रूस के पत्र।
भाग 3।
अध्याय 7 से 9।लेखक रविंद्र नाथ टैगोर
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ब्रेमेन स्टीमर (अटलांटिक)
रूस से लौट कर आज फिर जा रहा हूँ अमेरिका के घाट पर। किंतु रूस की स्मृति आज भी मेरे संपूर्ण मन पर अधिकार किए हुए है। इसका प्रधान कारण यह है कि और-और जिन देशों में घूमा हूँ, वहाँ के समाज ने समग्र रूप से मेरे मन को हिलाया नहीं। उनमें अनेक कार्यों का उद्यम है, पर अपनी-अपनी सीमा के भीतर। कहीं पॉलिटेकनीक्स है तो कहीं अस्पताल, कहीं विश्वविद्यालय है तो कहीं म्यूजियम। विशेषज्ञ अपने-अपने क्षेत्र में ही मशगूल हैं, मगर यहाँ सारा देश एक ही अभिप्राय को ले कर समस्त कार्य-विभागों को एक ही स्नायुजाल में बाँध कर एक विराट रूप धारण किए हुए है। सब-कुछ एक अखंड तपस्या में आ कर मिल गया है।
जिन देशों में अर्थ और शक्ति का अध्यवसाय व्यक्तिगत स्वार्थों में बँटा हुआ है, वहाँ इस तरह की गहरी हार्दिक एकता असंभव है। जब यहाँ पंचवर्ष-व्यापी यूरोपीय महायुद्ध चल रहा था, तब झख मार कर इन देशों की भावनाएँ और कार्य एक अभिप्राय से मिल कर एक हृदय के अधिकार में आए थे, पर वह था अस्थायी। किंतु सोवियत रूस में जो कार्य हो रहा है, उसकी प्रकृति ही अलग है -- ये तो सर्वसाधारण का काम, सर्वसाधारण का हृदय और सर्वसाधारण का स्वत्व नाम की एक असाधारण सत्ता कायम करने में लगे हुए हैं।
उपनिषद की एक बात मैंने यहाँ आ कर बिलकुल स्पष्ट समझी है -- 'मा गृधः' -- लोभ न करो। क्यों लोभ न करें? इसलिए कि सब कुछ एक सत्य के द्वारा परिव्याप्त है और व्यक्तिगत लोभ उस एक की उपलब्धि में बाधा पहुँचाता है। 'तेन त्यक्तेन भुंजीथा' -- उस एक से जो आता है, उसी का भोग करो। आर्थिक दृष्टिकोण से ये यही बात कहते हैं। समस्त मानव साधारण में ये एक अद्वितीय मानव सत्य को बड़ा मानते हैं। उस एक के योग से उत्पन्न जो कुछ है, ये कहते हैं कि उसका सब कोई मिल कर भोग करो - 'मा गृधः कस्य स्वद्धन' - किसी के धन पर लोभ मत करो। किंतु धन का व्यक्तिगत विभाग होने से धन का लोभ स्वभावतः होता ही है। उसका लोप करके ये कहना चाहते हैं-'तेन त्यक्तेन भुंजीथा'।
यूरोप में अन्य सभी देशों की साधना व्यक्ति के लाभ और व्यक्ति के भोग के लिए है। इसी से मंथन और आलोड़न इतना प्रचंड है, और पौराणिक समुद्र मंथन की तरह उसमें से विष और सुधा, दोनों निकल रहे हैं।
पर सुधा का हिस्सा सिर्फ एक दल को मिलता है और अधिकांश को नहीं मिलता, इसी से दुख और अशांति हद से ज्यादा बढ़ रही है। सभी ने मान लिया था कि यही अनिवार्य है। कहा था, मानव प्रकृति के अंदर ही लोभ है और लोभ का काम है भोग में असमान भाग करना। अतएव प्रतियोगिता चलेगी ही, और लड़ाई के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए। परंतु सोवियत लोग जो कहना चाहते हैं, वह यह है कि मनुष्य में ऐक्य ही सत्य है, भोग तो माया है, सम्यक विचार और सम्यक चेष्टा से जिस क्षण में माया को मानेंगे, उसी क्षण वह स्वप्न की तरह लुप्त हो जाएगी।
रूस की वह न मानने की चेष्टा सारे देश में विराट रूप में अपना काम कर रही है। सब कुछ इसी एक चेष्टा में आ कर मिल गया है। यही कारण है कि रूस में आ कर एक विराट हृदय का स्पर्श मिला। शिक्षा का विराट पर्व और किसी भी देश में ऐसा नहीं देखा। इसका कारण यह है कि अन्य देशों में जो शिक्षा प्राप्त करता है, वही उसका फल पाता है -- 'पढ़ोगे-लिखोगे होगे नवाब'। यहाँ प्रत्येक की शिक्षा में सबकी शिक्षा शामिल है। एक आदमी में जो शिक्षा का अभाव होगा, वह सबको अखरेगा, क्योंकि ये सम्मिलित शिक्षा के योग से सम्मिलित मन को विश्वसाधारण के काम में लगाना चाहते हैं। ये 'विश्वकर्मा' हैं, इसलिए इन्हें विश्वमना बनना है। अतएव इन्हीं के लिए यथार्थ में विश्वविद्यालय हो सकता है।
शिक्षा को वे नाना प्रणालियों से सर्वत्र सबों में फैला रहे हैं। उन प्रणालियों में एक है म्यूजियम। नाना प्रकार के म्यूजियम-जालों से इन लोगों ने गाँवों और शहरों को पाट दिया है। ये म्यूजियम हमारे शांति निकेतन की लाइब्रेरी की तरह निष्क्रिय नहीं, क्रियात्मक हैं।
रूस की रीजनल स्टडी अर्थात स्थानिक तथ्यानुसंधान का उद्योग सर्वत्र व्याप्त है। इस तरह के शिक्षा केंद्र लगभग दो हजार होंगे, जिनकी सदस्य संख्या 70,000 से भी आगे बढ़ गई है। इन सब केंद्रों में उन-उन स्थानों के इतिहास और वर्तमान की आर्थिक अवस्था की खोज की जाती है। इसके सिवा उन सब स्थानों की उत्पादिका शक्ति किस श्रेणी की है और वहाँ कोई खनिज पदार्थ छिपा हुआ है या नहीं, इस विषय की खोज की जाती है। इन सब केंद्रों के पास जो म्यूजियम हैं, उन्हीं के जरिए सर्वसाधारण में शिक्षा प्रचार का कार्य होता है, और यह बड़ा भारी काम है। सोवियत राष्ट्र में सर्वसाधारण की ज्ञानोन्नति का जो नवयुग आया है, स्थानिक तथ्यानुसंधान की व्यापक चर्चा और उससे संबंध रखनेवाली म्यूजियमें उसकी एक मुख्य प्रणाली है।
इस तरह का निकटवर्ती स्थानों का तथ्यानुसंधान शांति निकेतन में कालीमोहन ने कुछ-कुछ किया है, पर उस कार्य में हमारे छात्रों और शिक्षकों के शामिल न होने से उससे कोई उपकार नहीं हुआ। अनुसंधान के फल पाने की अपेक्षा अनुसंधान करने का मन तैयार करना कुछ कम बात नहीं है। मैंने सुना था कि कॉलेज विभाग के इकॉनॉमिक क्लास के विद्यार्थियों के साथ प्रभात ने इस प्रकार की चर्चा की नींव डाली है, परंतु यह काम और भी अधिक साधारण रूप से होना चाहिए, पाठ भवन के लड़कों को भी इस कार्य में दीक्षित करना होगा। साथ ही समस्त प्रादेशिक सामग्री का म्यूजियम स्थापित करने की भी आवश्यकता है।
यहाँ तसवीरों की म्यूजियम का काम कैसे चलाया जाता है, इसका विवरण सुनने से अवश्य ही तुम्हें संतोष होगा। मॉस्को शहर में ट्रेटियाकोव गैलरी नामक एक प्रसिद्ध चित्र भंडार है। वहाँ 1928 से 1929 तक एक वर्ष के अंदर लगभग तीन लाख आदमी चित्र देखने आए हैं। इतने दर्शक आना चाहते हैं कि उनके लिए स्थान देना कठिन हो रहा है, इसलिए दर्शकों को पहले ही से छुट्टी के दिन अपना नाम रजिस्टर में लिखा देना पड़ता है।
सन 1917 में सोवियत शासन चालू होने से पहले जो दर्शक उस तरह की गैलरी में आते थे, वे थे धनी-मानी, ज्ञानी दल के लोग, जिन्हें वे 'बर्गोजी' कहते हैं अर्थात परश्रमजीवी। और अब आते हैं असंख्य स्वश्रमजीवी, जैसे राज-मिस्त्री, लुहार, बढ़ई, दर्जी, मोची आदि।
धीरे-धीरे इनके हृदय में आर्ट का ज्ञान जगाते रहना जरूरी है। इन जैसे अनाड़ियों के लिए प्रथम दृष्टि में चित्र कला का रहस्य ठीक तौर से समझ लेना कठिन है। वे घूम-फिर कर दीवालों पर टँगी हुई तसवीरें देखते फिरते हैं -- बुद्धि काम नहीं देती। इसके लिए लगभग सभी म्यूजियमों में योग्य परिचायक रखे गए हैं, ये उन्हें समझा दिया करते हैं। म्यूजियमों के शिक्षा विभाग में अथवा ऐसी ही अन्य राष्ट्रीय कार्यशालाओं में जो वैज्ञानिक कार्यकर्ता हैं, उन्हीं में से परिचायक चुने जाते हैं। जो देखने आते हैं, उनके साथ इनका लेन-देन का कोई भी संबंध नहीं रहता। परिचायकों का कर्तव्य होता है कि तसवीर में जो विषय प्रकट किया है, सिर्फ उसी को देख लेने मात्र से तसवीर देखने का उद्देश्य पूरा हो गया, दर्शकों द्वारा ऐसी भूल न होने दें।
चित्र-वस्तु का गठन, उसकी वर्ण-कल्पना, उसका अंकन, उसका 'स्पेस', अंकित वस्तुओं का पारस्परिक अंतर, उसकी उज्ज्वलता -- चित्रकला के ये जो मुख्य शिल्प कौशल हैं, जिनसे चित्रों की विशेष शैली प्रकट होती है-ये सब विषय अब भी बहुत कम लोगों को मालूम हैं। इसलिए परिचारकों में इन सब विषयों का अच्छा ज्ञान होना चाहिए, तभी वे दर्शकों की उत्सुकता और इच्छा को जगा सकते हैं। यह बात और, म्यूजियम में सिर्फ एक ही चित्र नहीं होता, इसलिए एक चित्र को समझ लेना दर्शकों का उद्देश्य नहीं होना चाहिए। म्यूजियम में जो विशेष श्रेणी के चित्र रहते हैं, उनकी श्रेणीगत रीति को समझना आवश्यक है। परिचायकों का कर्तव्य है कि किसी विशेष श्रेणी के कुछ चित्र छाँट कर दर्शकों को उनकी प्रकृति समझा दें। आलोच्य चित्रों की संख्या बहुत ज्यादा होने से काम नहीं चल सकता और समय भी बीस मिनट से ज्यादा लगाना ठीक नहीं। प्रत्येक चित्र की अपनी एक भाषा होती है, अपना एक छंद होता है, यही समझने का विषय है। चित्र के रूप के साथ उसके विषय और भाव का क्या संबंध है, इसकी व्याख्या करना आवश्यक है। चित्रों की पारस्परिक विपरीतता के द्वारा उनकी विशेषता समझा देना अकसर बहुत काम कर जाता है। परंतु यदि दर्शक का मन जरा भी कहीं थक जाए, तो उसे वहीं छुट्टी दे देना चाहिए।
अशिक्षित दर्शकों को किस तरह तसवीर देखना सिखाते हैं, उन्हीं की रिपोर्ट से उपयुक्त बातें संग्रह करके तुम्हें लिख रहा हूँ। इनमें से भारतीयों को जिस बात पर विचार करना चाहिए, वह यह है। पहले जो चिट्ठी लिखी है, उसमें मैंने कहा है कि ये लोग कृषिबल और यंत्रबल से समस्त देश को जल्दी से जल्दी शक्तिमान बनाने के लिए बड़े उद्यम के साथ कमर कस कर जुट पड़े हैं। यह बड़े ही काम की बात है। अन्य समस्त धनी देशों के साथ प्रतियोगिता करते हुए अपने बल पर जीवित रहने के लिए ही इनकी यह कठोर तपस्या है।
हमारे देश में जब इस प्रकार की देशव्यापी राष्ट्रीय तपस्या का जिक्र आता है, तब हम यही कहना शुरू कर देते हैं कि बस सिर्फ लाल मशाल जला कर देश के अन्य सभी विभागों के सब दीपकों को बुझा देना चाहिए, नहीं तो मनुष्य अन्यमनस्क हो जाएँगे। खासकर ललित कला अन्य सब तरह के कठोर संकल्पों की विरोधिनी है। अपनी जाति को पहलवान बनाने के लिए सिर्फ ताल ठुँकवा कर उसे पैंतरेबाजी सिखानी चाहिए, सरस्वती की वीणा से अगर लाठी का काम लिया जा सके, तभी वह चल सकती है, अन्यथा नैव नैव च। इन बातों से कितना नकली पौरुष प्रकट होता है, यहाँ आने से स्पष्ट समझा जा सकता है। यहाँवाले देश भर में कल-कारखाने चलाने में जिन मजदूरों को पक्का कर देना चाहते हैं, वे ही मजदूर अपनी शिक्षित बुद्धि से तसवीरों का रस ग्रहण कर सकें, इसी के लिए इतना विराट आयोजन हो रहा है। ये लोग जानते हैं कि जो रसज्ञ नहीं हैं वे बर्बर हैं, और जो बर्बर हैं, वे बाहर से रूखे और भीतर से कमजोर होते हैं। रूस की नवीन नाट्यकला ने असाधारण उन्नति की है।1917 की क्रांति के साथ-साथ ये लोग घोरतर दुर्दिन और दुर्भिक्ष के समय नाचते रहे हैं, गाते रहे हैं, नाट्याभिनय करते रहे हैं -- इनके ऐतिहासिक विराट नाट्याभिनय के साथ उसका कहीं भी विरोध नहीं हुआ है।
मरुभूमि में शक्ति नहीं होती, शक्ति का यथार्थ रूप वहीं देखने में आता है, जहाँ पत्थर की छाती में से जल की धारा कल्लोलित हो कर निकलती है। यहाँ वसंत के रूप-हिल्लोल से हिमालय का गांभीर्य मनोहर हो उठता है। विक्रमादित्य ने भारतवर्ष से शक शत्रुओं को भगा दिया था, किंतु कालिदास को 'मेघदूत' लिखने से मना नहीं किया। यह नहीं कहा जा सकता कि जापानी लोग तलवार नहीं चला सकते, किंतु साथ ही वे समान निपुणता के साथ तूलिका भी चलाते हैं। रूस में आ कर अगर देखता कि ये केवल मजदूर बन कर कारखानों के लिए सामान ही पैदा करते हैं और हल जोतते हैं, तो समझता कि ये भूखों मरेंगे। जो वृक्ष पत्तों की मर्मर ध्वनि बंद करके खट-खट आवाज से अहंकार करता हुआ कहता रहे कि मुझे रस की जरूरत नहीं, वह जरूर बढ़ई के घर का नकली वृक्ष है, वह अत्यंत कठोर हो सकता है, पर है अत्यंत निष्फल ही। अतएव मैं वीर पुरुषों से कहे देता हूँ और तपस्वियों को सावधान किए देता हूँ कि जब मैं अपने देश को लौटूँगा, तब पुलिस की लाठियों की मूसलाधार वर्षा में भी अपना नाच-गाना बंद नहीं करूँगा।
रूस के नाट्य मंच पर कला की तपस्या का जो विकास हुआ है, वह असाधारण है, महान है। उसमें नवीन सृष्टि का साहस उत्तरोत्तर बढ़ता ही दिखाई देता है, उसकी गति अभी रुकी नहीं है। वहाँ की सामाजिक क्रांति में यह नई सृष्टि ही असीम साहस से काम कर रही है। ये लोग समाज में, राष्ट्र में, कला तत्व में, कहीं भी नवीनता से डरे नहीं हैं।
जिस पुराने धर्मतंत्र ने और जिस पुराने राजतंत्र ने शताब्दियों से इनकी बुद्धि को प्रभावित कर रखा है और प्रणशक्ति को निःशेषप्राय कर दिया है, इन सोवियत क्रांतिकारियों ने उन दोनों ही को निर्मल कर दिया है। इतनी बड़ी बंधन-जर्जरित पराधीन जाति को इतने थोड़े समय के अंदर इतनी बड़ी मुक्ति दी है कि उसे देख कर हृदय आनंद से भर जाता है। क्योंकि, जो धर्म मानव जाति को मूढ़ता का वाहन बना कर मनुष्य के चित्त की स्वाधीनता को नष्ट करता है, उससे बढ़ कर हमारा शत्रु कोई राजा भी नहीं हो सकता -- फिर वह राजा बाहर से प्रजा की स्वाधीनता को कितना ही क्यों न बेड़ियों से बाँधता हो। आज तक यही देखने में आया है कि जिस राजा ने प्रजा को दास बनाए रखना चाहा है, उस राजा का सबसे बड़ा सहायक बना है वही धर्म, जो मनुष्य को अंधा बनाए रखता है। वह धर्म विषकन्या के समान है, आलिंगन से वह मुग्ध कर लेता है और मुग्ध करके मार डालता है, क्योंकि उसकी मार आराम की मार होती है।
सोवियतों ने रूस के सम्राट द्वारा किए गए अपमान और आत्मकृत अपमान के हाथ से इस देश को बचाया है, अन्य देशों के धार्मिक चाहे उनकी कितनी ही निंदा करें, पर मैं निंदा नहीं कर सकता। धर्म मोह की अपेक्षा नास्तिकता कहीं अच्छी है। रूस की छाती पर धर्म और अत्याचारी राजा का जो पत्थर रखा हुआ था, उसके हटते ही देश को कैसी विराट मुक्ति मिली है -- अगर तुम यहाँ होते तो उसे अपनी आँखों से देखते।
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अटलांटिक महासागर
रूस से लौट आया, अब जा रहा हूँ अमेरिका की ओर। रूस यात्रा का मेरा एकमात्र उद्देश्य था, वहाँ जनसाधारण में शिक्षा प्रचार का काम किस तरह चलाया जा रहा है और उसका फल क्या हो रहा है, थोड़े समय में यह देख लेना। मेरा मत यह है कि भारतवर्ष की छाती पर जितना दुख आज अभ्रभेदी हो कर खड़ा है, उसकी एकमात्र जड़ है अशिक्षा। जाति-भेद, धर्म-विऱोध, कर्म-जड़ता, आर्थिक दुर्बलता -- इन सबको जकड़े हुए है शिक्षा का अभाव। साइमन कमीशन ने भारत के समस्त अपराधों की सूची समाप्त करने के बाद ब्रिटिश शासन का सिर्फ एक ही अपराध कबूल किया है, वह है यथेष्ट शिक्षा प्रचार की त्रुटि। मगर और कुछ कहने की जरूरत भी न थी। मान लो, यदि कहा जाए कि गृहस्थों ने सावधान होना सीखा, एक घर से दूसरे घर में जाते हुए चौखट से ठोकर खा कर मुँह के बल गिर पड़ते हैं, हरदम उनकी चीज-वस्तु खोती ही रहती है, ढूँढने से लाचार हैँ, छाया देखते ही उसे हौआ समझ कर डरने लगते हैं, अपने भाई को देख कर 'चोर आया' 'चोर आया' कह कर लाठी ले कर मारने दौड़ते हैं और आलसी ऐसे हैं कि सिर्फ बिछौने से चिपट कर पड़े रहते हैं, उठ कर घूमने-फिरने का साहस नहीं, भूख लगती है, पर भोजन ढूँढने से लाचार, हैं, भाग्य पर अंध-विश्वास करने के सिवा और सब रास्ते उनके लिए बंद-से हैं, अतएव अपनी घर-गृहस्थी की देख-रेख का भार उन पर नहीं छोड़ा जा सकता। इसके ऊपर सबसे अंत में बहुत धीमे स्वर से यह कहा जाए कि 'हमने उनके घर का दीया बुझा रखा है' तो कैसा मालूम पड़े?
वे लोग एक दिन डाइन कह कर निरपराध स्त्री को जलाते थे, पापी कह कर वैज्ञानिक को मारते थे, धर्ममत की स्वाधीनता को अत्यंत निष्ठुरता से कुचलते थे, अपने ही धर्म के भिन्न संप्रदायों के राष्ट्राधिकार को नष्ट-भ्रष्ट किया था, इसके सिवा कितनी अंधता थी, कितनी मूढ़ता थी, कितने कदाचार उनमें भरे थे, मध्य युग के इतिहास से उनकी सूची तैयार की जाए, तो उनका बहुत ऊँचा ढेर लग जाए -- ये सब दूर हुईं किस तरह? बाहर के किसी कोर्ट ऑफ वार्ड्स के हाथ उनकी अक्षमता के जीर्णोद्धार का भार नहीं सौंपा गया, एकमात्र शक्ति ने ही उन्हें आगे बढ़ाया है, यह शक्ति है उनकी शिक्षा। जापान ने इस शिक्षा के द्वारा ही थोड़े समय के अंदर देश की राष्ट्रशक्ति को सर्वसाधारण की इच्छा और उद्यम के साथ मिला दिया है, देश की अर्थोपार्जन की शक्ति को बहुत गुना बढ़ा दिया है। वर्तमान टर्की ने तेजी के साथ इसी शिक्षा को बढ़ा कर धर्मांधता के भारी बोझ से देश को मुक्त करने का मार्ग दिखाया है। 'भारत सिर्फ सोता ही रहता है,' क्योंकि उसने अपने घर में प्रकाश नहीं आने दिया। जिस प्रकाश से आज का संसार जागता है, शिक्षा का वह प्रकाश भारत के बंद दरवाजे के बाहर ही खड़ा है। जब रूस के लिए रवाना हुआ था, तब बहुत ज्यादा की आशा नहीं की थी। क्योंकि, कितना साध्य है और कितना असाध्य, इसका आदर्श मुझे ब्रिटिश भारत से ही मिला है। भारत की उन्नति की दुरूहता कितनी अधिक है, इस बात को स्वयं ईसाई पादरी टॉमसन ने बहुत ही करुण स्वर में सारे संसार के सामने कहा है। मुझे भी मानना पड़ा है कि दुरूहता है अवश्य, नहीं तो हमारी ऐसी दशा क्यों होती? यह बात मुझे मालूम थी कि रूस में प्रजा की उन्नति भारत से ज्यादा ही दुरूह थी, कम नहीं। पहली बात तो यह है कि हमारे देश में भद्रेतर श्रेणी के लोगों की जैसी दशा अब है, यहाँ की भद्रेतर श्रेणी की भी -- क्या बाहर से और क्या भीतर से -- वैसी ही दशा थी। इसी तरह ये लोग भी निरक्षर और निरुपाय थे। पूजा-अर्चना और पुरोहित-पंडों के दिन-रात के तकाजों के मारे इनकी भी बुद्धि बिल्कुल दबी हुई थी, ऊपरवालों के पैरों की धूल से इनका भी आत्म-सम्मान मलिन था, आधुनिक वैज्ञानिक युग की सुविधाएँ इन्हें कुछ भी नहीं मिली थीं, इनके भाग्य पर भी पुरखों के जमाने का भूत सवार हो जाता था, तब इनकी भी पाशविक निष्ठुरता का अंत नहीं रहता था। ये ऊपरवालों के हाथ से चाबुक खाने में जितना मजबूत थे, अपने समान श्रेणीवालों पर अन्याय-अत्याचार करने में भी उतने ही मुस्तैद रहते थे। यह तो इनकी दशा थी। आजकल जिनके हाथ में उनका भाग्य है, अंग्रेजों की तरह वे ऐश्वर्यशाली नहीं हैं। अभी तो कुल 1917 के बाद से अपने देश में उनका अधिकार आरंभ हुआ। राष्ट्र-व्यवस्था सब तरफ से पक्की होने योग्य समय और साधन उन्हें मिला ही नहीं। घर और बाहर सर्वत्र विरोध है। उनमें आपसी गृह कलह का समर्थन करने के लिए अंग्रेजों -- और यहाँ तक कि अमरीकियों ने भी-गुप्त और प्रकट रूप में कोशिश की है। जनसाधारण को समर्थ और शिक्षित बना डालने के लिए उन लोगों ने जो प्रतिज्ञा की है, उनकी 'डिफिकल्टी' (कठिनाई) भारी शासकों की 'डिफिकल्टी' से कई गुना बढ़ी है।
इसलिए मेरे लिए ऐसी आशा करना कि रूस जा कर बहुत कुछ देखने को मिलेगा, अनुचित होता। हमने अभी देखा ही क्या है और जानते ही कितना हैं, जिससे हमारी आशा का जोर ज्यादा हो सकता। अपने दुखी देश में पली हुई बहुत कमजोर आशा ले कर रूस गया था। वहाँ जा कर जो कुछ देखा, उससे आश्चर्य मे डूब गया। शांति और व्यवस्था की कहाँ तक रक्षा की जाती है, कहाँ तक नहीं, इस बात की जाँच करने का मुझे समय नहीं मिला। सुना जाता है कि काफी जबरदस्ती होती है, बिना विचार के शीघ्रता से दंड भी दिया जाता है। और सब विषयों में स्वाधीनता है, पर अधिकारियों के विधान के विरुद्ध बिल्कुल नहीं। यह तो हुई चंद्रमा के कलंक की दिशा, परंतु मेरा तो मुख्य लक्ष्य था प्रकाश की दिशा पर। उस दिशा में जो दीप्ति दिखी, वह आश्चर्यजनक थी -- जो एकदम अचल थे, वे सचल हो उठे हैं।
सुना जाता है कि यूरोप के किसी-किसी तीर्थ-स्थान से, दैव की कृपा से, चिरपंगु भी अपनी लाठी छोड़ कर पैदल वापस आए हैं। यहाँ भी वही हुआ, देखते-देखते ये पंगु की लाठी को दौड़नेवाला रथ बनाते चले जा रहे हैं। जो प्यादों से भी गए-बीते थे, दस ही वर्षों में वे रथी बन गए हैं। मानव समाज में वे सिर ऊँचा किए खड़े हैं, उनकी बुद्धि अपने वश में है, उनके हाथ-हथियार सब अपने वश में हैं।
हमारे सम्राट वंश के ईसाई पादरियों ने भारतवर्ष, में बहुत वर्ष बिता दिए हैं, 'डिफिकल्टीज' कैसी अचल हैं, इस बात को वे समझ गए हैं। एक बार उन्हें मॉस्को आना चाहिए। पर आने से विशेष लाभ नहीं होगा, क्योंकि खास तौर से कलंक देखना ही उनका व्यवसायगत अभ्यास है, प्रकाश पर उनकी दृष्टि नहीं पड़ती, खासकर उन पर तो और भी नहीं पड़ती, जिनसे उन्हें विरक्ति है। वे भूल जाते हैं कि उनके शासन-चंद्र में भी कलंक ढूँढने के लिए बड़े चश्मे की जरूरत नहीं पड़ती।
लगभग सत्तर वर्ष की उमर हुई -- अब तक मेरा धैर्य नहीं गया। अपने देश की मूढ़ता के बहुत भारी बोझ की ओर देख कर मैंने अपने ही भाग्य को अधिकता से दोष दिया है, बहुत ही कम शक्ति के बूते पर थोड़े-बहुत प्रतिकार की भी कोशिश की है, परंतु जीर्ण आशा का रथ जितने कोस चला है, उससे कहीं अधिक बार उसकी रस्सी टूटी है, पहिए टूटे हैं। देश के अभागों के दुख की ओर देख कर सारे अभिमान को तिलांजलि दे चुका हूँ। सरकार से सहायता माँगी है, उसने वाहवाही भी दे दी है, जितनी भीख दी उससे ईमान गया, पर पेट नहीं भरा। सबसे बढ़ कर दुख और शर्म की बात यह है कि उनके प्रसाद से पलनेवाले हमारे स्वदेशी जीवों ने ही उसमें सबसे ज्यादा रोड़े अटकाए हैं। जो देश दूसरों के शासन पर चलता है, उस देश में सबसे भयानक व्याधि हैं ये ही लोग। जहाँ अपने ही देश के लोगों के मन में ईर्ष्या, क्षुद्रता और स्वदेश-विरुद्धता की कालिमा उत्पन्न हो जाए, उस देश के लिए इससे भयानक विष और क्या हो सकता है?
बाहर के सब कामों के ऊपर भी एक चीज होती है, वह है आत्मा की साधना। राष्ट्रीय और आर्थिक अनेक तरह की गड़बड़ियों में जब मन गँदला हो जाता है, तब उसे हम स्पष्ट नहीं देख सकते, इसलिए उसका जोर घट जाता है। मेरे अंदर वह बला मौजूद है, इसीलिए असली चीज को मैं जकड़े रखना चाहता हूँ। इसके लिए कोई मेरा मजाक उड़ाता है तो कोई मुझ पर गुस्सा होता है -- वे अपने मार्ग पर मुझे भी खींच ले जाना चाहते हैं। परंतु मालूम नहीं, कहाँ से आया हूँ मैं इस संसार-तीर्थ में, मेरा मार्ग मेरे तीर्थ देवता की वेदी के पास ही है। मेरे जीवन-देवता ने मुझे यही मंत्र दिया है कि मैं मनुष्य-देवता को स्वीकार कर उसे प्रणाम करता हुआ चलूँ। जब मैं उस देवता का निर्माल्य ललाट पर लगा कर चलता हूँ तब सभी जाति के लोग मुझे बुला कर आसन देते हैं, मेरी बात दिल लगा कर सुनते हैं। जब मैं भारतीयत्व का जामा पहन खड़ा होता हूँ, तो अनेक भाषाएँ सामने आती हैं। जब ये लोग मुझे मनुष्य रूप में देखते हैं, तब मुझ पर भारतीय रूप में ही श्रद्धा करते हैं, जब मैं खालिस भारतीय रूप में दिखाई देना चाहता हूँ, तब ये लोग मेरा मनुष्य-रूप में आदर नहीं कर पाते। अपना धर्म पालन करते हुए मेरा चलने का मार्ग गलत समझने के द्वारा ऊबड़-खाबड़ हो जाता है। मेरी पृथ्वी की मीयाद संकीर्ण होती जा रही है, इसीलिए मुझे सत्य बनने की कोशिश करनी चाहिए, प्रिय बनने की नहीं।
मेरी यहाँ की खबरें झूठ-सच नाना रूप में देश में पहुँचा करती हैं। इस विषय में मुझसे हमेशा उदासीन नहीं रहा जाता, इसके लिए मैं अपने को धिक्कारता हूँ। बार-बार ऐसा मालूम होता रहता है कि वाणप्रस्थ की अवस्था में समाजस्थ की तरह व्यवहार करने से विपत्तियों का सामना करना पड़ता है।
कुछ भी हो, इस देश की 'एनॉर्मस डिफिकल्टीज'(विराट कठिनाइयों) की बातें किताबों में पढ़ी थीं, कानों से सुनी थीं, पर आज उन 'डिफिकल्टीज' को (कठिनाइयों को) पार करने का चेहरा भी आँखों से देख लिया। बस।
4 अक्टूबर, 1930
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ब्रेमेन जहाज
हमारे देश में पॉलिटिक्स को जो लोग खालिस पहलवानी समझते हैं, उन लोगों ने सब तरह की ललित कलाओं को पौरुष का विरोधी मान रखा है। इस विषय में मैं पहले ही लिख चुका हूँ। रूस का जार किसी दिन दशानन के समान सम्राट था, उसके साम्राज्य ने पृथ्वी का अधिकांश भाग अजगर साँप की तरह निगल लिया था और पूँछ से भी जिसको उसने लपेटा, उसके भी हाड़-माँस पीस डाले।
लगभग तेरह वर्ष हुए होंगे, इसी जार के प्रताप के साथ क्रांतिकारियों की लड़ाई ठन गई थी। सम्राट जब मय अपने खानदान के लुप्त हो चुका, उसके बाद भी उसके अन्य संबंधी लोग दौड़-धूप करने लगे और अन्य साम्राज्य-भोगियों ने अस्त्र और उत्साह दे कर उनकी सहायता की। अब समझ सकते हो कि इन कठिनाइयों का सामना करना कितना कठिन था। पूँजीवादियों का -- जो एक दिन सम्राट के उपग्रह थे और किसानों पर जिनका असीम प्रभुत्व था -- सर्वनाश होने लगा। लूट-खसोट, छीना-झपटी शुरू हो गई, सारी प्रजा अपने पुराने प्रभुओं की बहुमूल्य भोग-सामग्री का सत्यानाश करने पर तुल गई। इतने उच्छृंखल उपद्रव के समय भी क्रांतिकारियों के नेताओं ने कड़ा हुक्म दिया कि आर्ट की वस्तुओं को किसी तरह भी नष्ट न होने दो। धनियों के छोड़े हुए प्रासाद-तुल्य मकानों में भी कुछ रक्षण-योग्य चीज-वस्तु थी, अध्यापक और छात्रों ने मिल, कर, भूख और जाड़े से कष्ट पाते हुए भी, सब ला-ला कर युनिवर्सिटी के म्यूजियम में सुरक्षित रख दिया।
याद है, हम जब चीन गए थे तो वहाँ क्या देखा था? यूरोप के साम्राज्य-भोगियों ने पेकिंग (अब बेजिंग) का वसंत-प्रासाद धूल में मिला दिया, युगों से संग्रहीत अमूल्य शिल्प-सामग्री को लूट कर उसे तोड़ कर नष्ट कर दिया। वैसी चीजें अब संसार में कभी बन ही नहीं सकेंगी।
सोवियतों ने व्यक्तिगत रूप से धनिकों को वंचित किया है, परंतु जिस ऐश्वर्य पर मनुष्य मात्र का चिर अधिकार है, जंगलियों की तरह उसे नष्ट नहीं होने दिया। अब तक जो दूसरों के भोग के लिए जमीन जोतते आए हैं, इन लोगों ने उन्हें सिर्फ जमीन का स्वत्व ही नहीं दिया, बल्कि ज्ञान के लिए - आनंद के लिए -- मानव जीवन में जो कुछ मूल्यवान चीज है, सब कुछ दिया है। इस बात को उन्होंने अच्छी तरह से समझा है कि सिर्फ पेट भरने की खुराक पशु के लिए काफी है, मनुष्य के लिए नहीं, और इस बात को भी वे मानते हैं कि वास्तविक मनुष्यत्व के लिए पहलवानी की अपेक्षा आर्ट या कला का अनुशीलन बहुत बड़ी चीज है।
यह सच है कि विप्लव के समय इनकी बहुत-सी ऊपर की चीजें नीचे दी गई हैं, परंतु वे मौजूद हैं, और उनसे म्यूजियम, थियेटर, लाइब्रेरियाँ और संगीतशालाएँ भर गई हैं।
एक दिन था, जब भारत की तरह यहाँ के गुणियों के गुण भी मुख्यतः धर्म-मंदिरों में ही प्रकट होते थे। महंत लोग अपनी स्थूल रुचि के अनुसार जैसे चाहते थे, हाथ चलाया करते थे। आधुनिक शिक्षित भक्त बाबुओं ने जैसे मंदिर पर पलस्तर कराने में संकोच नहीं किया, उसी तरह यहाँ के मंदिरों के मालिकों ने अपने संस्कार के अनुसार जीर्ण-संस्कार करके प्राचीन कीर्ति को बेखटके ढक दिया है, इस बात का खयाल भी नहीं किया कि उसका ऐतिहासिक मूल्य सार्वजनिक और सार्वकालिक है, यहाँ तक कि पूजा के पुराने पात्र तक नए ढलवाए हैं। हमारे देश में भी मठों और मंदिरों में बहुत- सी चीजें ऐसी हैं, जो ऐतिहासिक दृष्टि से मूल्यवान हैं, परंतु कोई भी उसे काम में नहीं ला सकता। महंत भी गहरे मोह में डूबे हुए हैं, काम में लाने योग्य बुद्धि और विद्या से उनका कोई सरोकार ही नहीं। क्षिति बाबू से सुना था कि मठों में अनेक प्राचीन पोथियाँ कैद हुई पड़ी हैं -- जैसे दैत्यपुरी में राजकन्या रहती है, उद्धार करने का कोई रास्ता ही नहीं।
क्रांतिकारियों ने धर्म मंदिरों की चहारदीवारी को तोड़ कर उन्हें सर्वसाधारण की संपत्ति बना दिया है। पूजा की सामग्री को छोड़ कर बाकी सब समान म्यूजियम में इकट्ठा किए जा रहे हैं। इधर जबकि आत्म-विप्लव चल रहा है, चारों ओर टायफायड का प्रबल प्रकोप हो रहा है, रेल के मार्ग सब नष्ट कर दिए गए हैं। ऐसे समय में वैज्ञानिक अन्वेषकगण आसपास के क्षेत्र में जा-जा कर प्राचीन काल की शिल्प-सामग्री का उद्धार कर रहे हैं। इतनी पोथियाँ, इतने चित्र, खुदाई के काम के अलभ्य नमूने संग्रह किए हैं कि जिनकी हद नहीं।
यह तो हुआ धनिकों के मकान और धर्म मंदिरों में जो कुछ मिला, उसका वर्णन। यहाँ के मामूली किसान कारीगरों की बनाई हुई शिल्प-सामग्री, प्राचीन काल में जिसकी अवज्ञा की जाती थी, का मूल्य भी ये समझने लगे हैं, और उधर इनकी दृष्टि है। सिर्फ चित्र ही नहीं, बल्कि लोक साहित्य और लोक संगीत आदि का काम भी बड़ी तेजी से चल रहा है। यह हुआ इनका संग्रह।
इन संग्रहकों के द्वारा लोक शिक्षा की व्यवस्था की गई है। इससे पहले ही मैं इस विषय में तुम्हें लिख चुका हूँ। इतनी बातें मैं जो तुमको लिख रहा हूँ, उसका कारण यह है कि अपने देशवासियों को मैं जता देना चाहता हूँ कि आज से केवल दस वर्ष पहले रूस की साधारण जनता हमारे यहाँ की वर्तमान साधारण जनता के समान ही थी। सोवियत शासन में उसी श्रेणी के लोगों को शिक्षा के द्वारा आदमी बना देने का आदर्श कितना ऊँचा है। इसमें विज्ञान, साहित्य, संगीत, चित्र कला -- सभी कुछ है, अर्थात हमारे देश में भद्र-नामधारियों के लिए शिक्षा का जैसा कुछ आयोजन है, यहाँ की व्यवस्था उससे कहीं अधिक संपूर्ण है।
अखबारों में देखा कि फिलहाल हमारे देश में प्राथमिक शिक्षा का प्रचार करने के लिए हुक्म जारी किया गया है कि प्रजा से कान पकड़ कर शिक्षा कर वसूल किया जाए, और वसूल करने का भार दिया गया है जमींदारों पर। अर्थात जो वैसे ही अधमरे पड़े हैं, शिक्षा के बहाने उन्हीं पर बोझ लाद दिया है।
शिक्षा कर जरूर चाहिए, नहीं तो खर्चा कहाँ से चलेगा? परंतु देश के हित के लिए जो कर है, उसे सब कोई मिल कर क्यों नहीं देंगे? सिविल सर्विस है, मिलिटरी सर्विस है। गवर्नर, वायसराय और उनके सदस्यगण हैं। उनकी भरी जेबों में हाथ क्यों नहीं पड़ता? वे क्या इन किसानों की ही रोजी से तनख्वाह और पेंशन ले कर अंत में जा कर उसका भोग नहीं करते? जूट मिलों के जो बड़े-बड़े विलायती महाजन सन उपजानेवाले किसानों के खून, से मोटा मुनाफा उठा कर देश को रवाना कर दिया करते हैं, उन पर क्या इन मृतप्राय किसानों की शिक्षा का जरा भी दायित्व नहीं है? जो मिनिस्टर वर्ग शिक्षा कानून पास करने में भर पेट उत्साह प्रकट करते हैं, उन्हें क्या अपने उत्साह की कानी-कौड़ी कीमत भी अपनी जेब से नहीं देना चाहिए?
क्या इसी का नाम है शिक्षा से सहानुभूति? मैं भी तो एक जमींदार हूँ, अपनी प्रजा की प्राथमिक शिक्षा के लिए कुछ दिया भी करता हूँ, और भी दो-तीन गुना अगर देना पड़े, तो देने के लिए तैयार हूँ, परंतु यह बात उन्हें प्रतिदिन समझा देना जरूरी है कि मैं उनका अपना आदमी हूँ, उनकी शिक्षा से मेरा ही हित है, और हम ही उन्हें देते हैं। राज्य के शासन में ऊपर से ले कर नीचे तक जिनका हाथ है उनमें से कोई भी एक पैसा अपने पास से नहीं देता।
सोवियत रूस के जनसाधारण की उन्नति का भार बहुत ही ज्यादा है, इसके लिए आहार-विहार में लोग कम कष्ट नहीं पा रहे हैं, परंतु उस कष्ट का हिस्सा ऊपर से ले कर नीचे तक सबने समान रूप से बाँट लिया है। ऐसे कष्ट को कष्ट नहीं कहूँगा, यह तो तपस्या है। प्राथमिक शिक्षा के नाम से सरसों भर शिक्षा का प्रचलन कर भारत सरकार इतने दिनों बाद दो सौ वर्षों का कलंक धोना चाहती है, और मजा यह कि उसके दाम वे ही देंगे, जो दान देने में सबसे ज्यादा असमर्थ हैं। सरकार के लाड़ले अनेकानेक वाहनों पर तो आँच तक न आने पाएगी, वे तो सिर्फ गौरव-करने के लिए हैं।
मैं अपनी आँखों से न देखता तो किसी कदर भी विश्वास न करता कि अशिक्षा और अपमान के खंदक में से निकाल कर सिर्फ दस ही वर्ष के अंदर लाखों आदमियों को इन्होंने सिर्फ क, ख, ग, घ ही नहीं सिखाया, बल्कि उन्हें मनुष्यत्व से सम्मानित किया है। केवल अपनी ही जाति के लिए नहीं, दूसरी जातियों के लिए भी उन्होंने समान उद्योग किया है। फिर भी सांप्रदायिक धर्म के लोग इन्हें अधार्मिक बता कर इनकी निंदा किया करते हैं। धर्म क्या सिर्फ पोथियों के मंत्र में है? देवता क्या केवल मंदिर की वेदी पर ही रहते हैं? मनुष्य को जो सिर्फ धोखा ही देते रहते हैं, देवता क्या उनमें कहीं पर मौजूद हैं?
बहुत-सी बातें कहनी हैं। इस तरह तथ्य संग्रह करके लिखने का मुझे अभ्यास नहीं, पर न लिखना अन्याय होगा, इसी से लिखने बैठा हूँ। रूस की शिक्षा पद्धति के बारे में क्रमशः लिखने का मैंने निश्चय कर लिया है। कितनी ही बार मेरे मन में आया है कि और कहीं नहीं, रूस में आ कर तुम लोगों को सब देख जाना चाहिए। भारत से बहुत गुप्तचर यहाँ आते हैं, क्रांतिकारियों का भी आना-जाना बना ही रहता है, मगर मैं समझता हूँ कि और किसी चीज के लिए नहीं, शिक्षा संबंधी शिक्षा प्राप्त करने के लिए यहाँ आना हमारे लिए बहुत ही आवश्यक है।
खैर, अपनी बातें लिखने में मुझे उत्साह नहीं मिलता। आशंका होती है कि कहीं अपने को कलाकार समझ कर अभिमान न करने लग जाऊँ। परंतु अब तक जो बाहर से ख्याति मिली है, वह अंतर तक नहीं पहुँची। बार-बार यही मन में आता है कि यह ख्याति दैव के गुण से मिली है, अपने गुण से नहीं।
इस समय समुद्र में बह रहा हूँ। आगे चल कर तकदीर में क्या बदा है, मालूम नहीं। शरीर थक गया है, मन में इच्छाओं का उफान नहीं है। रीते भिक्षा पात्र के समान भारी चीज दुनिया में और कुछ भी नहीं, जगन्नाथ को उसका अन्तिम अर्ध्य दे कर न जाने कब छुट्टी मिलेगी?
5 अक्टूबर, 1930।
समाप्त।
संपादक प्रफुल्ल भारती।
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