डा. नामवर सिंह नहीं रहे।
1999 में पाश पुस्तकालय करनाल में मुझे भी उनसे बातचीत करके,साहित्यिक परिचर्चा करके बहुत सीखने,समझने का अवसर मिला था ।
डा. नामवर सिंह हमारे बीच नहीं रहे । हिंदी साहित्य के सूक्ष्मदर्शी, पहले आधुनिक प्रगतिशील आलोचक नहीं रहे ।
पिछले एक अर्से से उनकी अस्वस्थता की खबरें लगातार आया करती थी । कल रात 11.50 पर उन्होंने दिल्ली में अंतिम साँस ली ।
नामवर सिंह की उपस्थिति ही हिंदी आलोचना की चमक का जो उल्लसित अहसास देती थी, अब वह लौ भी बुझ गई ।
नामवर जी के कामों ने हिंदी आलोचना को कुछ ऐसे नये आयाम प्रदान किये थे, जिनसे परंपरा की बेड़ियों से मुक्त होकर आलोचना को नये पर मिले थे । पिछली सदी में ‘80 के दशक तक के अपने लेखन में आलोचना के सत्य को उन्होंने उसकी पुरातनपंथ की गहरी नींद में पड़ रही खलल के वक्त की दरारों में से निकाल कर प्रकाशित किया था । उन्होंने ही हिंदी के कथा साहित्य को कविता के निकष पर कस कर किसी भी साहित्यिक पाठ की काव्यात्मक अपरिहार्यता से हिंदी जगत को परिचित कराया था ।
हिंदी साहित्य जगत की आलोचना के इस गहरे सत्य से मुठभेड़ कराने के लिये ही उन्हें हिंदी साहित्य के इतिहास में सदा याद किया जायेगा ।
उनकी वाग्मिता के जादूई असर से वे साहित्य रसिक कभी मुक्त नहीं होंगे जिन्हें उनको कभी भी सुनने का अवसर मिला था । परवर्ती दिनों में उनके कई महत्वपूर्ण भाषणों और साक्षात्कारों के संकलन प्रकाशित हुए हैं जो उनके समग्र बौद्धिक व्यक्तित्व के विस्तार की तस्वीर पेश करते हैं ।
पिछले कुछ सालों से उनकी रचनात्मक गतिविधियां कम हो गई थी और वे एक प्रकार से मैदान से हट चुके थे । लेकिन उनकी दीर्घकालीन उपस्थिति और उनके क्रमश: मौन से पैदा हुए सन्नाटे के बाद आज उनके न रहने से लगता है जैसे हिंदी जगत की आश्वस्ति का एक बड़ा स्तंभ ढह गया है । अपेक्षाओं, प्रशंसा, शिकवा, शिकायतों की जैसे अब कोई ड्योढ़ी ही नहीं बची है ।
नामवर जी की तमाम स्मृतियों के प्रति अश्रुपूर्ण आंतरिक श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए हम उन्हें विदा करते हैं । यह हिंदी साहित्य के जगत के लिये एक गहरे शोक की घड़ी है । हम उनके तमाम परिजनों के प्रति अपनी भावपूर्ण संवेदनाएं प्रेषित करते हैं ।
नामवर सिंह अमर रहे !
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