ग़ज़ल
जिन्हें खुद पे विश्वास कुछ भी नहीं है
उन्हें रब का अहसास कुछ भी नहीं है ।
समंदर में और मरुस्थल में रहा हूँ
मेरे सामने प्यास कुछ भी नहीं है ।
कि हम आज जैसे हैं, वैसे ही कल थे
सिवा इसके इतिहास कुछ भी नहीं है ।
जमाने को इतना समय दे रहा हूँ
कि खुद के लिए पास कुछ भी नहीं है ।
कि मैंने तो जीवन की दौलत लुटा दी
मगर उनको अहसास कुछ भी नहीं है ।
सूबे सिंह "सुजान"
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