सोमवार, 28 अक्तूबर 2019

ग़ज़ल - अपने ग़म की जबान भी तो नहीं

अपने ग़म की जबान भी तो नहीं चोट का कुछ निशान भी तो नहीं हर जगह रहने के बहुत ग़म हैं अपना कोई मकान भी तो नहीं किस तरह आपका मैं हो जाता आपको मेरा ध्यान भी तो नहीं जीत भी आपकी है तय,लेकिन आपका इम्तिहान भी तो नहीं ग़म मुझे बेहिसाब मिलते हैं बेच देता दुकान भी तो नहीं हर जगह गन्दगी,कहाँ जाऊँ? साफ ये आसमान भी तो नहीं आप पर मैं जता रहा हूँ जबकि आपका एहसान भी तो नहीं । मेरा सब कुछ तुम्हारा ही तो है आपको इत्मिनान भी तो नहीं मेरे अन्दर मैं जी रहा हूँ बस ये कोई तेरी जान भी तो नहीं । नाम ही से सुजान कहलाया आदमी ये "सुजान" भी तो नहीं सूबे सिंह सुजान

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें