मैं नये, हौंसले बनाऊंगा
और कुछ रास्ते बनाऊंगा।
तुम नहीं, दर्द को समझते हो,
आदमी,दूसरे बनाऊंगा।
ताकि हम दर्द अपने खुजलायें,
इसलिए खरखरे बनाऊंगा
कुछ दिनों से उदास बैठा हूं,
मंज़िलों के पते बनाऊंगा।
अपने हाथों को पीटना तुम सब,
मैं नहीं झुनझुने बनाऊंगा।
सूबे सिंह "सुजान"
मैं नये, हौंसले बनाऊंगा
जवाब देंहटाएंऔर कुछ रास्ते बनाऊंगा।
तुम नहीं, दर्द को समझते हो,
आदमी,दूसरे बनाऊँगा//
कमाल की पंक्तियोँ के साथ सुन्दर प्रस्तुति सुजान जी हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई स्वीकार करें 🙏🙏🌺🌺
रेणु जी, आपका हार्दिक धन्यवाद जी और स्वागत है।
जवाब देंहटाएंआप ग़ज़ल को, साहित्य को समझ कर टिप्पणी करते हैं।