शुक्रवार, 9 सितंबर 2011

ताजा गजल

पेड की मोटी  जडें  जैसे  नमी  को  ढूंढती
चल पडी मिलकर मकानों में किसी को ढूंढती
टूटती हैं सारी दीवारें तुम्हारे प्यार में,
और तुम तो रह गई मुझमें कमी को ढूंढती
दायरे में मेरे दिल की आग के जो कैद है,
वो भटकती याद है जो प्रेयसी को ढूंढती
जिंदगी को गुनगुनाना देखिये आसां नहीं,
आ गई कोने में बिल्ली छिपकली को ढूंढती
आसमाँ में धूल का बादल दिखाई देता है,
धूप पागल हो गई अपनी जमीं को ढूंढती
खत्म हो सकती नहीं शायद खुशी की जुस्तजू,
कल मिली थी जिंदगी पागल खुशी को ढूंढती
                                 सूबे सिहं सुजान

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