शनिवार, 19 अप्रैल 2025

हमाम में सब नंगे हैं।यह जुमला बड़ा झूठ है।

*हमाम में सब नंगे???
यह जुमला बहुत बड़ा झूठ है*

दरअसल यह जुमला अपने आप को बचाने के लिए ही कहा गया होगा।
कैसे सबको एक जैसा कह सकते हैं ऐसा कभी नहीं होता।
सब एक जैसे न शक्ल से,काम से,दिल से नहीं हो सकते।
यह झूठ को प्रचारित करने व अपने ग़लत काम पर पर्दा डालने के लिए बोला जाता है।
सब एक जैसे किसी जगह पर नहीं हो सकते, किसी काम में नहीं हो सकते।
लेकिन यह जुमला वही लोग ज़्यादा कहते पाए जाते हैं जो खुद ग़लत काम करते हैं और ग़लत को प्रोत्साहित करते हैं व सच को, अच्छे आदमी को दबाते हैं वह एक सच्चे व्यक्ति पर भी जानबूझकर आरोप लगाते हैं ताकि उनके जुर्म छुप सकें उनका झूठ सामने न आए और लोग आपस में बहस करते रह जाएं वह बच कर निकल जाए।
नकारात्मकता यही काम करती है वह सकारात्मकता को भी उलझन में डाल देती है और ईमानदार निष्ठावान लोग अपने आपको साबित करने में लग जाते हैं और बेईमान लोग कभी इसकी परवाह नहीं करते वह जानते हैं ईमानदार अपनी ईमानदारी के चक्कर में रह जाएंगे और उसको बचने का मौका मिल जाएगा।

जो लोग यह कहते हैं कि हमाम में सब नंगे हैं वह झूठ को छुपाने व सच को दबाने के लिए ऐसा करते हैं।

सूबे सिंह सुजान 

शुक्रवार, 18 अप्रैल 2025

सरकारी स्कूल बनिस्बत प्राईवेट स्कूल, समाज की खोखली सोच

 सरकारी संस्थाओं को सब लोग कुछ मूल्य नहीं देते और प्राईवेट को अपने जिगर निकाल कर दे देते हैं।


एक बच्चे को लेकर उसकी मां सरकारी स्कूल में आई बोली कि यह बच्चा आपके पास पहली में दाखिल करवाया था फिर हम कुछ महीने बाद प्राईवेट स्कूल में ले गए थे। मुझे भी वह वाक्या याद आ गया था आगे बोलती हैं अब हम वापिस आपके पास सरकारी स्कूल में दाखिल करवाना चाहते हैं प्राईवेट की फ़ीस देनी पड़ती है और इसको कुछ पढ़ना भी नहीं आता।


मैंने कहा ठीक है हम दाखिल कर लेंगे हां इसके लिए आपको प्राईवेट स्कूल से सर्टिफिकेट लेकर आना होगा क्योंकि अब सब बच्चे ऑनलाइन हैं उनका एक एसआरएन नंबर है वह बोली ठीक है ।

लेकिन अगले दिन स्कूल आकर बोली कि उनकी कुछ फ़ीस बकाया है आप ऐसे ही कर लीजिए, उनको फिर बताया कि ऐसे नहीं दाखिला हो सकता आपको एसएलसी लेकर आना ही होगा। 

फिर अगले दिन प्राईवेट स्कूल गई और वापिस स्कूल आकर बोली कि पहले आप यह बताइए कि मेरे बच्चे को कौन सी कक्षा में दाखिला देंगे?


मैंने कहा वह वहां कौन सी क्लास में है?

बोली उसको छोड़ो, उसकी आयु अनुसार उसको चौथी कक्षा में कर लीजिए।

मैंने उसका आधार से ऑनलाइन चैक किया तो बच्चा दूसरी कक्षा में है 

मैने कहा आपने तीन साल से बच्चे को वहां पढ़ाया और यह पता तक नहीं किया कि बच्चा कौन सी क्लास में है?

आपका बच्चा अभी भी दूसरी कक्षा में है वह बोली यह तो ठीक नहीं आप चौथी में दाखिल कर लीजिए।


मैं बोला आप वहां मोटी फीस भी दे रहे हैं और उनसे कोई सवाल नहीं?


और हमसे नियम से भी बाहर जाकर काम करने को कह रहे हैं?

यहां कोई फ़ीस भी नहीं देनी।

फिर भी यहां कंडीशन लगा रहे हैं?


हमारे आम जनमानस की सोच ऐसी बन गई है या बनाई गई है कि वह सरकारी स्कूलों, संस्थाओं को लूटने की सोचते हैं और प्राईवेट को सब कुछ सजा कर परोसते हैं।

यह मानसिक गुलामी से उपजी है इसी कारण देश में लोग काम न करके मुफ़्त खाने की फिराक में लगे रहते हैं हमें इस सोच से बाहर निकलना होगा, अपने परिश्रम से सफलता प्राप्त करनी होगी क्योंकि अच्छे, सुखद परिणाम केवल और केवल परिश्रम से ही मिलते हैं कर्म ही जीवित होने की पहचान


है।


सूबे सिंह सुजान

गुरुवार, 17 अप्रैल 2025

किसान भारत का अन्नदाता है। लेकिन स्त्री अन्नपूर्णा है।

 ख़ुद को किसानों का हमदर्द समझने वाले अपने भाई सुजान की सेवा में विनम्र निवेदन ।



बड़े ज़ोर-शोर से प्रचारित और महा-झूठ से प्रेरित अन्ध-विश्‍वास यह है; कि ‘किसान’ भारत का अन्नदाता है; इसके उलट तल्ख़ हक़ीक़त यह है; कि सर्व प्रथम वैदिक युग में आर्यों ने ही; अपने प्रभुत्व के आरम्भिक-काल में बड़े पैमाने पर जंगलों को काटकर; खेती को बढ़ावा देने वाली नीति के ज़रिये श्रेष्‍ठ पुरुष को ‘अन्न-दाता’ और श्रेष्‍ठ स्त्री को ‘अन्नपूर्णा’ कहकर गौरवान्वित किया. खेती को सर्वोत्तम व्यवसाय समझकर अपनी लौकिक आस्था के सहारे ही; हमारे समाज ने औद्योगिक और व्यापारिक सम्पन्नता के विविध सोपान चढ़कर भारत को दुनिया भर में ‘सोने की चिड़िया’ के नाम से ख्याति प्रदान करवाई...


किन्तु समूचे विश्‍व को एक कुटुम्ब मानकर सभी के सुख की कामना करते हुए; तलवार की बजाय; अध्यात्म से अपने ‘राज्य’ का विस्तार करने वाले ‘विश्‍व-गुरु’ ने ‘आत्म-रक्षा’ की उपेक्षा की क़ीमत अनेक सदियों की अनवरत ग़ुलामी का अवाञ्छित वरण करके चुकाई. मुग़लों से पहले भारत में आने वाले सभी बर्बर लुटेरों ने कभी अज्ञानतावश; धरती के वक्ष पर लहलहाती समृद्ध फ़सलों को अकारण अपने घोड़ों की टापों से रौंदा; तो कभी अहंकारवश उन्हें जलाकर; हमारे परिश्रमी किसानों को हतोत्साहित करने की भरसक चेष्‍टा की...


मुग़लों ने भी भारी-भरकम राजस्व और ‘जज़िया’ जैसे अमानुषिक करों के मारक प्रहारों से घनघोर आपदाओं में घिरी होने के बावजूद; अब तक कृषि को ही सर्वोत्तम व्यवसाय मानने वाले भारतीय किसान की कमर तोड़ने की जीजान से कोशिश की; किन्तु कर्मठता से लैस ‘अन्नदाता’ की जिजीविषा पहले की तरह अपराजेय रही और कृषि अधिकांश भारतीय नागरिकों की आजीविका का मुख्य साधन बनी रही...


भारत की खेती का सर्वाधिक विनाश पहले लुटेरी ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने; फिर मक्कार अंग्रेज़ी सरकार ने और बाद में ब्रिटिश सरकार के कुटिल उत्तराधिकारी मोती के जारज सपूत जवाहर ने अपने शासन-काल में किया. स्वतंत्र भारत में लालबहादुर शास्त्री के डेढ़ वर्षीय शासन-काल की बहुत छोटी-सी अवधि में अमरीका से अन्न के आयात को रोककर; भारतीय किसान के सहयोग से शुरू की गई ‘हरित क्रान्ति’ के सिवा कदापि कोई ईमानदार कोशिश नहीं हुई. भारतीय किसान के दुर्भाग्य से; युद्ध में हारकर बदनाम हो चुके पाकिस्तान के राष्‍ट्र-पति अयूब ख़ान, जगजीवन राम, यशवन्त राव चव्हाण, स्वर्ण सिंह, ऐलैक्सी कोसीगिन, ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो और ख़ुद को अपनी ख़ानदानी सल्तनत से महरूम समझ रही मोती की ख़ुराफ़ाती पोती इन्दिरा ने ताशकन्द में रची गई साज़िश में परमवीर लालबहादुर को मरवाकर; किसान अन्नदाता के सीने पर अपनी दिग्विजय का झण्डा गाड़ दिया और... 


लालबहादुर शास्त्री के बाद ख़ुद के किसान होने का दावा करने वाले तमाम सियासतबाज़ किसान कम और ज़मींदार ज़्यादा थे. उन्होंने किसानों के नाम पर मुफ़्त बिजली, सिंचाई-सुविधाओं, ब्याज़-मुक्‍त कर्ज़, सस्ती खाद आदि का अकूत लाभ अपने लगुओं-भगुओं को देने-दिलाने के दुष्कर्म ही अधिक किये हैं...


विश्‍व-बैंक के दुलारे, नरसिंह राव के संकट-मोचक, सोनिया के भक्‍त और अन्तर-राष्‍ट्रीय ख्याति वाले महान अर्थ-शास्त्री श्री मनमोहन सिंह के मुबारक क़दम भारत की राजनीति में पड़ते वक़्त (1991 में) खेती कर रहे लोगों में 54 प्रतिशत भूमिहीन-कृषि-मज़दूर थे. तब से अनेक छोटे और ग़रीब किसान लुट-पिटकर भूमिहीन-कृषि-मज़दूरों की बिरादरी में शामिल हो चुके होंगे. इसके बावजूद यदि आजकल भी; कुछ छोटे और ग़रीब किसान रोज़गार के किसी अन्य साधन के न होने के कारण; मजबूरी में खेती के काम में लगे हुए हैं; तो वे अपनी उपज को बेचने की बजाय; केवल अपने गुज़ारे के लिये ही खेती करते हैं. अपनी अति छोटी जोतों के चलते; उनके लिये मण्डी में बेचने के लिये; फ़सल उगाना पूरी तरह असम्भव हो चुका है...


मण्डी में बिकने के लिये आई तमाम फ़सलें सम्पन्न और धनी किसानों की होती हैं. ऐसे सभी ‘किसानों’ की खेती को पूरी तरह उजरती खेती कहना चाहिये. इसलिये आज के महान भारत के वास्तविक ‘अन्नदाता’ का पद ‘किसान’ को नहीं; बल्कि ‘भूमिहीन-कृषि-मज़दूर’ को दिया जाना चाहिये...


शायद इसीलिये मनमोहन की तरह पढ़-लिखकर ‘बड़ा आदमी’ बनने की तमन्ना करने वाले किसी वाम-पन्थी, दक्षिण-पन्थी, मध्य-पन्थी या (केजरी-छाप) लुप्‍त-पन्थी राज-नेता के मन में इस तथाकथित किसान के लिये किसी प्रकार की मानवीय संवेदना का नामो-निशान भी दिखाई नहीं देता...


बोल जमूरे जय-जय; मेरा भारत देश महान...

(मेरी प्रकाश्य पुस्तक ‘नेहरू-गाँधी-सल्तनत में सियासत की हवस’ में से उद्धृत)


भुवनेश कुमार 

(दिवंगत)

सच पत्थर होते हैं

 सारे सच होते हैं कोई पत्थर,

और पत्थर हज़म नहीं होते ।


सूबे सिंह सुजान


सोमवार, 24 मार्च 2025

चापलूसी में प्रतिस्पर्धा कवियों की।

 एक कवि सम्मेलन में एक संचालक महोदय बीच में नीचे आए और मेरे पास बैठ कर कुछ कवियों के नाम पूछे कि कौन कौन से हैं जो अभी नहीं पढ़ पाए मैं जानता नहीं हूं मैंने कुछ नाम बता दिए जिन्हें मैं जानता था।

उन्होंने स्टेज की ओर इशारा करके पूछा कि आप उनमें से कुछ नाम बता सकते हैं मैंने चारों के नाम बताए और जिन्होंने नहीं पढ़ा वह भी और जिन्होंने नहीं पढ़ा वह भी,एक वरिष्ठ कवि की पुस्तक विमोचन वहीं पर हुई थी मंच पर उनका जिक्र भी हो चुका था।

स्वाभाविक बात है वहीं कुछ देर पहले पुस्तक विमोचन किया गया था। लेकिन उन्होंने मुझसे उनका नाम जानना चाहा,तो मैंने बताया कि इनका यह नाम है और अभी उनकी पुस्तक विमोचन हुई है और पुस्तक का नाम भी यह है।


कुछ देर बाद वह मंच पर उन्हीं वरिष्ठ कवि को आमंत्रित करते हुए कहते हैं कि मैं अपने गुरु जी को आमंत्रित कर रही हूं कि मैं फलां कक्षा में उनसे पढ़ा था।


उस सभागार में मैं ही था जो उनके पांच मिनट पहले के ज्ञान और अब के ज्ञान में अति शीघ्र बढ़ोतरी को जानता था बाकी सब लोग तालियां बजा रहे थे मैं हतप्रभ देख रहा था।



सूबे सिंह सुजान

साहित्यकार भी बेहद झूठ बोलते हैं


 कविता पढ़ना और समझना आज के दौर में बहुत कठिन है क्योंकि कविता में क्या कहा गया है और क्यों कहा गया है यह समझना एक युवा के लिए ज़्यादा पेचीदा हो जाता है वह युवा सोच कर कुछ आया है और उसे वैचारिक रूप से क़ैद कर लिया जाता है और वह स्वतंत्र नहीं रह पाया, स्वतंत्र नहीं कह पाया।

साहित्य में भी इसी तरह यहीं से गुलाम बनाया जाता है।


लेखक, कवि, साहित्यकार भी बेहद झूठ बोलते हैं, राजनीति करते हैं, धर्म, अधर्म करते हैं और तो और गरीब को गरीब रखने का प्रयास करते हैं उसके अधिकारों की बात उसके मुंह पर करते हैं और सच में उसकी जड़ें काटते हैं उसे हमेशा गरीब रखना चाहते हैं और उसके समाज सुधार के नाम पर आप विदेशी ताकतों से पैसे बटोरते रहते हैं।

जो साहित्यकार हिन्दू, मुस्लिम की बात करते हैं बार बार दरअसल वह केवल दूसरों पर आरोप लगाते रहते हैं और स्वयं यह झगड़ा सदा जीवित रखना चाहते हैं वह स्वयं कट्टरपंथी हैं कट्टरता की बात कहते हैं हमें युवा समाज को ऐसे आतंकी सोच के साहित्यकारों से बचाना होगा।

मंगलवार, 11 मार्च 2025

अलग अलग असाधारण होते हैं। सूबे सिंह सुजान

 लोग सब शिक्षा की बात करते हैं और ऐसी बातें करते हुए बहुत अच्छे लगते हैं कभी कभी इन्हीं लोगों को साल भर में चुपचाप अपने तरीके से ध्यान से देखना क्या यह लोग उस समय के बाद ऐसे काम करते हुए पाए जाते हैं?

अनेकों अनेक संस्थाओं में काम करने वाले, अनेकानेक विशेष स्थानों पर, विशेष उपाधियों पर, विशेष पुरस्कारों से लैस लोग आपको सुर्खियों में मिलेंगे....

लेकिन आप इन लोगों को सामान्य, रोज़मर्रा के कामों को करते देखना यह क्या करते हैं यदि आप इस तरह ध्यान से देख पाएंगे तो ही आप इनको जान पाएंगे, पहचान पाएंगे।


सब हर जगह पर,एक जैसे कभी नहीं हो सकते यही प्रकृति ने सबसे अच्छी बात बनाई है इससे ही हमारे रहने का, जीने का, समानता का, पनपने का और प्रसन्नता का रहस्य कहिए.... वरना आप जी भी नहीं पाते... शिक्षा, विचार सबसे महत्वपूर्ण इसलिए हैं कि यही साधन है जो हमें सब उन्नति की ओर लेकर आए हैं और आगे भी ले जाएंगे।

मनुष्य शिक्षा से व्यवहार और विचारों को प्राप्त करता है लेकिन अंग्रेजी, विदेशी शिक्षा में चापलूसी, प्रतिस्पर्धा इससे आगे चलकर दूसरों को पीछे धकेलने, गरीब रखने और अपने काम के लिए क़त्ल तक करने की शिक्षा दी है और यह शिक्षा मानव विरोधी ही नहीं यह प्रकृति, पर्यावरण विरोधी भी है।

कुछ लोग, विचारधारा ऐसी रहीं हैं और अब भी मौजूद हैं वह सर्वे भवन्तु सुखिन सर्वे शंतु



निरामया की भावना से द्वेष करने का अनुवाद करते रहे हैं और क़त्ल करने को कानूनी मान्यता देते रहे हैं इन विचारधाराओं में हम सामान्य लोग अंतर नहीं कर पाए या साहस नहीं कर पाए यह सोचना बहुत जरूरी है।

जो न देखा, वही असाधारण

 आदमी, आदमी असाधारण

हो गई दोस्ती असाधारण।


आपसे  दोस्ती  असाधारण 

फिर हुई दुश्मनी असाधारण।


दोस्तों को परख़ लिया हमने,

जो न देखा वही असाधारण।


सूबे सिंह सुजान 



गुरुवार, 30 जनवरी 2025

महाकुंभ पर दुःख भी उपज गया

 दुःखी विषय पर, जो लोग खुश हैं,

उन्हीं की पहचान,आप रखना।

जिसे जो करना था कर गया वो,

तो लाज भगवान,आप रखना।


सूबे सिंह सुजान

शुक्रवार, 24 जनवरी 2025

स्वार्थवश अहंकार उपजता है

 हमें अपने अभिमान को समझने में देर लगती है हम दूसरों में दोष न होते भी दिखाने का प्रयास करते हैं लेकिन अपने दोष होते हुए भी स्वार्थवश नकारते रहते हैं।


मनुष्य अपने मनोभावों का सहचर होता है लेकिन अंह त्याग करने वाले लोग ही दूसरे के मनोभावों को समझ सकते हैं और ऐसा भी नहीं होता है कि जो मनुष्य एक बार किसी के बारे में बिल्कुल सपाट, ईमानदार निष्ठावान होता है वह हर समय रहे ऐसा असंभव है और ऐसा रहना भी चाहिए वरना मनुष्य सृष्टि के लिए घातक बन सकता है।


प्रकृति ने हर क्षेत्र, वस्तु, तत्वों व जीवों को सबसे सटीक रचनाएं प्रकाशित की हुई हैं इससे बेहतर कुछ नहीं हो सकता सब कुछ भगवान की देन हैं और भगवान ही सृष्टि को चला रहे हैं जो लोग ईश्वर को नहीं मानते वह स्वयं में अहंकारी हैं वह समझ नहीं पाते उनकी सोचने की शक्ति केवल स्वार्थ भरी होती है वह स्वयं अपने स्वार्थ के लिए नास्तिकता की आड़ में अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं जिस भौतिक तत्वों को वह सब कुछ मानते हैं उनकी समझ भी उन्हें नहीं होती वह उन तत्वों को भी स्वीकार नहीं कर पाते जिनका उपभोग करते रहते हैं।


सूबे सिंह


सुजान

गुरुवार, 9 जनवरी 2025

बौद्ध दर्शन उच्च आदर्श के बावजूद कायरता व अमानवीय बनकर रह गया है

 महात्मा बुद्ध का दर्शन मानवता को शांति प्रदान करने के लिए ही है लेकिन उस दर्शन को केवल सनातन संस्कृति, हिन्दू समाज ने अपनाया था जिस कारण यह समाज बिल्कुल शांतिप्रिय हो गया और हथियार युद्ध त्याग कर वर्षों ऐसा रहने से हथियार, लड़ना सब भूल गया और रेगिस्तान देशों से मुगल आए और इन सनातन संस्कृति के शांतिप्रिय लोगों को लगातार मारते रहे इनके देश पर कब्जा कर लिया इनकी संस्कृति को बदल दिया लेकिन महात्मा बौद्ध का दर्शन इनके दिमाग पर अब तक छाया है इनका मोह भंग नहीं हुआ यह परिणाम विश्व ने शांति को अपनाने का दिया और यह मानवता को मरने के लिए तैयार महात्मा बौद्ध ने किया था।

उस समय अनुसार बुद्ध ने तो सर्वोत्तम ज्ञान दिया है लेकिन वही ज्ञान भारतीय संस्कृति के लिए अभिशाप बन गया है जिस तरह पेट में कई बार अच्छा भोजन भी असमय करने पर विषैला हो जाता है और शरीर को अस्वस्थ कर देता है उसी प्रकार बुद्ध का उच्च दर्शन भी उनके भविष्य में भारतीय संस्कृति व सभ्यता को नष्ट करने का कारण बन गया है।

प्रकृति अपने संचालन बनाए रखने के लिए हर चीज़ का संतुलन चाहती तभी जीवन है और यह संघर्षशीलता में ही जीवन है शिथिलता या तीव्रता, दोनों परिस्थितियों में यह नष्ट होता है और महात्मा बुद्ध भी जीवन को असंतुलित करते हैं।

सत्य ज्ञान केवल श्रीमद्भागवत गीता में ही है कृष्ण भगवान जीवन में संघर्षरत हैं और संघर्षों की शिक्षा देते हैं यही सत्य सनातन संस्कृति का ज्ञान है यही प्रकृति का यथार्थ ज्ञान है।