मंगलवार, 12 सितंबर 2017

जबसे रहता हूँ मैं सयानों में ग़ज़ल



ग़ज़ल
जबसे रहता हूँ मैं सयानों में
दर्द होने लगा है कानों में

आँख वालों ने देखना था ये
अंधे राजा हुए हैं कानों में

सारे शब्दों ने अर्थ बदले हैं
क्या भरें आज रिक्त स्थानों में

अब तो दिन रात गर्मी लगती है
आ गये हम नये मक़ानों में

सारी सड़कें भरी भरी रहती
कौन रहता है आशियानों में

आइये आँख खोल लेते हैं
हुस्न देखा कंई जमानों में

खूब क़ानून की समझ आयी
लोग हर रोज जाएं थानों में

वक्त रहते नहीं समझ पाते
ऐसी बीमारी है जवानों में

बेवफ़ा से वफ़ा की है उम्मीद
रहते हो आप किन जमानों में

दर्द सारा उड़ेल देता हूँ
आपके सामने,तरानों में

चल चलें, अब यहाँ से चलते हैं
दम घुटा जाए कारखानों में ।

ऐ परिन्दों जरा तुम्हीं झुकना
आदमी भी है आसमानों में ।

सूबे सिंह सुजान

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