शनिवार, 19 अप्रैल 2025
हमाम में सब नंगे हैं।यह जुमला बड़ा झूठ है।
शुक्रवार, 18 अप्रैल 2025
सरकारी स्कूल बनिस्बत प्राईवेट स्कूल, समाज की खोखली सोच
सरकारी संस्थाओं को सब लोग कुछ मूल्य नहीं देते और प्राईवेट को अपने जिगर निकाल कर दे देते हैं।
एक बच्चे को लेकर उसकी मां सरकारी स्कूल में आई बोली कि यह बच्चा आपके पास पहली में दाखिल करवाया था फिर हम कुछ महीने बाद प्राईवेट स्कूल में ले गए थे। मुझे भी वह वाक्या याद आ गया था आगे बोलती हैं अब हम वापिस आपके पास सरकारी स्कूल में दाखिल करवाना चाहते हैं प्राईवेट की फ़ीस देनी पड़ती है और इसको कुछ पढ़ना भी नहीं आता।
मैंने कहा ठीक है हम दाखिल कर लेंगे हां इसके लिए आपको प्राईवेट स्कूल से सर्टिफिकेट लेकर आना होगा क्योंकि अब सब बच्चे ऑनलाइन हैं उनका एक एसआरएन नंबर है वह बोली ठीक है ।
लेकिन अगले दिन स्कूल आकर बोली कि उनकी कुछ फ़ीस बकाया है आप ऐसे ही कर लीजिए, उनको फिर बताया कि ऐसे नहीं दाखिला हो सकता आपको एसएलसी लेकर आना ही होगा।
फिर अगले दिन प्राईवेट स्कूल गई और वापिस स्कूल आकर बोली कि पहले आप यह बताइए कि मेरे बच्चे को कौन सी कक्षा में दाखिला देंगे?
मैंने कहा वह वहां कौन सी क्लास में है?
बोली उसको छोड़ो, उसकी आयु अनुसार उसको चौथी कक्षा में कर लीजिए।
मैंने उसका आधार से ऑनलाइन चैक किया तो बच्चा दूसरी कक्षा में है
मैने कहा आपने तीन साल से बच्चे को वहां पढ़ाया और यह पता तक नहीं किया कि बच्चा कौन सी क्लास में है?
आपका बच्चा अभी भी दूसरी कक्षा में है वह बोली यह तो ठीक नहीं आप चौथी में दाखिल कर लीजिए।
मैं बोला आप वहां मोटी फीस भी दे रहे हैं और उनसे कोई सवाल नहीं?
और हमसे नियम से भी बाहर जाकर काम करने को कह रहे हैं?
यहां कोई फ़ीस भी नहीं देनी।
फिर भी यहां कंडीशन लगा रहे हैं?
हमारे आम जनमानस की सोच ऐसी बन गई है या बनाई गई है कि वह सरकारी स्कूलों, संस्थाओं को लूटने की सोचते हैं और प्राईवेट को सब कुछ सजा कर परोसते हैं।
यह मानसिक गुलामी से उपजी है इसी कारण देश में लोग काम न करके मुफ़्त खाने की फिराक में लगे रहते हैं हमें इस सोच से बाहर निकलना होगा, अपने परिश्रम से सफलता प्राप्त करनी होगी क्योंकि अच्छे, सुखद परिणाम केवल और केवल परिश्रम से ही मिलते हैं कर्म ही जीवित होने की पहचान
है।
सूबे सिंह सुजान
गुरुवार, 17 अप्रैल 2025
किसान भारत का अन्नदाता है। लेकिन स्त्री अन्नपूर्णा है।
ख़ुद को किसानों का हमदर्द समझने वाले अपने भाई सुजान की सेवा में विनम्र निवेदन ।
बड़े ज़ोर-शोर से प्रचारित और महा-झूठ से प्रेरित अन्ध-विश्वास यह है; कि ‘किसान’ भारत का अन्नदाता है; इसके उलट तल्ख़ हक़ीक़त यह है; कि सर्व प्रथम वैदिक युग में आर्यों ने ही; अपने प्रभुत्व के आरम्भिक-काल में बड़े पैमाने पर जंगलों को काटकर; खेती को बढ़ावा देने वाली नीति के ज़रिये श्रेष्ठ पुरुष को ‘अन्न-दाता’ और श्रेष्ठ स्त्री को ‘अन्नपूर्णा’ कहकर गौरवान्वित किया. खेती को सर्वोत्तम व्यवसाय समझकर अपनी लौकिक आस्था के सहारे ही; हमारे समाज ने औद्योगिक और व्यापारिक सम्पन्नता के विविध सोपान चढ़कर भारत को दुनिया भर में ‘सोने की चिड़िया’ के नाम से ख्याति प्रदान करवाई...
किन्तु समूचे विश्व को एक कुटुम्ब मानकर सभी के सुख की कामना करते हुए; तलवार की बजाय; अध्यात्म से अपने ‘राज्य’ का विस्तार करने वाले ‘विश्व-गुरु’ ने ‘आत्म-रक्षा’ की उपेक्षा की क़ीमत अनेक सदियों की अनवरत ग़ुलामी का अवाञ्छित वरण करके चुकाई. मुग़लों से पहले भारत में आने वाले सभी बर्बर लुटेरों ने कभी अज्ञानतावश; धरती के वक्ष पर लहलहाती समृद्ध फ़सलों को अकारण अपने घोड़ों की टापों से रौंदा; तो कभी अहंकारवश उन्हें जलाकर; हमारे परिश्रमी किसानों को हतोत्साहित करने की भरसक चेष्टा की...
मुग़लों ने भी भारी-भरकम राजस्व और ‘जज़िया’ जैसे अमानुषिक करों के मारक प्रहारों से घनघोर आपदाओं में घिरी होने के बावजूद; अब तक कृषि को ही सर्वोत्तम व्यवसाय मानने वाले भारतीय किसान की कमर तोड़ने की जीजान से कोशिश की; किन्तु कर्मठता से लैस ‘अन्नदाता’ की जिजीविषा पहले की तरह अपराजेय रही और कृषि अधिकांश भारतीय नागरिकों की आजीविका का मुख्य साधन बनी रही...
भारत की खेती का सर्वाधिक विनाश पहले लुटेरी ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने; फिर मक्कार अंग्रेज़ी सरकार ने और बाद में ब्रिटिश सरकार के कुटिल उत्तराधिकारी मोती के जारज सपूत जवाहर ने अपने शासन-काल में किया. स्वतंत्र भारत में लालबहादुर शास्त्री के डेढ़ वर्षीय शासन-काल की बहुत छोटी-सी अवधि में अमरीका से अन्न के आयात को रोककर; भारतीय किसान के सहयोग से शुरू की गई ‘हरित क्रान्ति’ के सिवा कदापि कोई ईमानदार कोशिश नहीं हुई. भारतीय किसान के दुर्भाग्य से; युद्ध में हारकर बदनाम हो चुके पाकिस्तान के राष्ट्र-पति अयूब ख़ान, जगजीवन राम, यशवन्त राव चव्हाण, स्वर्ण सिंह, ऐलैक्सी कोसीगिन, ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो और ख़ुद को अपनी ख़ानदानी सल्तनत से महरूम समझ रही मोती की ख़ुराफ़ाती पोती इन्दिरा ने ताशकन्द में रची गई साज़िश में परमवीर लालबहादुर को मरवाकर; किसान अन्नदाता के सीने पर अपनी दिग्विजय का झण्डा गाड़ दिया और...
लालबहादुर शास्त्री के बाद ख़ुद के किसान होने का दावा करने वाले तमाम सियासतबाज़ किसान कम और ज़मींदार ज़्यादा थे. उन्होंने किसानों के नाम पर मुफ़्त बिजली, सिंचाई-सुविधाओं, ब्याज़-मुक्त कर्ज़, सस्ती खाद आदि का अकूत लाभ अपने लगुओं-भगुओं को देने-दिलाने के दुष्कर्म ही अधिक किये हैं...
विश्व-बैंक के दुलारे, नरसिंह राव के संकट-मोचक, सोनिया के भक्त और अन्तर-राष्ट्रीय ख्याति वाले महान अर्थ-शास्त्री श्री मनमोहन सिंह के मुबारक क़दम भारत की राजनीति में पड़ते वक़्त (1991 में) खेती कर रहे लोगों में 54 प्रतिशत भूमिहीन-कृषि-मज़दूर थे. तब से अनेक छोटे और ग़रीब किसान लुट-पिटकर भूमिहीन-कृषि-मज़दूरों की बिरादरी में शामिल हो चुके होंगे. इसके बावजूद यदि आजकल भी; कुछ छोटे और ग़रीब किसान रोज़गार के किसी अन्य साधन के न होने के कारण; मजबूरी में खेती के काम में लगे हुए हैं; तो वे अपनी उपज को बेचने की बजाय; केवल अपने गुज़ारे के लिये ही खेती करते हैं. अपनी अति छोटी जोतों के चलते; उनके लिये मण्डी में बेचने के लिये; फ़सल उगाना पूरी तरह असम्भव हो चुका है...
मण्डी में बिकने के लिये आई तमाम फ़सलें सम्पन्न और धनी किसानों की होती हैं. ऐसे सभी ‘किसानों’ की खेती को पूरी तरह उजरती खेती कहना चाहिये. इसलिये आज के महान भारत के वास्तविक ‘अन्नदाता’ का पद ‘किसान’ को नहीं; बल्कि ‘भूमिहीन-कृषि-मज़दूर’ को दिया जाना चाहिये...
शायद इसीलिये मनमोहन की तरह पढ़-लिखकर ‘बड़ा आदमी’ बनने की तमन्ना करने वाले किसी वाम-पन्थी, दक्षिण-पन्थी, मध्य-पन्थी या (केजरी-छाप) लुप्त-पन्थी राज-नेता के मन में इस तथाकथित किसान के लिये किसी प्रकार की मानवीय संवेदना का नामो-निशान भी दिखाई नहीं देता...
बोल जमूरे जय-जय; मेरा भारत देश महान...
(मेरी प्रकाश्य पुस्तक ‘नेहरू-गाँधी-सल्तनत में सियासत की हवस’ में से उद्धृत)
भुवनेश कुमार
(दिवंगत)

