मंगलवार, 16 सितंबर 2025

अपनी गरिमा को व्यक्ति ख़ुद नीचे गिरा लेते हैं।


 हर व्यक्ति का अपना एक अलग अलग स्वभाव, व्यक्तित्व होता है वह उसी प्रकार,कि जिस प्रकार उसकी शक्ल अलग-अलग, बुद्धि अलग अलग होती है।

लेकिन यह तो सामान्य बात है परन्तु हैरानी तब ज़्यादा होती है जब व्यक्ति के गिरने या उठने का स्तर भी अलग-अलग देखने को मिलता है यह उठ कर या बैठना नहीं है यह चारित्रिक, वैचारिक स्तर का उठना व बैठना है इससे भी गंभीर बात तब होती है जब वह कोई उच्च स्तरीय अधिकारी के पद पर कार्यरत होकर एक सामान्य नागरिक से भी नीचले स्तर पर जानते हुए भी गिर पड़ता है।

सामाज के लिए गंभीर प्रश्न तब बन जाता है जब उच्च स्तरीय अधिकारी और उच्च चरित्र प्रदर्शित करने वाले व्यक्ति यह अशोभनीय कार्य करते हैं और  वह अपने स्तर पर अपने करीबी लोगों के लिए अनेकानेक नाजायज़ कार्य करते हैं और जो व्यक्ति उनको सही राह बताए और वह उसको न अपनाकर उसी के विरुद्ध तुच्छ मानसिकता के साथ बातचीत करते हैं यह समाज में अति संवेदनहीनता को प्रदर्शित करता है और बहुत दुःखद यह होता है कि सम्मुख बैठे समाज के गणमान्य कहलाने वाले खामोश रहते हैं जबकि कुछ दिनों बाद उनका भी यह नंबर आएगा यह वह भी नहीं सोचते जबकि जानते हैं कि ऐसा होता आया है लेकिन स्वार्थ वश वह सोचते हैं शायद मेरा नहीं दूसरे का नंबर आएगा।


शुक्रवार, 5 सितंबर 2025

भावनाओं से व्यापार करना कानूनी जुर्म घोषित होना चाहिए

 जीवन शैली में सभ्यता , संस्कृति व धर्म का महत्वपूर्ण योगदान रहा है उसके पश्चात संविधान व कानून का योगदान आया है लेकिन यदि संविधान का प्रयोग अलग अलग व्यक्तियों के लिए उनकी अलग-अलग मान्यता के लिए जानबूझकर साज़िश के तहत किया जाने लगता है तो संविधान का उल्लंघन भी जानबूझकर किया जाता है तो संविधान का उद्देश्य ही खत्म हो जाता है।

और जब किसी एक पक्ष की जानबूझकर की गई गल्तियो में दूसरे पक्ष को भी शामिल करके अपनी बात कहना व प्रचारित करना भी एक तरह का जुर्म है और यह जुर्म अर्थात यह बात इस तरह कहना साजिशतन सिखाया जाए तो यह संविधान व कानून में अपराध श्रेणी में शामिल करके सजा दिया जाना चाहिए न कि उनकी भावनाओं की बात व विचारों की स्वतंत्रता कह कर टाल दिया जाए क्योंकि आप दूसरे पक्ष को जानबूझकर बात में हिस्सा बना कर जुर्म करने वाले के पक्ष को कमजोर करके उसे बचाने का प्रयास कर रहे हैं।

जब कश्मीर में भारत के राज् चिन्ह अशोक चक्र जो हटाया, तोड़ा, जलाया जाता है जो कि बरसों से पहले वहां पर अंकित है तो उसके अपराध में उन अपराधियों को सीधा अपराधी न कह कर ,उनकी बात के बीच में दूसरे पक्ष को ले आते हैं, जिसका कोई तर्क नहीं है तो आप जुर्म करने वाले पक्ष को जानबूझकर बचाने की साज़िश कर रहे हैं।

ऐसा भारत की अदालतों में अक्सर हमारे वकील,जज लोग करते हैं और इसी तरह मीडिया भी सरेआम अपने विचारों की स्वतंत्रता का सहारा लेकर दूसरे पक्ष पर अपने विचार जबरदस्ती थोपते हुए उसे घसीट लेते हैं यह वास्तव में एक साज़िश का पहलू होता है।




सूबे सिंह सुजान