हम पूरे जीवन कुदरत को समझते रहते हैं लेकिन जरूरी नहीं कि फिर भी पूरी तरह समझ जायें ।
हम जीवन भर भगवान,प्रकृति,धर्म,अधर्म के विषय में अपनी धारणाओं को निर्मित करते रहते हैं लेकिन पूर्णतः नहीं समझ पाते ।
कुदरत ही शाश्वत है । हम चले जाते हैं लेकिन कुदरत अपने आप में परिवर्तन करती रहती है और शाश्वत बनी रहती है ।
मनुष्य का यही कर्तव्य होना चाहिए कि कुदरत के बहाव के अनुसार उसके हर कण,संवेदना को समझ कर जीवन को,शाश्वत सत्य समझ कर ,सबके साथ जिये ।
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