मंगलवार, 29 दिसंबर 2020

व्यंग्यबाण, मंच की गरिमा- सुनील जश्न

 मंच काव्य की गरिमा पिछले दस बरसों में इतनी ज़ियादा गिरी है कि लोग मंचीय कवियों की तुलना भांडों और तवायफों से करने लगे हैं ।इसके पीछे के प्रमुख कारणों में से एक दो का ज़िक्र मैं यहां करना चाहूँगा । सबसे बड़ा कारण तो एक जो मेरी नज़र में आता है वो है अनुभवी कवियों का लालच और लंपटता । ये लोग अपनी ठरक के चलते उन महिलाओं को कवियित्रियों के रूप में जनता के सामने परोस रहे हैं जो न ठीक से छंद समझती हैं भाषा । न उनकी प्रकृति में काव्य है न व्यवहार में । इन लिपस्टिक पाउडर की दुकानों का जब तक हिंदी काव्य मंचों से बहिष्कार नहीं होगा सामूहिक रूप से मैं नहीं समझता कि हिंदी काव्य मंचों में फिर से स्वस्थ वाचन की परंपरा स्थापित हो पाएगी । श्रृंगार के नाम पर क्या क्या पढ़ दे रही हैं ये ??? छि: छि: । कानूनी कार्यवाही के भय से मैं इनका नाम तो पोस्ट में नहीं लिख सकता लेकिन ये सैकड़ों की तादाद में मौजूद हैं । चमकीली साड़ियों और भड़कीली लिपस्टिक लगाए आप इनकी उपस्थिति में माँ शारदे की तस्वीर को लज्जित होते अवश्य देख सकते हैं । रटे रटाये अंदाज़ में घिसे हुए जुमलों के साथ इनकी शुरुआत होती है , मसलन -- " मां शारदे को नमन करती हूं , उपस्थित मंच को प्रणाम करती हूं , चार पंक्तियां नारी शक्ति को समर्पित करती हूँ । फिर ये अपने ढर्रे पे चालू हो जाती हैं । इनका एक तरन्नुम होता है जो कहीं न कहीं किसी गीत की धुन ही होता है चूँकि छंद से इनकी वाबस्तगी नाम मात्र की ही होती है तो ये उसी धुन पे गुनगुना कर अपना काम चलाती है । बीच बीच में ये लंपट संचालक के साथ नोकझोंक भी करती रहती हैं । कुलमिला कर दर्शकों के लिए सारा मनोरंजन जुटाने का भार इनके कांधो पर ही होता है । ऐसे ही मुशायरों में भी करती हैं ये शाइरा के रूप में  - "' चार मिसरे साहिबे सदर की इजाज़त से , नौजवान दोस्तों के नाम , फलां ढिमका । इतने घटिया होते हैं इनके चार मिसरे कि क्या बताएं जिस पर लंपट कवि इन्हें दाद भी देते हैं । जिससे भृमित होकर आम आदमी भरोसा कर बैठता है कि यार इतने बड़े शायर कवि ने दाद दी है ज़रूर कुछ बड़ी बात कही गयी है । और वो भी पागलों की तरह सीटियां और तालियां मारने लगता है । दूसरा ऐसा ही ओज के ,वीर रस के कवियों के नाम पर परोसा जा रहा है जनता को । जिस जगह दिनकर जैसे महाकवि हुए हैं वहां पर इतने घटिया और स्तरहीन कवियों को पाठ करते देख सकते हैं आप । इनकी सोच पाकिस्तान से आगे बढ़ती ही नहीं । सर पे चोटी रखे हाथ मे कलावा और रुदारक्ष बांधे ये चौबीसों घंटे ये अपने धर्म की रक्षा की दुहाई देते रहते हैं । हर कविता में एक मुस्लिम आक्रमणकारी आकर इनके मंदिर मस्ज़िद तोड़ता रहता है और पाकिस्तान युद्ध की दहलीज पर खड़ा रहता है । यही प्रोसेस सेम मुशायरों में फॉलो होती है बस वहाँ ये यजीद की फ़ौज को खड़ा कर देते हैं । अब वो ज़माना नहीं कि दस किताबें पढ़ने के बाद कोई दो पंक्तियां कहता था अब लोग दस किताबें लिखने के बाद दो पंक्तियां पढ़ते हैं । किसी ज़माने में दुबई , दिल्ली लालकिला , रामपुर , जैसी जगहों के मुशायरे में पढ़ने वालों का कोई मैयार हुआ करता था । अब दुबई में पढ़कर लौटी ख़वातीन को देखता हूँ तो अपने होने पे तरस आता है कि क्या हो गया है मुशायरों को । लोग धड़ल्ले से लगे हुए हैं अपने परिचितों को कवि ,शायर के तौर पर पेश करने में । यहां पर कोई क्वालिटी चेकर नहीं ,कोई फिल्टरेशन नहीं । बस जो जी मे आये लोग माईक के आगे मुँह खोल कर बके जा रहे हैं । आपस ही में साठ गांठ कर के परुस्कार भी बांटे जा रहे हैं । हर औरत शायरा है यहां जैसे और लौंडा युवा कवि । एक भी प्लेटफॉर्म ऐसा नहीं जहां नेपोटिज़्म की बजाय टैलेंट की क़द्र हो । बुजुर्गों ने अपने कान बंद कर लिए हैं और लौंडे छुट्टे सांड हुए पड़े हैं । ग़ज़ल विधा जितने बड़े पैमाने पर सामूहिक बलात्कार का शिकार हुई है शायद ही दूसरी विधा कोई हुई हो । ऐसा ही हिंदी छँद के मामले में हुआ । लड़कों ने शिवजी , पार्वती , कृष्ण राधा के ज़िक्र को हिंदी कविता का छँद समझ रखा हुआ है ।और ग़ज़ल में लड़की , बिस्तर ,पंखा रस्सी । जैसे ग़ज़ल में ज़िन्दगी हमबिस्तर होने और खुदकुशी करने की कहानी भर हो ।


सुनील जश्न


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