सरकारी संस्थाओं को सब लोग कुछ मूल्य नहीं देते और प्राईवेट को अपने जिगर निकाल कर दे देते हैं।
एक बच्चे को लेकर उसकी मां सरकारी स्कूल में आई बोली कि यह बच्चा आपके पास पहली में दाखिल करवाया था फिर हम कुछ महीने बाद प्राईवेट स्कूल में ले गए थे। मुझे भी वह वाक्या याद आ गया था आगे बोलती हैं अब हम वापिस आपके पास सरकारी स्कूल में दाखिल करवाना चाहते हैं प्राईवेट की फ़ीस देनी पड़ती है और इसको कुछ पढ़ना भी नहीं आता।
मैंने कहा ठीक है हम दाखिल कर लेंगे हां इसके लिए आपको प्राईवेट स्कूल से सर्टिफिकेट लेकर आना होगा क्योंकि अब सब बच्चे ऑनलाइन हैं उनका एक एसआरएन नंबर है वह बोली ठीक है ।
लेकिन अगले दिन स्कूल आकर बोली कि उनकी कुछ फ़ीस बकाया है आप ऐसे ही कर लीजिए, उनको फिर बताया कि ऐसे नहीं दाखिला हो सकता आपको एसएलसी लेकर आना ही होगा।
फिर अगले दिन प्राईवेट स्कूल गई और वापिस स्कूल आकर बोली कि पहले आप यह बताइए कि मेरे बच्चे को कौन सी कक्षा में दाखिला देंगे?
मैंने कहा वह वहां कौन सी क्लास में है?
बोली उसको छोड़ो, उसकी आयु अनुसार उसको चौथी कक्षा में कर लीजिए।
मैंने उसका आधार से ऑनलाइन चैक किया तो बच्चा दूसरी कक्षा में है
मैने कहा आपने तीन साल से बच्चे को वहां पढ़ाया और यह पता तक नहीं किया कि बच्चा कौन सी क्लास में है?
आपका बच्चा अभी भी दूसरी कक्षा में है वह बोली यह तो ठीक नहीं आप चौथी में दाखिल कर लीजिए।
मैं बोला आप वहां मोटी फीस भी दे रहे हैं और उनसे कोई सवाल नहीं?
और हमसे नियम से भी बाहर जाकर काम करने को कह रहे हैं?
यहां कोई फ़ीस भी नहीं देनी।
फिर भी यहां कंडीशन लगा रहे हैं?
हमारे आम जनमानस की सोच ऐसी बन गई है या बनाई गई है कि वह सरकारी स्कूलों, संस्थाओं को लूटने की सोचते हैं और प्राईवेट को सब कुछ सजा कर परोसते हैं।
यह मानसिक गुलामी से उपजी है इसी कारण देश में लोग काम न करके मुफ़्त खाने की फिराक में लगे रहते हैं हमें इस सोच से बाहर निकलना होगा, अपने परिश्रम से सफलता प्राप्त करनी होगी क्योंकि अच्छे, सुखद परिणाम केवल और केवल परिश्रम से ही मिलते हैं कर्म ही जीवित होने की पहचान
है।
सूबे सिंह सुजान
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