शुक्रवार, 5 अगस्त 2011

नासमझ समझता है

नासमझ कुछ समझता है कभी-कभी
बादल क्यूँ बरसता है कहीं-कहीं
चाँद क्यूँ निकलता है कभी-कभी
ये बात मेरी समझ में तो आ जाएगी
वो क्यूँ नही समझता है कभी-कभी
रात मस्त हो क्यूँ चांदनी को बुलाती है
...दिन क्यों बदगुमाँ हो जाता है कभी-कभी
मैं समझाता ही नहीं उसको कुछ भी,
उस वक्त वो कुछ समझता है कभी-कभी
चाँद, चाँदनी की जगह पर बैठा है सदियों से,
सूरज ना चल कर भी, चलता है सदियों से

सूबे सिहं सुजान

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