जीवन की उत्पत्ति में अलग अलग तत्वों का समावेश है इसलिए सनातन संस्कृति में प्रारंभ से पृथ्वी जल वायु अग्नि आकाश को देवता और देवी के रूप में पूजा जाता है यहां पर पूजने के अर्थ यही हैं जो इतना श्रेष्ठ या उत्तम है कि उसका कोई दूसरा विकल्प हमारे पास नहीं है इसलिए वह सर्वश्रेष्ठ, सर्वोत्तम है।उसका वरण करना जीवन को अपनाकर उसको नमस्कार करके धन्यवाद ज्ञापित किया जाना चाहिए यह कृतज्ञ होना है।
इसके अर्थ अपने आप में एकदम स्पष्ट व सटीक हैं वह अलग बात है कि हम कालांतर में यह विस्मृत कर गए या हमें किसी स्वार्थ वश किसी ने किसी नदी की तरह बांध बना बना कर अलग-अलग दिशाओं में नहर बना कर मोड़ दिया गया था और हम सटीक तथ्य को ही विस्मृत कर गए।
लेकिन दूसरी जगह यदि आप दृष्टिपात करें तो पाएंगे कि एक व्यक्ति, विचार को ही प्रमुखता दी जाती रही है और एक को ही श्रेष्ठ माना गया है और एक का जहां भी विस्तार होगा वह अहम, अहंकार, घमंड और अत्याचार से भरा होगा।
सत्य है कि जीवन एक तत्व से नहीं चल सकता है सभी तत्वों का समावेश ही जीवन है। लेकिन हैरत है कि जब हम सभी तत्वों के समिश्रण से जी रहे हैं तो भी एक को श्रेष्ठ मानते रहते हैं यह वास्तव में घोर मूर्खता के अतिरिक्त कुछ नहीं है।
मानव मन की भटकन भगवन कभी न जाएगी। जब जाने को होगा तब तनिक समझ आएगी।
जवाब देंहटाएंब्लॉग तो लिखा है परन्तु स्पष्ट नहीं है लगता है कहीं से उठा कर तनिक जमा घंटा कर परोसा लगता है।
आपकी टिप्पणी आई है बहुत बहुत धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंलेकिन आपको बता दूं कि यह केवल मैंने स्वयं लिखा है कल रात ही।
कहीं से तनिक भी नहीं उठाया है।
आपकी टिप्पणी आई है बहुत बहुत धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंलेकिन आपको बता दूं कि यह केवल मैंने स्वयं लिखा है कल रात ही।
कहीं से तनिक भी नहीं उठाया है।