रविवार, 21 नवंबर 2021

ग़ज़ल- जिन्हें खुद पे विश्वास कुछ भी नहीं है।

 ग़ज़ल 


जिन्हें खुद पे विश्वास कुछ भी नहीं है 

उन्हें रब का अहसास कुछ भी नहीं है ।


समंदर में और मरुस्थल में रहा हूँ 

मेरे सामने प्यास कुछ भी नहीं है ।


कि हम आज जैसे हैं, वैसे ही कल थे 

सिवा इसके इतिहास कुछ भी नहीं है ।


जमाने को इतना समय दे रहा हूँ 

कि खुद के लिए पास कुछ भी नहीं है ।


कि मैंने तो जीवन की दौलत लुटा दी 

मगर उनको अहसास कुछ भी नहीं है ।


सूबे सिंह "सुजान"

ग़ज़ल-अपशब्दों का विरोध करो

 अपशब्दों का विरोध करो,तुम डरो नहीं,

ताक़त का अपनी,बोध करो,तुम डरो नहीं।


ख़ामोशी भी कभी-कभी ताक़त दिखाती है,

आवाज़ों पर भी शोध करो,तुम डरो नहीं।


आओ पदाधिकारी समस्याएं हल करें,

हम साथ साथ, शोध करो, तुम डरो नहीं।


ऊंचे पदों के नाम से अहंकार से भरे,

अहंकारियों पे क्रोध करो, तुम डरो नहीं।

मंगलवार, 24 अगस्त 2021

अनादर (लघुकथा)

 बेबाक साहब अच्छे शायर थे उनके साथ एक सुनाम नाम के युवा शायर उनको उनके बुढ़ापे में मुशायरे में ले जाने व आने में मदद करते थे जबकि उनके दो बेटे, दोनों अच्छी नौकरी, परिवार में व्यस्त थे। और वह खुद रिटायर्ड प्रधानाचार्य थे।

सुनाम उनके एक फ़ोन पर उनके साथ खड़ा रहता था, उनके गुजरने के पश्चात् सुनाम ने उनकी शायरी, जीवन व उनके कार्यों पर एक आलेख फेसबुक पर लिखा,जिसको उनके बेटे अंजुम ने पढ़ा और सुनाम के आलेख पर आपत्ति दर्ज करते हुए कहा कि मेरे पिता जी का नाम सम्मान के साथ नहीं लिखा?

सुनाम ने "बेबाक साहब" लिख दिया था। जो उन्हें नागवार गुजरा,इस बात पर अंजुम जी ने बहुत झगड़ा किया और सुनाम साहब को बहुत बार मुआफी मांगनी पड़ी।

बुधवार, 23 जून 2021

मां का मरना और सड़क का बनना

 मां 14 जून 2021 को दोपहर 2 बजे अंतिम सांस लेकर दुनिया से विदा हो गई।

मां के जाने पर जो दुःख सबको होता है वह मुझे भी है लेकिन एक दुःख और है जो जाने अनजाने मेरे मन में बैठा है। वह दुःख है मेरे घर को दुनिया से जोड़ने वाली सड़क का पूरा न बनना, 


मुझे दुःख है कि मां के मरने से पहले मेरे घर तक पक्की सड़क न बन सकी!!!!!


मां  मरने का इंतज़ार कर रही थी और सड़क बनने का इंतजार कर रही थी।

मैं सोचता था कि मां के मरने से पहले सड़क पक्की बन जाए तो , 

मातम में जो लोग शहर से मेरे पास आएंगे,उनको कोई दिक्कत न हो,

कच्चे रास्ते का उनको अनुभव नहीं है वो बेचारे परेशान होंगे।


सड़क बनने का टैंडर मार्च 2019 में छूट चुका था और मैं सोचता रहता था कि सड़क बने तो ही मां मरना,तब तक मत मरना और मां से यह कहता तो मां कहती मैं तो परमात्मा से प्रार्थना करती हूं तुम्हारी सड़क कल बन जाए और मैं मरूं, बहुत दुःखी हूं। मुझे उठा ले परमात्मा, लेकिन मां को  दो साल तीन महीने और जिंदा रखने के लिए सड़क निर्माण विभाग,पंच, सरपंच, ज़िला परिषद,व सरकार का बहुत बहुत धन्यवाद।


सड़क जितना लेट होगी मां उतना और जीती रहेगी।

लेकिन आखिरकार मां हार गई और सड़क निर्माण विभाग व सभी सरकारी नुमाइंदे जीत गए।


मेरी अजीबोगरीब इच्छा अभी हाल फिलहाल पूरी नहीं हुई है लेकिन इस इच्छा पर पत्थर पड़ चुके हैं और जल्द पूरी होने की आस है।

वैसे पत्थर पिछले दो साल से पड़े हैं

लेकिन शायद इन पत्थरों का वज़न कुछ कम था जो मां चल बसी।


अधूरे रास्तों की अपनी इच्छाएं होती हैं और मां की अलग इच्छा,कि मुझे जल्द मरना है और मेरी अलग इच्छा कि मां के मरने से पहले सड़क पक्की हो जाए।


मेरी ही अजीबोगरीब इच्छा नहीं थी,

लोगों की भी अजीबोगरीब इच्छा थी,

साधारणतया लोग सड़क जल्द बनने की इच्छा रखते हैं लेकिन यहां मामला उल्ट था ज्यादा लोग सड़क के न बनने पर खुश थे वे चाहते थे कि यह सड़क न बने।


मां के मरने के बाद बहुत लोग घर पर शोक व्यक्त करने आए, लेकिन एक बात कमाल रही, करोना नहीं आया, वह जा चुका था, करोना मां के लिए रास्ते साफ़ कर रहा था वह बहुत शांत हो गया था, उसकी शांति सबको चैन दे रही थी।


कुछ लोग हमेशा काम करते रहते हैं वे शोक व्यक्त करने नहीं आ सके, शायद उनके काम ही उनकी इस राह में रोड़ा बने होंगे, क्योंकि आते किस मुंह से ग़ालिब....?

लेकिन एक नया रिसर्च उन्होंने इस बीच कर दिया कि मातम पर बैठे हुए भी मुझे ज़िला कार्यालय में बुलाकर।


अब मैं सड़क से सवाल किया करूंगा कि तू मेरी मां के मरने के बहुत बाद आयी है? शोक व्यक्त करने भी नहीं आ सकी,यह उलाहना तुझ पर उम्र भर रहेगा।


सूबे सिंह सुजान,

 कुरूक्षेत्र, 

 हरियाणा

सोमवार, 31 मई 2021

ग़ज़ल , मैं अगर ख़ुश हूं

 मैं अगर खुश हूँ, मुझे बधाई मत दो,

क़ैद में रखना खुशी की,और रिहाई मत दो।


मैंने जो काम किया,मान लो, मैंने न किया,

सब तुम्हारे लिए है, मुझको भलाई मत दो।


झूठ की नींव खड़ी, चार दिनों तक होगी,

खूब कोशिश करो, कोशिश में ढिलाई मत दो।


अपना हिस्सा भी, जब तुम्हारे लिए छोड़ दिया,

अपने हिस्से की मुझे, तुम तो कमाई मत दो।


ज़िन्दगी चखने में, मीठी हो,तो कड़वी भी,

नीम का रस पिला दो,दूध मलाई मत दो।

तुम मेरे प्यार का संदूक,संभाले रखना,

हाँ,विधाई दो,मगर दिल से विधाई मत दो।


अपना हिस्सा भी, तुम्हारे लिए,जब छोड़ दिया,

अपने हिस्से की मुझे, तुम तो कमाई मत दो।


SUBE SINGH SUJAN

ग़ज़ल मेरे दुःख का पहाड़ अच्छा है।

 मेरे दुःख का पहाड़ अच्छा है

सैर कर करके सबने देखा है।


खूबसूरत सभी को लगता है,

दर्द का देवदार लम्बा है।


रोशनी देने के लिए सबको,

दर्दे सूरज हर रोज़ जलता है।


इसलिए उससे मिलने जाता हूँ,

वो मुझे अपना दोस्त कहता है।


दिल के टुकड़े हज़ार करके भी,

मेरा दिल सबके काम आता है।


लोग मायूस बैठे रहते हैं,

फूल हर रोज़ फिर भी खिलता है।


सारी माँओं की माँ ये मिट्टी है,

सारा आकाश ऐसा कहता है।


सूबे सिंह सुजान

कविताओं के ऊपर शक्लें, सूरतें बैठी हैं।

 कविताओं के ऊपर सूरतें बैठी हैं।


शक्लों,सूरतों ने,

कविताओं की जगह पर कब्ज़ा किया गया है।

कविताओं को घुटनों के नीचे दबाकर, घोटने की कोशिश की जा रही है।

कविताओं के ऊपर शक्लें,सूरतें बैठी हैं, ये शक्लें भावनाओं को मांसल बनाने में लगी हैं।


ये सूरतें आतंकियों की तरह, घुसपैठ कर रही हैं और इनको पहले पहल पहचानना मुश्किल होता है,हम बहुत बार इनके धोखे का शिकार होते हैं।


कविताओं के चेहरों को अजीबोगरीब मास्क पहरा दिए हैं,मास्क में कीटाणु छोड़ दिए हैं, उनको जबरदस्ती बीमार बताया जा रहा है, उनको नक़ली दवा, इंजेक्शन, मनमर्ज़ी की कीमतों पर बेचे गए, उनसे उनकी ऑक्सीजन छीन कर, ऑक्सीजन के सिलेंडर दे दिए गए हैं, उनकी रिपोर्ट करोना पॉजिटिव बता कर, उनको लूट कर, फिर उनको मार कर,उनके हृदय,आँखें और अन्य चीजों को निकाल कर बेचा जा रहा है।इस महामारी में कविताओं के जीवन पर संकट है। यह पहचानना मुश्किल हो रहा है कि कौन कविता को बचा रहा है और कौन मार रहा है? जबकि सब कविताओं को बचाने के हितैषी बता रहे हैं लेकिन कविताएं फिर भी मर रही हैं कविताओं के जीवन रक्षक के लिए कुछ कवियों ने वैक्सीन बनायी तो कुछ कवियों ने उन्हें नक़ली और दूसरे दलों की बता कर न लगवाने की अफवाहों को फैलाया और कविताएं निर्णय नहीं ले सकी और मरती रही। 


कविताओं को लाखों लोग प्यार करते हैं और लाखों लोग उनसे घृणा करते हैं कविताएं सबसे प्यार करती हैं और बहुत बार धोखे का शिकार होती हैं कविताएं प्यार व घृणा दोनों को स्वीकार कर लेती हैं वे हर कण कण में समाहित हो जाती हैं और हर कण कण उनको अपनी आत्मा कहता है। लेकिन हर कण जरूरी नहीं कि उनको अपने अंदर होते हुए भी पहचान ले।

गुरुवार, 20 मई 2021

हर जगह परदे ही परदे हैं।

 हर जगह परदे हैं और यह परदे बेहद आकर्षक, और जरूरी हैं 

फिल्म भी परदे पर ही चलती है यह परदे ही फिल्मों की कहानियों में भी होते हैं वह फिल्में ज्यादा अच्छी लगती हैं जिनके परदे ज्यादा गहरे होते हैं जिनकी कहानियों में कुछ दिखाने की अपेक्षा कुछ छिपाया ज्यादा जाता है।

छिपाना ही आकर्षक है, छिपाना ही उत्साहित करता है।


यह जीवन एक परदा है।

जीवन में हर काम भी एक परदा है और हर काम परदे में आनंद देता है। आम के पेड़ पर फल आने से पहले उसके,पत्ते,भौर, खुश्बू,सब अच्छे परदे हैं,जो आम के आने को आकर्षित करते हैं, उसकी महत्ता को प्रदर्शित करते हैं, हमें उत्साहित करते हैं, आम खाने का सुख तभी मिलता है जब आम के आने से पहले उसकी भूमिका में बहुत कुछ भिन्न भिन्न परदों को धीरे धीरे उठाया जाता है।

दुनिया की पहली पुस्तकें वेदों में जो भी वर्णित है वह छह,सात हजार सालों पहले कहा गया है लेकिन आज भी लोग उसे पूरा नहीं समझ पाते हैं और सबके समझने के अलग अलग स्तर हैं अलग अलग अर्थ समझते हैं लेकिन पूर्ण कोई समझ नहीं पाया और शायद यह पूर्ण हो भी नहीं पाएगा। वेदों को पूरा न समझ पाने में ही उनकी गहराई है, उनकी विशेषता है, उनकी सार्थकता है, क्योंकि यह परदा ही हमें उनमें रूचि पैदा करता है। 

 हमारी समझ पर भी परदे ही परदे हैं हमारी समझ को ढका गया है,इस पर परदे लटका रखे हैं, हम यह परदे खोलते रहते हैं और यह परदे हटाना ही समझ है, बुद्धिमत्ता को प्रदर्शित करता है,जीवन भर हम अपनी समझ से परदे हटाते रहते हैं और आगे बढ़ते रहते हैं।

प्रेम में जब तक परदा है, तब तक आकर्षण है, आनंद है, आप जिसे पसंद करते हैं हर रोज़ उसको देखने में, मिलने में, इंतजार करने में,वो क्या सोचते होंगे, ऐसे कहना चाहिए, नहीं वैसे कहना है,यह कपड़े ठीक हैं,उसको सोच सोचकर तैयार होना, रास्ता तय करना,यह सब आनंदित करता है लेकिन य़दि दो शब्द बोलकर बात पूरी कर दी तो परदा गायब और फिर वह सारा आनंद छू मंतर, उसके बाद पुरानी बातों को याद करके ही आनंद लिया जा सकता है।


इस तरह यह परदे हमें जीवन जीने को प्रेरित करते हैं और हमें कभी जीवन से निराश नहीं होने देते, अगर यह परदे न होते तो जीवन निराशा भरा होता और बहुत जल्द अपनी सार्थकता को समाप्त कर लेता,यह परदे ही जीवन को सार्थक बनाते हैं।


जो दृश्य पहली बार देखा जाता है वह बेहद खूबसूरत व आकृषक होता है,वह दृश्य फिर हमें और आगे देखने को प्रेरित करता है,वह हमें लालायित करता है कुछ और देखने को, कुछ और करने को, कुछ और सोचने को।

हम जीवन भर परदों को खोलते रहते हैं यही जीवन है,इसी में आनंद है।

दृश्यों को ऊपरी सतह से देखना व दृश्यों के अंदर जाकर देखना,दो अलग अलग आयाम होते हैं, दृश्य को समझने के लिए उसके पार देखना जरूरी है, उसके भीतर से समझ को गुजारना होता है। किसी भी नये यंत्र को बनाने से लेकर, भिन्न सोचने, डॉक्टरी इलाज करने, आसमान में चांद या मंगल तक पहुंचने में हमें समझ को गुजारना होता है। समझ के ताले खोलने जैसा ही है।


कहने का अर्थ है कि परदों से जीवन का आनंद है, व्यापकता है, सुंदरता है।


सूबे सिंह सुजान, कुरूक्षेत्र, हरियाणा।


मंगलवार, 4 मई 2021

नज़्म- बेटे की चाह

 NAZAM----------BETE KI CHAH.......


वो लडकियों से नफ़रत तो नहीं करते


लेकिन बेटे से प्यार तो करते हैं


वो ऐसे माँ-बाप हैं, जो


अपनी शादी के लिये 


तो सुन्दर लडकी की तलाश में निकलते हैं


लेकिन अपने घर में लडकी नहीं देख सकते


बेटे की चाह में वे….


तांत्रिकों तक जा पहुंचते हैं


और अपनी बुद्दि को ठेके पर दे देते हैं


और फिर शुरू करते हैं 


दूसरों के बेटों का क़त्लेआम


और फिर भी बेटा नहीं पाते


लेकिन जब कोई दिखने में बेवकूफ


और वास्तव में सही तांत्रिक मिलता है


जो उनकी रग को पहचान कर


करता है डाक्टरी इलाज……..,…………


और उस पुरूष को पहचान कर 


उसकी स्त्री से करता है सम्बन्ध


और कर देता है उसे गर्भवती


मिलता है उनको पुत्ररत्न


वे खुश हो जाते हैं


तांत्रिक की विधा पर


न्योछवर करते हैं और भी बहुत कुछ


लेकिन वो स्त्री जानती है 


कि कैसे प्राप्त हुआ है पुत्र


और पहचानती है पुरूष की मानसिकता को


नहीं बोलती कभी भी बडा सच


कैसा उबड-खाबड और समुद्र सा है 


उसका सीना…..


कौन जाने क्या –क्या होता है


उसके सीने के पार भी…………….

रविवार, 2 मई 2021

हिन्दी भाषा के साथ भेदभाव क्यों? न्यायालय ही न्याय नहीं करेंगे तो कौन न्याय करेगा?

हिन्दी भाषा के साथ भेदभाव क्यों? न्यायालय ही न्याय नहीं करेंगे तो कौन न्याय करेगा?

। मातृ भाषा दिवस मनाने के आदेश विदेशी भाषा में क्यों? 1995 में जब मैं दसवीं कक्षा में पढ़ रहा था तो नेहरू युवा केंद्र की सांस्कृतिक गतिविधियों में भाग लेता था तो एक बार मुझे हिन्दी दिवस मनाने का पत्र आया जो कि अंग्रेजी में था मैंने उसके प्रत्युतर में लिखा कि आप हमें हिन्दी प्रयोग को प्रोत्साहित करते हैं और पत्र अंग्रेजी में लिखते हैं ? क्या यह उचित है उन्होंने मुझे बुलाया और आधिकारिक रोब में खूब डराया और युवा केंद्र से बहिष्कार कर दिया । यह वास्तविकता है हमारे देश के अधिकारियों की , यह अंग्रेजी शिक्षा की देन है इससे हमें पता चलता है कि कोई विचारधारा किसी संस्कृति का कितना नुकसान करती है और उसका आमूल चूल परिवर्तन कर देती है जैसे हम परिवार में बच्चों की रक्षा करते हैं हमें अपनी संस्कृति की भी ऐसे ही रक्षा करनी चाहिए । लेकिन हमारे देश के नेतृत्व करने वाले इस विचार को समझने में असमर्थ हैं यह मूल अधिकारों का हनन है जब विदेशी लोग अपनी संस्कृति,सोच का अधिक से अधिक प्रचार प्रसार कर सकते हैं तो हमें अपने मूल स्वतंत्र विचारों का प्रयोग करने में ग्लानि क्यों?और शासन व प्रशासन को आपत्ति क्यों? आप जिस जनता को कोई आदेश दे रहे हैं जिन लोगों के लिए पत्र जारी कर रहे हैं वे जिस भाषा को समझते हैं ।आप उसमें आदेश न देकर उस जनता,उन लोगों को जानबूझकर शिक्षित नहीं करना चाहते । 👉 👉सरकार व अधिकारियों से भयंकर तो न्यायालय के आदेश हैं जो आम नागरिक को जो शिक्षित नहीं है उसे उसकी भाषा में न बात कहने का हक देता है न ही कभी कोई भी पत्र,आदेश कभी उसकी भाषा में लिखता है ? अर्थात न्यायालय ही आम नागरिक के अधिकारों का हनन करता आया है । ✍🏻🙏✍🏻 हरियाणा सरकार, भारत सरकार से मेरा निवेदन है कि जो नागरिक जिस क्षेत्र, जिस भाषा को समझता है न्यायालय के सभी आदेश,सरकारी विभागों के आदेश उसकी भाषा में ही उस तक पहुंचने चाहिए । निवेदक :- सूबे सिंह सुजान शिक्षक व कवि

शुक्रवार, 12 मार्च 2021

सच झूठ के ऊपर टिका है

 सारे सच , झूठ के ऊपर टिके हुए हैं।

अगर मैं सच के नीचे से,

झूठ को निकाल दूं,

तो सच गिर कर टूट जाएगा।

गुस्से में लिखी गई कविताएं

 गुस्से में लिखी गई कविताएं

अपनी नाराज़गी ज़ाहिर तो करती हैं लेकिन यह कोई जरूरी नहीं है कि वह झूठ हो और यह भी कोई जरुरी नहीं कि उसमें सब सत्य ही हो।

अगर कवि अपनी प्रेमिका की बेवफ़ाई पर गुस्से में कविता लिख गया है तो इसका यह मतलब नहीं है कि वह बिल्कुल सही लिख गया है हां वह केवल अपने भाव सही लिख गया है

उसकी प्रेमिका यदि उसको समझ नहीं पायी या उससे प्रेम नहीं कर पायी तो उसमें प्रेमिका का दोष भी नहीं है बल्कि प्रेमिका ने तो कवि से नई रचना करवा दी है कईं कविताओं को जन्म दिलवाया है

जैसे प्रेमिका अपने आप में पुरूषत्व का अभिनय कर रही है और कवि स्त्रीत्व का निर्वहन कर रहा है एक नई रचना के लिए।

गुस्से में लिखी बहुत कविताओं पर कवि को समय गुजरने के पश्चात, पश्चाताप भी हो सकता है लेकिन रचना हो चुकी है।

जीवन में बहुत कुछ हम चाहते हुए भी नहीं कर पाते हैं और इसका ही हम अफ़सोस करते हुए दुःखी होते रहते हैं

मनुष्य ने चाहे तकनीकी तरक्की बहुत कर ली है लेकिन आज भी मनुष्य मन दुःखी होने के कारण व स्थान वही हैं दुःखी होने के भौतिक साधन जरूर बदले हैं लेकिन हृदय वही है, भावनाएं वही हैं ।

बहुत ज्यादा इतिहास बदले की भावना से लिखा जाता रहा है और बहुत इतिहास राजाओं, सरकारों द्वारा लिखवाया जाता रहा है इसी प्रकार बहुत साहित्य भी इसी भावना के आधार पर लिखा जाता है इसके इतर बहुत कवि, लेखक अपनी मन स्थितियों के वशीभूत भी होते हैं वह इनसे अलग सोच नहीं पाते,

और वर्तमान समय में कुछ साहित्यकार सुख,साधनों के वशीभूत ही अपनी सोच, विचारों को निर्मित कर लेते हैं और उनको केवल वही सच लगता है और यदि उससे अलग व्यवस्था बनने लगे तो वह आहत हो जाते हैं और पुरस्कार लौटने लगते हैं या मात्र नाटक करने लगते हैं क्योंकि वह साधनों के वशीभूत हो जाते हैं यदि ऐसा होता है तो ऐसे लेखकों से ज्यादा अच्छा तो सामान्य नागरिक है जो अपनी भावनाओं को मजबूत रखता है और ज़रा सी बात या बदलाव पर आहत नहीं होता, और बदलाव तो प्रकृति का पहला नियम है जिसे सब पसंद भी करते हैं और नापसंद भी करते हैं

पसंद तो इसलिए करते हैं कि हम हर एक जगह लगातार बैठ नहीं पाते,एक तरह का खाना लगातार नहीं खा सकते, एक तरह के मौसम में नहीं रहना चाहते, जिसका अर्थ है हम बदलाव चाहते हैं और नापसंद इस तरह करते हैं जब कोई बदलाव शुरू होता है या कोई व्यवस्था बदलने लगता है तो हम आहत हो जाते हैं, आक्रोशित हो जाते हैं सर्दी आने पर, सर्दी से छुटकारा चाहते हैं और गर्मी आने पर गर्मी से छुटकारा चाहते हैं

जब तक प्रेम नहीं होता तो प्रेम पाने की चाहत, प्रेम मिला तो उससे दूर जाने की इच्छा।

इसलिए ऋषियों-मुनियों ने कहा है मानव मन चंचल है प्रकृति का स्वभाव ही चंचल, परिवर्तनशील है इस स्वभाव को संतुलित करने का नाम ही योग है

योग ही वह साधना है जो किसी एक बिंदु पर आपको संयमित, नियमित, नियंत्रित करके,इस परिवर्तनशील प्रकृति से परे अध्यात्मिक, आत्मविकास की प्रक्रिया के दर्शन करवाता है।

योग साधना किसी एक विचार पर नियंत्रण करना है।

आदि योगी शिव, महात्मा बुद्ध ने यही योग साधना करके ज्ञान प्राप्त किया था और समाज को ज्ञान की दिशा दी है।

शुक्रवार, 8 जनवरी 2021

राजनीति

 #राजनीति जिस पद के लिए कोई व्यक्ति नामित नहीं है वह मना कर रहा है वह न कभी उस पद के लिए कैंडिडेट था और न है और फिर भी उसके नाम को उछाल कर, उस पर झूठे आरोप लगा कर,कोई अपने लिए वोट मांगते हैं तो क्या कारण हो सकते हैं?

1 कहीं न कहीं उस व्यक्ति से उनको डर है?


2 उनके पास अपना कोई काम नहीं है जिससे वे कह सकें हमने यह किया है या वह किया है?


3 उनके अपने कोई गुण नहीं हैं, उनके अपने किए कोई काम नहीं हैं, या वे चरित्रहीन हैं, उनके पास कोई ऐजेंडा नहीं है?

 

4  जब कोई व्यक्ति कैंडिडेट ही नहीं तो उससे तुलना किस आधार पर?

लेकिन मजेदार बात यह है जो ऐसे व्यक्ति पर आरोप लगा रहे हैं वह कभी कोई तुलना में काम किए ही नहीं?


इस प्रकरण में उन लोगों या वोटरों पर सारी जिम्मेदारी आ जाती है जो निर्णायक हैं वो क्या सोचते हैं? क्या करते हैं? क्या वो ऐसे व्यक्तियों को चुनेंगे जिनका कोई अनुभव नहीं है? जिनका कोई चरित्र नहीं है? जिन्होंने पूरे काम करने के समय में कभी कोई न काम किया न साथ दिया और चुनाव के समय पद मांगने के लिए दौड़े और हर वोटर को अलग अलग जाति, विचारों के टीके लगाने लगे हैं? यदि वह लोग कोई काम करते और स्वयं को उदाहरण के रूप में पेश करते तो बात समझ में आती और सोचने पर मजबूरी होती लेकिन यह केवल चुनाव के समय सामने आते हैं और अपने हित साधने में लग जाते हैं?


ध्यान देने योग्य बात यह है कि जो लोग चयन करेंगे,जो वोटर हैं वह ऐसी हालात में क्या निर्णय लेंगे? और जब वह वोटर समाज को दिशा देने वाला पढ़ा लिखा वर्ग है तो और भी सोचनीय हो जाता है?


इस सब के बावजूद भी यहां ऐसा भी हो सकता है कि लोग ऐसे व्यक्तियों को चुन लें क्योंकि ऐसा भी कईं बार होता आया है। लेकिन हर बार नहीं होता। 

यदि लोग जागरूक हों, चिंतन मनन करने वाले हों, सबका या समूह का , देश का भला सोच सकते हों तो ऐसा नहीं हो सकता है।