प्रणय-निवेदन करना पुरुष का स्वाभाविक अधिकार है! जब तक कि उसमें
दबाव न हो, भयादोहन न हो, विवशता का लाभ उठाने की भावना न हो, बलात्-चेष्टा न हो। वह अपने नाम के अनुरूप ही एक 'निवेदन' हो!
और उस निवेदन को स्वीकार या अस्वीकार कर देना स्त्री का अधिकार है!
ये दोनों अधिकार एक साथ अपनी गरिमा और चाहना के आवरण में अस्तित्व में रह सकते हैं, इन दोनों ही अधिकारों को उन दोनों से छीना नहीं जा सकता।
अलिखित शर्त यही है कि पुरुष की प्रणय-याचना सुघड़, सुधीर, संयत और इसके बावजूद ऐंद्रिक, काव्योक्त और तीक्ष्ण हो!
प्रणय-निवेदन कितना सुंदर है, स्त्री की कल्पनाओं में यह भी सम्मिलित होता है, रतिकेलि और संसर्ग तो ख़ैर होते ही हैं।
स्त्री कहती है- "मैं जानती हूं तुम क्या चाहते हो। किंतु उसे ऐसे कहकर दिखलाओ कि रीझ जाऊं!"
और तब, अगर पुरुष धीरोदात्त है, नायक है, सुशील है, तो स्त्री के समर्पण को अर्जित करने का यत्न करता है, ठीक वैसे ही, जैसे किसी पुरुष को करना चाहिए।
स्त्री और पुरुष के बीच धधकती हुई कामना की यह चेष्टा इतनी सुंदर है कि यह काव्य रचती है, शिल्प रचती है, संगीत रचती है, सृष्टि की संसृति वैसे ही हुई है, ब्रह्मांड का विस्तार इसी रीति से सम्भव हुआ है।
पुरुष को स्त्री की सम्मति के प्रवेशद्वार पर खड़े होकर प्रतीक्षा करनी होती है, जितनी अनुमति वह देती है, उतना ही उसके भीतर प्रवेश करना होता है। इस नियम का उल्लंघन सम्भव नहीं।
हर वो बलात्-चेष्टा, जो इस मर्यादा को लांघती है, अपराध है। नैतिक अर्थों में ही नहीं, बल्कि सौंदर्यशास्त्रीय अर्थों में भी।
किसी भी रीति का अनधिकार प्रवेश बलात्कार की ही पूर्वपीठिका है।
लौकिक साधनों से अगर स्त्री के हृदय में प्रवेश की कुंजी मिल सकती तो आज हाट में बेभाव बिक रहे होते प्रेम, सघन-कामना, स्फूर्त-रतिचेष्टा और परम-संतोष की आदिम-कंदराएं!
और स्मरण रहे कि प्रणय-निवेदन या यौन-प्रस्ताव पर पुरुष का एकाधिकार नहीं है, स्त्री भी यह निःसंकोच होकर कर सकती है। करती ही है! प्रगाढ़ अनुभवों से कहता हूं!
स्त्री और पुरुष के परस्पर से ही रति-चेष्टाओं और यौन-क्रीड़ाओं का परिसर सुशोभित होता है, बलात्-चेष्टा के किसी प्रसंग से इस परस्पर को कलंकित करना स्वयं के विरुद्ध विद्रोह करना ही कहलाएगा!
Sushobhit
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