एक पुरानी ग़ज़ल , नये दोस्तों के नाम ।
ग़ज़ल
आदमी की ये क्या दशा हो गई
ज़िन्दगी आज लघुकथा हो गई ।
अब वो खुशियाँ कहाँ से आयेंगी,
सब ग़मों में जो एकता हो गई ।
इस तरह टूटते रहे हैं पहाड़,
जैसे शिमला भी कालका हो गई ।
थोड़ी महँगाई कम हुई थी बस,
फिर चुनावों की घोषणा हो गई ।
सारे किरदार ही बदल गये हैं ,
आत्मा, दुष्ट आत्मा हो गई ।
मैं हँसा था,वो मर मिटा मुझ पर,
मुस्कुराहट भी हादसा हो गई ।
पाप से बचने के लिए देखो,
भूल भी एक रास्ता हो गई ।
©सूबे सिंह सुजान
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