एक मुशायरे में भारत के दिग्गज सायर अपनी ग़ज़लें पढ रहे थे। कार्यक्रम के अंत में लोग अपनी-अपनी प्रतिक्रिया प्रकट कर रहे थे। एक महाश्य अच्छे शायर थे लेकिन उनको अच्छे-अच्छे शायरों में कोई भी अच्छा नहीं लगा । हां लेकिन उन्होने एक सुंदर शायरा की जरूर तारीफ की। और कहा कि मुन्नवर राणा व राहत इन्दौरी की कुछ ख़ास शायरी नहीं हैं। इनसे अच्छी तो ये कल की शायरा है। इस वाक्य को सुन-देख मुझे बडी हैरानी हुई। क्या सोच होती है आदमी की एक नामवर शायर को भी तुच्छ कैसे कहा गया है। उस महाश्य के मन में क्या रहा है। इसमें कोई शक नहीं है। उस महाश्य को पहले तो यह लगता है कि मैं ही अच्छा शायर हूँ और कोई हो ही नहीं सकता। वह किसी की तारीफ़ कर ही नहीं सकते जो ख़ुद की तारीफ सुनना पसंद करते हैं। दूसरा सोने पे सुहागा ये हुआ कि वहां उनकी सोच के मुताबिक सुन्दरता की देवी मौजूद थी तो वह और किसी को अच्छा कैसे कहे भला।
इस प्रकरण में यह भी तथ्य है कि उस आदमी को ऐसी बातें करने से मिलता क्या है क्या सामने वाले पर कोई असर पडता है। ऐसा नहीं है उसको तो मालूम भी नहीं कि उसने उसके बारे में क्या सोचा है। वह अपना काम तत्लीनता से कर रहा है और जब तक आदमी को पता ही नहीं कि उसके बारे में किसी ने क्या कहा है उस पर किसी प्रकार का असर भी नहीं पडता यह भी प्राकृतिक है। मानवीय स्वभाव हैं दोनों तरफ़- यह हर स्तर के व्यक्ति के साथ होता रहता है। यह मानवीय स्तरों के हर स्तर पर होता है मानव अपने आप से बहुत संतुष्ट होता है वह दूसरों की आलोचना करने में भी संतुष्टि प्राप्त करता है। लेकिन आलोचना तो होना व करना अच्छी बात है। लेकिन जब आलोचना ही बेहुदी तरीके की हो। जिसमें से घृणा ही साफ़ झलकती हो तो वह स्वस्थ प्रकार की आलोचना न होकर ईर्ष्या से प्रेरित आलोचना है।
सूबे सिंह सुजान
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