शुक्रवार, 16 फ़रवरी 2024

वैचारिक और बौद्धिक गुंडागर्दी।

 कवि अभ्यास से नहीं हो सकते हैं कवि प्राकृतिक रूप से होता है।

प्रोफेसर होना अलग बात है और कवि होना अलग बात है।

मैंने बहुत से प्रोफेसर को कविता कहते सुना,पढ़ा है उनकी कविता में आत्मीयता, संवेदना मरी हुई होती है ऐसा लगता है शब्दों की बनावट कर रखी है। शब्दों को इधर से उठा कर उधर रख दिया है बहुत कम प्रोफेसर ऐसे होते हैं जिनमें कवित्व होता है लेकिन वर्तमान में जो प्रोफेसर हो गया वह अपने आपको सबसे बड़ा कवि स्वयं घोषित करने का अधिकार समझता है और उनके इस पाखंड में असली कवि दब जाते हैं उनके अधिकार इनकी डिग्रियों की आड़ में दब जाते हैं।

अधिकतर प्रोफेसर लोग लिखना केवल अपना अधिकार समझते हैं यह एक तरह की वैचारिक और बौद्धिक गुंडागर्दी होती है और कभी भी प्राकृतिक लेखन उनसे नहीं हो पाता।

असल में तो प्रोफेसर लोग कबीरदास, तुलसीदास,सूरदास,रसखान,खुसरो,जायसी, रामधारी सिंह दिनकर, निराला, महादेवी वर्मा, सुमित्रानंदन पंत, ग़ालिब व दुष्यंत कुमार को पढ़ा सकते हैं और सभी संत और जन कवि कभी अपनी डिग्री या दंभ नहीं भरते थे इसलिए वही वास्तविक रूप में जन कवि होते हैं लेकिन प्रोफेसर लोगों के लिए उनको पढ़ाना ही सही काम है लेकिन वह इनको पढ़ाते पढ़ाते स्वंय को प्रचारित करने के लिए लालायित होने लगते हैं और आत्ममुग्धता के शिकार हो जाते


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