जानने के लिए मलयज को पढ़ें। चन्द्रकान्त देवताले ने एक बार निजी चर्चाओं में मुझे बतलाया था कि उन्होंने विदेश से भारत लौटे एक बड़े लेखक को एक स्त्री के सम्मुख अभद्र प्रस्ताव रखते देखा था। मैं यहाँ नाम नहीं लिखना चाहता, किन्तु कम से कम दो ऐसे लेखकों के बारे में मुझे ज्ञात है, जिन्होंने कन्या महाविद्यालय का संचालन कर रहे व्यक्तियों से अनुचित 'आपूर्ति' की माँग की थी। राजेन्द्र यादव, आलोक धन्वा, धर्मवीर भारती, शिवमंगल सिंह सुमन के नाम से प्रचलित किंवदंतियों के बारे में कुछ ना कहूँ तो ही बेहतर, पाठक बेहतर जानते होंगे।
यह तो मैंने हिन्दी लेखकों की बातें कहीं, विश्व में बायरन, तोलस्तोय, नेरूदा, मार्केज़, पिकासो, हिकमत, लोर्का, डाली आदि लेखकों-कलाकारों के जीवन-वृत्तांत आप पढ़ेंगे तो पाएँगे कि स्त्री-संयम के मामले में उनमें से कोई भी साधु नहीं था। उलटे सच्चाई इसके विपरीत थी। इनमें से कुछ तो दुर्निवार व्यभिचारी थे। रोमन पोलंस्की पर एक माइनर के साथ यौन-दुराचार का मुक़दमा चला था और उसके बाद भी उन्हें ऑस्कर पुरस्कार दिया गया था!
मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि लेखक-कलाकार के अपराध क्षम्य हैं। उलटे, मेरा प्रस्ताव है कि अगर कोई लेखक-कलाकार होकर भी अपराध करता है तो उसे उसी अपराध के लिए किसी साधारणजन को दी जाने वाली सज़ा से अधिक सज़ा दी जाए, क्योंकि उसमें किसी के विश्वास-भंग का नैतिक-अपराध भी सम्मिलित हो सकता है। किन्तु आपको समझना होगा कि किसी लेखक-कलाकार का अतिशय कामुक होना आपको असहज भले करता हो, वह अपराध नहीं है।
बलात्-चेष्टा अपराध है, यौन-प्रस्ताव रखना अपराध नहीं है।
दबाव या भयादोहन से या विवशता का लाभ उठाकर बनाया गया सम्बंध अपराध है, किन्तु किसी पुरुष-लेखक का स्त्री में यौन-रुचि रखना अपराध नहीं है।
हाँ, अगर कोई श्रेष्ठ लेखक-कलाकार ऊँचे चरित्र वाला, दृढ़-प्रतिज्ञ, इंद्रिय-निरोधी भी हो तो उसकी गरिमा और बढ़ जाती है। किन्तु- दुर्भाग्य से- वैसे उदाहरण विरल ही हैं। और भला लगे या बुरा- एक कलाकार के रूप में किसी रचनाकार की श्रेष्ठता का निर्णय अन्तत: उसके कृतित्व से ही किया जाएगा, उसके चरित्र से
नहीं!
Sushobhit
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