रविवार, 29 जून 2025

लेखकों की कामुकता के किस्से बहुत प्रचलित हैं। सुशोभित

 मैं जब भी इस तरह के वाक्य सुनता हूँ तो अचरज में पड़ जाता हूँ कि "साहित्यकार होकर भी ऐसा लम्पट-कृत्य?" 


तब मेरे मन में प्रश्न उठता है कि आपसे कहा किसने था कि साहित्यकार लम्पट नहीं होगा? साहित्य और सच्चरित्र में क्या को-रिलेशन है?


साहित्यकार वह होता है, जो कल्पनाशील हो, विचारशील हो, अध्येता हो, जिसको लिखना आता हो, कहानी सुनाना, बातें बनाना आता हो। इनमें से किसी भी गुण का सम्बंध इंद्रिय-संयम या ब्रह्मचर्य या चरित्रगत-निष्ठा से नहीं है। उलटे इस बात की सम्भावना अधिक है कि साहित्यकार या कलाकार का चरित्र साधारणजन से भी क्षीण हो।


कारण, साहित्यकार की कल्पनाशीलता उसे और ऐंद्रिक बनाती है। अपनी ऐंद्रिकता से वह और निष्कवच (वल्नरेबल) हो जाता है। अगर वह चरित्रगत रूप से दृढ़ भी हो, तो सोने पर सुहागा है, और वांछनीय है! किन्तु अपेक्षित नहीं है। यह गुण किसी योगी से अपेक्षित हो सकता है, साहित्यकार से नहीं।


लेखकों की कामुकता के किस्से बहुत प्रचलित हैं। अज्ञेय की सेक्शुएलिटी बहुत विचित्र थी। अक्षय मुकुल ने उनकी जो जीवनी लिखी है उसमें उसके ब्योरे दिए हैं। 'शेखर एक जीवनी' में भी सघन कामुकता की एक अंतर्धारा सर्वत्र व्याप्त है। श्रीनरेश मेहता ने आधुनिक गीत-गोविन्द कहलाने वाला काव्य ('तुम मेरा मौन हो') केवल कल्पना से ही नहीं लिख दिया है। शमशेर के यहाँ जो तीखी सेंसुअसनेस है, वह महज़ भाषाई नहीं है। इस बारे में अधिक जानने के लिए मलयज को पढ़ें। चन्द्रकान्त देवताले ने एक बार निजी चर्चाओं में मुझे बतलाया था कि उन्होंने विदेश से भारत लौटे एक बड़े लेखक को एक स्त्री के सम्मुख अभद्र प्रस्ताव रखते देखा था। मैं यहाँ नाम नहीं लिखना चाहता, किन्तु कम से कम दो ऐसे लेखकों के बारे में मुझे ज्ञात है, जिन्होंने कन्या महाविद्यालय का संचालन कर रहे व्यक्तियों से अनुचित 'आपूर्ति' की माँग की थी। राजेन्द्र यादव, आलोक धन्वा, धर्मवीर भारती, शिवमंगल सिंह सुमन के नाम से प्रचलित किंवदंतियों के बारे में कुछ ना कहूँ तो ही बेहतर, पाठक बेहतर जानते होंगे।


यह तो मैंने हिन्दी लेखकों की बातें कहीं, विश्व में बायरन, तोलस्तोय, नेरूदा, मार्केज़, पिकासो, हिकमत, लोर्का, डाली आदि लेखकों-कलाकारों के जीवन-वृत्तांत आप पढ़ेंगे तो पाएँगे कि स्त्री-संयम के मामले में उनमें से कोई भी साधु नहीं था। उलटे सच्चाई इसके विपरीत थी। इनमें से कुछ तो दुर्निवार व्यभिचारी थे। रोमन पोलंस्की पर एक माइनर के साथ यौन-दुराचार का मुक़दमा चला था और उसके बाद भी उन्हें ऑस्कर पुरस्कार दिया गया था!


मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि लेखक-कलाकार के अपराध क्षम्य हैं। उलटे, मेरा प्रस्ताव है कि अगर कोई लेखक-कलाकार होकर भी अपराध करता है तो उसे उसी अपराध के लिए किसी साधारणजन को दी जाने वाली सज़ा से अधिक सज़ा दी जाए, क्योंकि उसमें किसी के विश्वास-भंग का नैतिक-अपराध भी सम्मिलित हो सकता है। किन्तु आपको समझना होगा कि किसी लेखक-कलाकार का अतिशय कामुक होना आपको असहज भले करता हो, वह अपराध नहीं है।


बलात्-चेष्टा अपराध है, यौन-प्रस्ताव रखना अपराध नहीं है। 


दबाव या भयादोहन से या विवशता का लाभ उठाकर बनाया गया सम्बंध अपराध है, किन्तु किसी पुरुष-लेखक का स्त्री में यौन-रुचि रखना अपराध नहीं है।


हाँ, अगर कोई श्रेष्ठ लेखक-कलाकार ऊँचे चरित्र वाला, दृढ़-प्रतिज्ञ, इंद्रिय-निरोधी भी हो तो उसकी गरिमा और बढ़ जाती है। किन्तु- दुर्भाग्य से- वैसे उदाहरण विरल ही हैं। और भला लगे या बुरा- एक कलाकार के रूप में किसी रचनाकार की श्रेष्ठता का निर्णय अन्तत: उसके कृतित्व से ही किया जाएगा, उसके चरित्र से



नहीं!


Sushobhit


गुरुवार, 26 जून 2025

प्रणय निवेदन करना पुरुष का अधिकार है। सुशोभित

 प्रणय-निवेदन करना पुरुष का स्वाभाविक अधिकार है! जब तक कि उसमें




दबाव न हो, भयादोहन न हो, विवशता का लाभ उठाने की भावना न हो, बलात्-चेष्टा न हो। वह अपने नाम के अनुरूप ही एक 'निवेदन' हो!


और उस निवेदन को स्वीकार या अस्वीकार कर देना स्त्री का अधिकार है!


ये दोनों अधिकार एक साथ अपनी गरिमा और चाहना के आवरण में अस्तित्व में रह सकते हैं, इन दोनों ही अधिकारों को उन दोनों से छीना नहीं जा सकता।


अलिखित शर्त यही है कि पुरुष की प्रणय-याचना सुघड़, सुधीर, संयत और इसके बावजूद ऐंद्रिक, काव्योक्त और तीक्ष्ण हो! 


प्रणय-निवेदन कितना सुंदर है, स्त्री की कल्पनाओं में यह भी सम्मिलित होता है, रतिकेलि और संसर्ग तो ख़ैर होते ही हैं।


स्त्री कहती है- "मैं जानती हूं तुम क्या चाहते हो। किंतु उसे ऐसे कहकर दिखलाओ कि रीझ जाऊं!"


और तब, अगर पुरुष धीरोदात्त है, नायक है, सुशील है, तो स्त्री के समर्पण को अर्जित करने का यत्न करता है, ठीक वैसे ही, जैसे किसी पुरुष को करना चाहिए।


स्त्री और पुरुष के बीच धधकती हुई कामना की यह चेष्टा इतनी सुंदर है कि यह काव्य रचती है, शिल्प रचती है, संगीत रचती है, सृष्टि की संसृति वैसे ही हुई है, ब्रह्मांड का विस्तार इसी रीति से सम्भव हुआ है।


पुरुष को स्त्री की सम्मति के प्रवेशद्वार पर खड़े होकर प्रतीक्षा करनी होती है, जितनी अनुमति वह देती है, उतना ही उसके भीतर प्रवेश करना होता है। इस नियम का उल्लंघन सम्भव नहीं।


हर वो बलात्-चेष्टा, जो इस मर्यादा को लांघती है, अपराध है। नैतिक अर्थों में ही नहीं, बल्कि सौंदर्यशास्त्रीय अर्थों में भी। 


किसी भी रीति का अनधिकार प्रवेश बलात्कार की ही पूर्वपीठिका है। 


लौकिक साधनों से अगर स्त्री के हृदय में प्रवेश की कुंजी मिल सकती तो आज हाट में बेभाव बिक रहे होते प्रेम, सघन-कामना, स्फूर्त-रतिचेष्टा और परम-संतोष की आदिम-कंदराएं!


और स्मरण रहे कि प्रणय-निवेदन या यौन-प्रस्ताव पर पुरुष का एकाधिकार नहीं है, स्त्री भी यह निःसंकोच होकर कर सकती है। करती ही है! प्रगाढ़ अनुभवों से कहता हूं!


स्त्री और पुरुष के परस्पर से ही रति-चेष्टाओं और यौन-क्रीड़ाओं का परिसर सुशोभित होता है, बलात्-चेष्टा के किसी प्रसंग से इस परस्पर को कलंकित करना स्वयं के विरुद्ध विद्रोह करना ही कहलाएगा!


Sushobhit