ग़ज़ल
जबसे रहता हूँ मैं सयानों में
दर्द होने लगा है कानों में
आँख वालों ने देखना था ये
अंधे राजा हुए हैं कानों में
सारे शब्दों ने अर्थ बदले हैं
क्या भरें आज रिक्त स्थानों में
अब तो दिन रात गर्मी लगती है
आ गये हम नये मक़ानों में
सारी सड़कें भरी भरी रहती
कौन रहता है आशियानों में
आइये आँख खोल लेते हैं
हुस्न देखा कंई जमानों में
खूब क़ानून की समझ आयी
लोग हर रोज जाएं थानों में
वक्त रहते नहीं समझ पाते
ऐसी बीमारी है जवानों में
बेवफ़ा से वफ़ा की है उम्मीद
रहते हो आप किन जमानों में
दर्द सारा उड़ेल देता हूँ
आपके सामने,तरानों में
चल चलें, अब यहाँ से चलते हैं
दम घुटा जाए कारखानों में ।
ऐ परिन्दों जरा तुम्हीं झुकना
आदमी भी है आसमानों में ।
सूबे सिंह सुजान
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