मंगलवार, 25 जनवरी 2022

ग़ज़ल- ज़मीं पे चाँद कभी भी उतर नहीं सकता

 ज़मीं पे चाँद कभी भी उतर नहीं सकता

निज़ाम ए आसमां कभी भी बिखर नहीं सकता।


वो मेरे दिल को दुखाने की बात करते हैं,

तो क्या मैं थोड़ा सा गुस्सा भी कर नहीं सकता?


मैं ही ज़मीं, मैं ही सूरज और आसमां भी मैं,

मुझे ही मुझसे अलग कोई कर नहीं सकता।


हरेक कण में , हर आवाज में भी मैं ही मैं,

मैं अपने आप से तो यार डर नहीं सकता।


मुझे सुखा लो, भिगो दो,जला के भी देखो,

मरा मराया हूँ,तो फिर और मर नहीं सकता।


सूबे सिंह सुजान कुरूक्षेत्र हरियाणा

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें