सोमवार, 18 फ़रवरी 2019

गीत चतुर्वेदी का लेख - दिल के किस्से कहाँ नहीं होते

*गीत चतुर्वेदी की कलम से : दिल के क़िस्से कहां नहीं होते*


मशहूर साहित्यकार गीत चतुर्वेदी ने लेखन की नैसर्गिक प्रतिभा और अध्ययन द्वारा प्राप्त क्षमता द्वारा रचित रचनाओं पर जो सवाल उठाये जाते हैं, उसी मुद्दे पर यह लेख लिखा है, जिसमें उन्होंने यह बताने की कोशिश की है कि प्रतिभा नैसर्गिक हो सकती है, किंतु ज्ञान नैसर्गिक नहीं हो सकता, उसे अर्जित करना पड़ता है अध्ययन से चिंतन से. गीत चतुर्वेदी का मानना है कि रचना की श्रेष्ठता महत्वपूर्ण ना कि यह देखना कि वह नैसर्गिक प्रतिभा द्वारा लिखी गयी है यह एक्वायर्ड ज्ञान द्वारा. प्रस्तुत है गीत चतुर्वेदी का आलेख :  दिल के क़िस्से कहां नहीं होते -गीत चतुर्वेदी- जब से मैंने लिखने की शुरुआत की है, अक्सर मैंने लोगों को यह कहते सुना है, 'गीत, तुममें लेखन की नैसर्गिक प्रतिभा है.' ज़ाहिर है, यह सुनकर मुझे ख़ुशी होती थी. मैं शुरू से ही काफ़ी पढ़ता था. बातचीत में पढ़ाई के ये संदर्भ अक्सर ही झलक जाते थे. मेरा आवागमन कई भाषाओं में रहा है. मैंने यह बहुत क़रीब से देखा है कि हमारे देश की कई भाषाओं में, उनके साहित्यिक माहौल में अधिक किताबें पढ़ने को अच्छा नहीं माना जाता. अतीत में, मुझसे कई अच्छे कवियों ने यह कहा है कि ज़्यादा पढ़ने से तुम अपनी मौलिकता खो दोगे, तुम दूसरे लेखकों से प्रभावित हो जाओगे. मैं उनकी बातों से न तब सहमत था, न अब.    बरसों बाद मेरी मुलाक़ात एक बौद्धिक युवती से हुई. उसने मेरा लिखा न के बराबर पढ़ा था, लेकिन वह मेरी प्रसिद्धि से परिचित थी और उसी नाते, हममें रोज़ बातें होने लगीं. हम लगभग रोज़ ही साथ लंच करते थे. कला, समाज और साहित्य पर तीखी बहसें करते थे. एक रोज़ उसने मुझसे कहा, 'तुम्हारी पूरी प्रतिभा, पूरा ज्ञान एक्वायर्ड है. तुम्हारा ज्ञान नैसर्गिक ज्ञान नहीं है.' उसके बाद कई दिनों तक हमारी बहसें इसी मुद्दे पर होती रहीं. बहसों का कोई हल नहीं होता. हममें इतना ईगो हमेशा होता है कि हम 'कन्विंस' होने की संभावनाओं को टाल जायें.   लेकिन मुझे बुरा लगा था. एक्वायर्ड शब्द ही बुरा लगा था. इस शब्द के सारे संभावित अर्थों को जानने के लिए उस रोज़ घर लौटकर मैंने सारे शब्दकोश और थिसॉरस पलटे थे. मुझे एक भी नकारात्मक अर्थ नहीं मिला, लेकिन फिर भी मुझे बुरा लगा था. मुझे बुरा क्यों लगा था? इसका कारण समझने में मुझे कुछ बरस लग गए. जब मेरी प्रतिभा को नैसर्गिक कहा गया था, तो मुझे अच्छा लगा था. जब उसे एक्वायर्ड कहा गया, तो मुझे बुरा लगा. कारण हमारे सामूहिक—सामाजिक—कलात्मक संस्कार थे. हमें बचपन से ही लगभग यह मनवा दिया जाता है कि श्रेष्ठताएं जन्मजात होती हैं. प्रतिभा जन्मजात होती है. बिरवा के पात चिकने हैं, यह बचपन में ही पता चल जाता है. हमें यही स्थिति सबसे अच्छी लगती है. श्रम से पायी गयी, अर्जित की गयी चीज़ों को, वह भी कला के संदर्भ में, अच्छा नहीं माना जाता. अभी पिछले हफ़्ते एक सज्जन कह रहे थे कि नेरूदा नैसर्गिक हैं, एक बार में कविता लिख देते थे, जबकि मीवोश को अपने क्राफ्ट पर बहुत काम करना पड़ता था, इसलिए वह कवि से ज़्यादा मिस्त्री हैं.   प्रतिभाएं तो नैसर्गिक हो सकती हैं, पर क्या ज्ञान भी नैसर्गिक हो सकता है? चाहे बुद्ध हों या आइंस्टाइन, कोई भी जन्मजात ज्ञान लेकर नहीं आता. उसे ध्यान और अध्ययन दोनों की शरण में जाना होता है. दोनों में गहरा भाषाई रिश्ता है. निरंतर ध्यान ही अध्ययन बन जाता है. जो आप धारण करते हैं, उससे आपका ध्यान रचित होता है. इसी से बनती है मेधा. एक होती है प्रज्ञा. वह भी जन्मजात नहीं होती. आपकी मेधा से आपकी प्रज्ञा का विकास होता चलता है. प्रज्ञा, मेधा से चार क़दम आगे चलती है. मान लीजिए, आप किसी किताब के बीस पन्ने पढ़कर छोड़ देते हैं.  एक दिन आप पाते हैं कि आपके मन में वह पंक्ति या दृश्य गूंज रहा है, जो उस किताब के तीसवें पन्ने पर था, जिसे आपने पढ़ा ही नहीं था. यह प्रज्ञा का काम है. वह हमेशा उन भूखंडों में रहती है, जहां आपका अध्ययन व मेधा अभी तक नहीं पहुंचे हैं. गीत चतुर्वेदी की कलम से : जाते हैं जिधर सब, मैं उधर क्यों नहीं जाता इसीलिए योग में प्रज्ञा का विशेष महत्व है. मेधावी तो विद्यार्थी होते हैं, प्रज्ञा योगी के पास आती है. उसे भी प्राप्त करना होता है. एक्वायर्ड होती है. पुरानी अंग्रेज़ी का एक मुहावरा है, जिसे हेमिंग्वे अपने शब्दों में ढालकर बार—बार दुहराते थे— प्रतिभा, दस फ़ीसदी जन्मजात गुण है और नब्बे फ़ीसदी कठोर श्रम. यह वाक्य नैसर्गिक व एक्वायर्ड, दोनों के एक आनुपातिक मिश्रण की ओर संकेत करता है. अगर वह नब्बे फ़ीसदी श्रम न हो, तो उस दस फ़ीसदी का कोई मोल न होगा. एक शेर याद आता है, जिसके शायर का नाम याद नहीं—  दिल के क़िस्से कहां नहीं होते मगर वे सबसे बयां नहीं होते.   पर इस मामले में मेरी मदद हेमिंग्वे से ज़्यादा अभिनवगुप्त ने की. आठ—नौ साल पहले मैंने उन्हें गंभीरता से पढ़ना शुरू किया था. ध्वन्यालोक के उस हिस्से में जहां वह सारस्वत तत्व की विवेचना करते हैं, सहृदय का निरूपण करते हैं, वहां वह प्रख्या और उपाख्या दो प्रविधियों—उपांगों का भी उल्लेख करते हैं. प्राचीन व अर्वाचीन विद्वानों ने इन दोनों शब्दों की भांति—भांति से व्याख्या की है, लेकिन मैंने इन्हें अपने तरीक़े से समझा है. प्रख्या कवि की नैसर्गिक प्रतिभा है, उपाख्या उसका अर्जित ज्ञान है. प्रख्या दर्शन है. उपाख्या अभ्यास है. यहां अभ्यास का अर्थ सीधे—सीधे प्रैक्टिस न समझ लें. अभ्यास यानी उस दर्शन को दृष्टि के व्यवहार में रखना. कवि में एक ऋषि—तत्व का होना अनिवार्य है. ऋषि शब्द को भी समझकर सुना जाये. यह इसलिए कह रहा कि याद आया, आठ-दस साल पहले जब कुंवर नारायण को ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला था, तो सबद पर एक टिप्पणी में मैंने लिखा था कि उनमें ऋषि—तत्व है. कुछ समय बाद हिंदी के एक कवि ने इस शब्द के प्रयोग के आधार पर मुझे दक्षिणपंथी और संघी आदि क़रार दिया और कहा कि ऋषि जैसा शब्द प्रयोग कर मैं कुंवर नारायण को आध्यात्मिक रंग दे रहा हूं. उस हिंदी कवि को ऋषि शब्द का अर्थ नहीं पता है, इसीलिए वह ऐसा लिख गया. कुंवर नारायण को पता है. इसलिए उन्हें पसंद आया था. पुरानी, वैदिक संस्कृत में ऋषि के दो—तीन अर्थ होते हैं, लेकिन मूल अर्थ है— वह व्यक्ति जिसे बहुत दूर तक दिखाई देता हो. इसीलिए जब वेदों का उल्लेख होता है, तो ज्ञानी लोग 'मंत्रों के रचयिता' नहीं, 'मंत्रद्रष्टा' शब्द का प्रयोग करते हैं. कविता रची नहीं जाती, वह पहले से होती है, आप बस उसे देख लेते हैं, उसे उजागर कर देते हैं. उजागर करने की प्रक्रिया में बहुत श्रम लगता है. जैसे पत्थर के भीतर शिल्प होता है, अच्छा शिल्पकार उसे देख लेता है और पत्थर के अनावश्यक हिस्सों को हटाकर शिल्प को उजागर कर देता है. दृश्य हर जगह उपस्थित होता है, अच्छा फिल्मकार उसे देख लेता है, उसके आवश्यक हिस्से को परदे पर उतार देता है। बात वही है— दिल के क़िस्से कहां नहीं होते...।  यह ऋषि—तत्व, देख लेने का यह गुण, प्रख्या है. उजागर करने की प्रक्रिया में लगने वाला श्रम उपाख्या है. रस—सिद्धांत की अच्छी समीक्षा करने वाले लोग भी इस भ्रम में पड़े रहते हैं कि सबसे बड़ा कलाकार वही होता है, जिसके भीतर जन्मजात गुण हो. बचपन से हमारे संस्कार ऐसे होते हैं कि हम जन्म से मिलने वाली श्रेष्ठताओं को ही वरीयता देते हैं. इसीलिए एक्वायर्ड शब्द या अर्जित श्रेष्ठताओं का महत्व हम नहीं समझ पाते. इसीलिए हम साधना के अध्यवसाय को नजरअंदाज़ कर चमत्कारों में यक़ीन करने लग जाते हैं. मेरे उस प्राचीन दुख का कारण यहीं कहीं रहा होगा. किसी एक को महत्वपूर्ण मान लेना, दूसरे को कम महत्व का मानना एक संस्कारी भूल है. श्रम की महत्ता को कम करने आंकने जैसा है. कवि की देह प्रतीकात्मक रूप से अर्ध—नर—नारीश्वर की देह होती है. वह यौगिक है. दो तत्वों के योग से बनी हुई देह. अनुभूति व अभिव्यक्ति का योग. कथ्य व शिल्प का योग. अंतर व बाह्य का योग. प्रख्या व उपाख्या का योग. दाना व नादान का योग. जब कृति सामने आती है, तब यह पता नहीं लगाया जा सकता कि ये दोनों तत्व अलग—अलग थे भी क्या. जैसे पानी पीते हुए हाइड्रोजन और ऑक्सीजन का स्वाद आप अलग—अलग नहीं जान सकते. हां, उसकी शीतलता और प्यास बुझाने के उसके गुण को जान सकते हैं. दोनों बहुत महत्वपूर्ण हैं. दोनों का संयोग महत्वपूर्ण है. इसीलए अभिनवगुप्त ने इस संबंध में कहा था-  सरस्वती के दो स्तनों का नाम है प्रख्या व उपाख्या। कलाकार यदि सरस्वती की संतान है, तो वह अपनी मां के दोनों स्तनों से दुग्धपान करता है. क्या कोई यह बता सकता है कि कालिदास, ग़ालिब और नेरूदा में कितनी प्रख्या थी, कितनी उपाख्या थी? उनका नैसर्गिक ज्ञान कितना था व अर्जित ज्ञान कितना? हो सकता है, किसी रचनाकार के जिस ज्ञान को आप उसका नैसर्गिक ज्ञान मान रहे हों, वह उसने बरसों के अभ्यास से अर्जित किया हो? और जिसे आप उसका अर्जित ज्ञान मान रहे हों, वह उसकी स्वाभाविक प्रज्ञा से आया हो, उन भूखंडों से, जहां तक वह कभी गया ही न हो? रचनात्मकता का यह रहस्य कभी भेदा नहीं जा सकता. सिंदूर प्रकरण : मैत्रेयी ने पोस्ट हटाई कहा, किसी स्त्री का अपमान नहीं होना चाहिए, समर्थन में आये कई लोग यहां ​अभिनवगुप्त का पानक याद आता है. यह पुराने ज़माने का कोई शर्बत है, जिसमें गुड़ भी होता है और मिर्च भी होती है. गुड़ और मिर्च, दोनों को अलग—अलग चखा जाए, तो अलग—अलग स्वाद मिलते हैं. लेकिन जब ईख से बने उस शरबत में इनका प्रयोग किया जाता है, तो एक अलग स्वाद मिलता है. वह तीसरा ही कोई स्वाद होता है. इसलिए कृति का स्वाद या रस, उसके इनग्रेडिएंट्स या उपांगों को देखकर नहीं जाना जाता, बल्कि कृति के संपूर्ण प्रभाव को देखने पर ज़ोर दिया जाता है. क्योंकि आपके पास वही आता है. हम तक नेरूदा और मीवोश के प्रभाव आते हैं, उनका होमवर्क नहीं आ सकता. अंग्रेज़ी में इसे गेस्टॉल्ट इफेक्ट कहते हैं. गेस्टॉल्ट जर्मन का शब्द है, जिसका अर्थ होता है संपूर्ण. आधुनिक दर्शन व मनोविज्ञान की एक पूरी शाखा गेस्टॉल्ट पद्धति पर आधारित है. यह पद्धति कहती है कि चीज़ों को उनके टुकड़ों में न देखा जाये, बल्कि उसे एक में देखा जाये. बहुलता को आधार अवश्य बनाया जाये, लेकिन बहुल के समेकित प्रभाव को जाना जाये. दाल को हल्दी, नमक, मिर्च, तड़का के अलग—अलग उपांगों में बांटकर नहीं चखना चाहिए, उसके समेकित प्रभाव को जानना चाहिए. अंत में आपको 'एक' तक पहुंचना ही होगा. यही 'एक' है, जिसकी ओर शंकर ले जाना चाहते हैं, अभिनवगुप्त ले जाना चाहते हैं, और इसी 'एक' तक बुद्ध भी ले जाना चाहते हैं. बुद्ध में अद्वैत है. भरपूर है. इसका एक प्रमाण यह भी कि बुद्ध का एक नाम 'अद्वयवादी' भी है और यह नाम बुद्ध के जीते—जी प्रचलित हो चुका था. और इसी का उल्टा रास्ता पकड़कर चलें, तो देरिदा और बॉद्रिला के विखंडनवाद और संरचनावाद को समझ सकते हैं. प्राचीन भारतीय दर्शन 'बहुत से एक' की ओर ले जाता है, तो आधुनिक यूरोपीय दर्शन 'एक से बहुत' की ओर. तो जब कोई यह कहता है कि नेरूदा नैसर्गिक थे, क्योंकि वह एक बार में लिख देते थे और मीवोश को अपने क्राफ्ट पर मेहनत करनी होती थी, तो हंसी आ जाती है। क्योंकि तब यह पता चल जाता है कि कहने वाला 'बाल' है, वह अभी अपने 'बाल—पने' से नहीं निकल पाया है, भले सत्तर का हो गया हो. यह कैसे पता चलेगा कि किसी ने एक रचना एक ही बार में लिख दी या दस दिन की मेहनत से? और यह पता करने की ज़रूरत भी क्या है? रचना कैसी है, यह क्यों नहीं देखते? एक बार में लिख देने से भी श्रेष्ठ है तो भी अच्छी बात. चार बार लिखने के बाद भी श्रेष्ठ है, तो भी अच्छी बात. तथाकथित नैसर्गिक प्रतिभा से आयी हो या तथाकथित एक्वायर्ड प्रतिभा से, रचना की श्रेष्ठता ही उसका गेस्टॉल्ट है.  महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा की सच्चाई को उजागर करती ध्रुव गुप्त की कहानी ‘अपराधी’ मध्य—युग के एक इतालवी कवि का किस्सा याद आता है : उसका समाज मानता था कि यदि कोई रचना एक ही बार में लिख दी गयी हो, तो वह ईश्वर—प्रदत्त है. यानी उस रचना की श्रेष्ठता निर्विवाद है. कलाकार हमेशा एक निर्विवाद श्रेष्ठता को पाना चाहता है. तो उस इतालवी कवि ने एक दिन घोषणा की कि मैंने यह लंबी कविता कल रात जंगल में प्राप्त की है, एक प्रकाशपुंज दिखा, और उससे यह कविता मुझ पर नाज़िल हुई. उसके समाज ने उस कविता को महान मान लिया. वह थी भी श्रेष्ठ कविता. कुछ समय बाद वह कवि मरा, तो एक स्मारक बनाने के लिए उसके सामान की तलाशी ली गयी. वहां उसकी दराज़ों में उसी कविता के बारह या अठारह अलग—अलग ड्राफ्ट मिले. वह उसे छह साल से लिखने की कोशिश कर रहा था. चूंकि उसका समाज वैसा था, एक निर्विवाद श्रेष्ठता पाने के लिए उसे दैवीय चमत्कार की कल्पना का सहारा लेना पड़ा.

- गीत चतुर्वेदी।

3 टिप्‍पणियां:

  1. Geet ji bilkul sahi kehte Hain. Agar Koi rachna shreshth hai to is see Kahan kuchh farq padta hai ki use ek bar mein like Diya Gaya tha ya us par kafi arsa kaam Kiya Gaya tha. Ek lekhak bhi ek shilpkar ki tarah apni rachna ki sundrata ko barhane ke liye yadi mehnat karta hai to is mein bura Kya hai.

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    1. आपकी टिप्पणी सकारात्मक विचारों को बढ़ावा दे रही है ।बहुत बहुत आभार

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  2. बहुत बहुत आभार पढ़ने व अपनी उपयुक्त टिप्पणी करने के लिए आभार आदरणीय

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